Monthly Archives: April 2010

इनको कभी न खोयें – पूज्य बापू जी


पाँच चीजें कभी नहीं खोनी चाहिए।

अपना समय व्यर्थ न खोयें-

आपका समय इतना बहुमूल्य है कि समय देकर आप दुनिया की सब चीजें प्राप्त कर सकते हैं लेकिन दुनिया की सब चीजें न्योछावर करके भी आप बीते हुए आयुष्य का सौवाँ हिस्सा भी वापस नहीं पा सकते।

पचास-साठ साल, अस्सी साल देकर आपने जो कुछ भी एकत्र किया, वह सब का सब आप दे दें, फिर भी पचास-साठ घण्टे तो क्या पाँच मिनट भी आप अपना आयुष्य नहीं बढ़ा सकते। इसलिए अपने अमूल्य समय को व्यर्थ न गँवाये, उसका खूब-खूब सदुपयोग करेंक। समय को किसी के आँसू पोंछने में लगायें, ईश्वरप्राप्ति में लगायें।

जो लोग गपशप में, विषय-भोग में, मित्रों के साथ घूमने-फिरने में, कामनाओं की पूर्ति में, हास्य-विलास में समय को नष्ट कर देते हैं, वे लोग बड़ी गलती करते हैं। समय को बर्बाद करने वाले स्वयं बर्बाद हो जाता है। अतः अपने जीवन के क्षण-क्षण को सँभालकर ऊँचे-में-ऊँचे, अति ऊँचे काम में लगाना चाहिए। आप समय को जैसे हलके, मध्यम या उत्तम काम में खर्च करते हैं तो बदला भी वैसा ही मिलता है। परम श्रेष्ठ परमात्मा के लिए समय खर्च के लिए समय खर्च करते हैं तो बदले में आप परमातममय बन जाते हैं। समय के सदुपयोग की बलिहारी है !

स्वास्थ्य नहीं खोना चाहिए-

सुखी जीवन के लिए शरीर और मन की स्वस्थता जरूरी है। घर, गाँव, क्षेत्र और शुभाशुभ कर्म पुनः पुनः प्राप्त हो सकते हैं किंतु मनुष्य-शरीर पुनःपुनः प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को सदैव स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए पुण्य का अर्जन करना चाहिए।

शरीर जितना नीरोग, स्वच्छ व पवित्र रहेगा, उतना ही आत्मा का प्रकाश इसमें अधिक प्रकाशित होगा। यदि दर्पण ही ठीक न होगा तो प्रतिबिम्ब कैसे दिखायी देगा ! यदि नींव ही कमजोर है तो इमारत कैसे बुलंद होगी ! शास्त्रों में आता हैः शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। शरीर धर्म का साधन है। शरीर को स्वस्थ रखना जरूरी है। जो आदमी शरीर को स्वस्थ रखना जरूरी है। जो आदमी शरीर को स्वस्थ रखने की कला जानता है, वह बार-बार बीमारी का शिकार नहीं होता है। भगवान ने ‘गीता’ (6.17) में भी शरीर स्वस्थ रखने की बात कही हैः

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

‘दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।’

शरीर एक मंदिर है जिसमें जीवात्मा का पूर्ण विकास हो सकता है। अतः हमें शरीर-स्वास्थ्य संबंधी कुछ हितकारी उपायों को जानकर अपने जीवन में उन्हें आत्मसात् करके स्वास्थ्य-लाभ लेना चाहिए, जिससे फिर स्वस्थ शरीर का उपयोग अशरीरी परमात्मा की प्राप्ति के निमित्त प्राणिमात्र की सेवा में हो सके और शास्त्र की यह बात चरितार्थ हो सकेः

सर्व भवन्तु सुखिनः सर्व सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।

‘सभी सुखी हो, सभी नीरोगी रहें, सभी सबका मंगल देखें और कोई दुःखी न हो।’

संयम नहीं खोना चाहिए।

जिसके जीवन में संयम नहीं है वह पशु से भी गया-बीता हो जाता है। इसलिए जीवन में संयम की बहुत आवश्यकता है। संयमहीन मानव किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाता और कभी प्रारब्ध से कुछ सफलता प्राप्त भी कर लेता है तो अहंकार में फूलकर अपने सर्वनाश को निमंत्रित करता है। जो मन संयम नहीं बरतता, वह किसी बड़े काम के लायक नहीं है। पशुओं के लिए चाबुक होता है परंतु मनुष्य को बुद्धि की लगाम है। सरिता भी दो किनारों से बँधी रहती है और सागर तक पहुँचती है। जिसने संयम, साधना करके अपने अंतःकरण के ज्ञान-स्वभाव की रक्षा की वह महान हो गया।

हे भारते के युवानो ! तुम भी उसी गौरव को हासिल कर सकते हो। यदि जीवन में संयम को अपना लो, सदाचार को अपना लो एवं समर्थ सदगुरु का सान्निध्य पा लो तो तुम भी महान-से-महान कार्य करने में सफल हो सकते हो। लगाओ छलाँग… कस लो कमर…. संयमी बनो… ब्रह्मचारी बनो और ‘युवाधन सुरक्षा अभियान’ के माध्यम से अपने भाई-बंधुओं, मित्रों, पड़ोसियों को तो क्या सम्पूर्ण राष्ट्रवासियों को संयम की महिमा समझाओ, जिससे वे भी संयम का सहारा लेकर अपनी महिमा में जगने में सफल हो सकें।

सम्मान देने का गुण नहीं खोना चाहिए।

छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा व्यक्ति भी सम्मान चाहता है। सम्मान देने में रूपया-पैसा नहीं लगता है और सम्मान देते समय आपका हृदय भी पवित्र होता है। अगर आप किसी से निर्दोष प्यार करते हैं तो खुशामद से हजार गुना ज्यादा प्रभाव उस पर पड़ता है। अतः स्वयं मान पाने की इच्छा न रखो वरन् औरों को सम्मान दो। मान योग्य कर्म करो पर हृदय में मान की इच्छा न रखो, आप अमानी रहो, इससे आपका हृदयकमल खिलेगा, भगवान को पाने के योग्य होगा।

अपना अच्छा स्वभाव नहीं खोना चाहिए-

जो अच्छा कार्य, अच्छा चिंतन करता है उसको अच्छी चीजें, अच्छी संगति, अच्छे विचार, अच्छी आयु मिलती है। उसका स्वभाव अच्छा होने से मन भी अच्छा रहता है, स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और अच्छे संस्कार लेकर वह सदगति को पा लेता है। जो बुरे कार्य करता है, बुरे विचार करता है और बुराई के पीछे लगा रहता है उसको वैसे ही विचार, वैसे ही मित्र भी मिल जाते हैं और  फिर उसकी गति भी ऐसी ही हो जाती है।

समय रहते अपने विवेक को जगाकर अपना ऐसा-वैसा स्वभाव बदलकर पशुता से मनुष्यता, मनुष्ता से देवत्व और देवत्व से देवेश्वरत्व (परमात्म-तत्त्व) की तरफ जाने से आपका तो मंगल होगा, आपके कुल-खानदान में जो पैदा होने वाले हैं उनका भी मंगल हो जायेगा। इसलिए भगवान ने कहा हैः स्वभावविजयः शौर्यम्।

आप अपने स्वभाव पर विजय पाओ।

बस ये पाँच चीजें हैं – समय, स्वास्थ्य, संयम, सम्मान और स्वभाव, इन पाँच चीजों की जो रक्षा करता है, वे उसी की रक्षा करके उसको महान बना देती हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 11, अंक 208

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ग्रीष्म विशेष


(ग्रीष्म ऋतुः 20 अप्रैल से 20 जून तक)

ग्रीष्म में बढ़ने वाली गर्मी, रूक्षता व दुर्बलता को दूर करने के लिए कुछ सरल व अनुभूत प्रयोगः

गर्मीनाशक शरबतः जीरा, सौंफ, धनिया, काली द्राक्ष अथवा किशमिश व मिश्री समभाग लेके कूटकर मिला रखें। एक चम्मच मिश्रण एक ग्लास ठंडे पानी में भिगो दें। 2 घंटे बाद हाथ से मसलकर, छानकर पीयें। पीते ही शीतलता, स्फूर्ति व ताजगी आयेगी।

गर्मी से होने वाली तकलीफों में- दूध में समभाग पानी मिलाकर एक चम्मच घी (हो सके तो गाय का) व मिश्री मिला दें। चुसकी लेते हुए पीयें। इससे शरीर में बल वह स्निग्धता बढ़ेगी। यह प्रयोग गर्मी से भी रक्षा करता है। होनहार माँ अगर पीती है तो बालक व माँ के बल और बुद्धि में इजाफा होगा।

गर्मी एवं पित्तजन्य तकलीफों में- रात को दूध में एक चम्मच त्रिफला घृत (त्रिफला घृत आयुर्वेदिक विश्वसनीय जगह से लेना चाहिए) मिलाकर पीयें। पित्तजन्य दाह, सिरदर्द, आँखों की जलन में आराम मिलेगा।

दोपहर को चार बजे एक चम्मच गुलकंद धीरे धीरे चूसकर खाने से भी लाभ होता है।

लू से बचने हेतुः गुड़ (पुराना गुड़ मिले तो उत्तम) पानी में भिगोकर रखें। एक दो घंटे बाद छान कर पीयें। इससे लू से रक्षा होती है।

प्याज और पुदीना मिलाकर बनायी हुई चटनी भी लू से रक्षा करती है।

ग्रीष्म में शक्तिवर्धकः ठंडे पानी में जौ अथवा चने का सत्तू, मिश्री व घी मिलाकर पीयें। सम्पूर्ण ग्रीष्म में शक्ति बनी रहेगी।

मुँह के छाले व आँखों की जलन में- एक चम्मच (लगभग 5 ग्राम) त्रिफला चूर्ण सुबह मिट्टी के बर्तन में पानी में भिगो दें, शाम को छानकर पीयें। शाम को उसी त्रिफला चूर्ण में पानी मिलाकर रखें, सुबह पी लें। इसी पानी से आँखें धोयें। छाले व जलन कुछ ही समय में गायब हो जायेंगे।

घमौरियाँ दूर करने हेतुः 10 ग्राम नीम के फूल व थोड़ी मिश्री पीसकर, पानी में मिला के पीने से घमौरियाँ दूर हो जायेंगी।

बिन जरूरी प्यास मिटाने हेतुः बार-बार प्यास लगकर बिनजरूरी पानी पीना पड़ता हो तो मिट्टी की पुरानी ईंट को धोकर साफ करके आग में डाल दें। खूब लाल होने पर गाय के दूध से बने दही से बुझा दें। यह दही थोड़ा थोड़ा करके दिन में खा लें। अत्यधिक प्यास लगने की तकलीफ मिट जायेगी।

ग्रीष्म ऋतु में विहारः सुबह 3 बजे से 4 बजे शीतली व चंद्रभेदी प्राणायाम करें। ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शीतल हवा में घूमने जायें। बगीचे की घास पर नंगे पैर घूम लें। व्यायाम व परिश्रम कम करें। सिर, आँख व कान की धूप से रक्षा करें। ग्रीष्म में सर्वाधिक बलक्षय होता है, अतः पति पत्नी सहवास से बचें। बल की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य नितांत आवश्यक है।

हृदय व मस्तिष्क की पुष्टि हेतुः भोजन के बीच में आँवले का 30-35 ग्राम रस पानी में मिलाकर 21 दिन पीने से हृदय और मस्तिष्क खूब मजबूत हो जाता है।

हृष्ट-पुष्ट व गोरी संतान पाने हेतुः गर्भिणी रोज प्रातःकाल थोड़ा नारियल और मिश्री चबाके खाये तो गर्भस्थ शिशु हृष्ट पुष्ट और गोरा होता है। (अष्टमी को नारिय खाना वर्जित है।)

सुंदर व तीव्रबुद्धि संतान प्राप्त करने हेतुः गर्भिणी गर्मियों में 100 ग्राम गाय के दूध में 100 ग्राम पानी मिलाकर एक चम्मच गाय का घी मिला के पीये तो पेट में जो शिशु बढ़ रहा है वह कोमल त्वचा वाला, सुंदर, तेजस्वी व बड़ा बुद्धिमान होगा। दूध पीने के 2 घंटे पहले और बाद में कुछ न खायें।

उपर्युक्त प्रयोगों के साथ यदि गर्भिणी स्त्री सत्संग की पुस्तकें पढ़ती है तो शिशु मेधावी व सुसंस्कारी होगा। ऐसे बालकों की विश्व को जरूरत है। गर्भिणी ‘नारायण, शिव-शिव, नारायण-नारायण, हरि, राम-राम, हरि ॐ’ आदि शब्दों का जितना अधिक स्मरण करे उतना ही शिशु होनहार होगा। ऐसे महात्माओं की आवश्यकता है।

पीलिया (कामला में)- नीम के पत्तों का रस 10 ग्राम, मिश्री 5 ग्राम व शहद 10 ग्राम तीनों मिलाकर दिन में तीन बार लेते रहने से पित्तदोष व यकृत (लीवर) की विकृति दूर हो जाती है। इससे पीलिया में यह रामबाण औषधि का काम करता है। (पूज्य बापू जी द्वारा दिया जाने वाला आशीर्वाद मंत्र भी पीलिया में परम लाभदायी है।)

पुराने बुखार में- तुलसी के ताजे पत्ते 6, काली मिर्च और मिश्री 10 ग्राम ये तीनों पानी के साथ पीस कर घोल बना के बीमार व्यक्ति को पिला दें। कितना भी पुराना बुखार हो, कुछ हो दिन यह प्रयोग करने से सदा के लिये मिट जायेगा।

गले में कफ जमा होने परः जरा सा सेंधा नमक धीरे धीरे चूसने से लाभ होता है। सुबह कोमल सूर्यकिरणों में बैठके दायें नाक से श्वास लेकर सवा मिनट रोकें और बायें से छोड़ें। ऐसा 3-4 बार करें। इससे कफ की शिकायतें दूर होंगी।

गर्मियों में वरदान स्वरूप

हरड़ रसायन योग

लाभः यह सरल योग ग्रीष्म ऋतु (20 अप्रैल से 20 जून तक) में स्वास्थ्य-रक्षा हेतु परम लाभदायी है। यह त्रिदोषशामक व शरीर को शुद्ध करने वाला उत्तम रसायन योग है। इसके सेवन से अजीर्ण, अम्लपित्त, संग्रहणी, उदरशूल, अफरा, कब्ज आदि पेट के विकार दूर होते हैं। छाती व पेट में संचित कफ नष्ट होता है, जिसमें श्वास, खाँसी व गले के विविध रोगों में भी लाभ होता है। इसके नियमित सेवन से बवासीर, आमवात, वातरक्त(), कमरदर्द, जीर्णज्वर, किडनी (गुर्दे) के रोग, पाण्डुरोग (पीलिया, रक्त की कमी) व यकृत के विकारों में लाभ होता है। यह हृदय के लिए बलदायक व श्रमहर है।

विधिः 100 ग्राम गुड़ में थोड़ा सा पानी मिलाकर गाढ़ी चाशनी बना लें। इसमें 100 ग्राम हरड़ का चूर्ण मिलाकर 1-1 ग्राम की गोलियाँ बना लें। प्रतिदिन 1 गोली चूसकर अथवा पानी से लें। यदि शरीर मोटा है तो 1 से 4 ग्राम दिन भर में चूस सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 208

अक्षय फलदायिनीः अक्षय तृतिया

16 मई 2010

अक्षय तृतिया को दिये गये दान, किये गये स्नान, जप, तप व हवन आदि शुभ कर्मों का अनंत फल मिलता है।

स्नात्वा हुत्वा च दत्वा च जप्त्वानन्तफलं लभेत्।

‘भविष्य पुराण’ के अनुसार इस तिथि को किये गये सभी कर्मों का फल अक्षय हो जाता है, इसलिए इसका नाम ‘अक्षय’ पड़ा है। ‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार इस तिथि का उपवास भी अक्षय फल देता है। त्रेतायुग का प्रारम्भ इसी तिथि से हुआ है। इसलिए यह समस्त पापनाशक तथा सर्वसौभाग्य-प्रदायक है। वर्ष के साढ़े तीन मुहूर्तों में भी इसकी गणना होती है।

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बहुरत्ना वसुंधरा


मानव के जीवन में संसारी चीजों की कीमत तब तक होती है, जब तक उसको अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता नहीं होता। जब उसे किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु से दीक्षा-शिक्षा मिल जाती है, जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता चल जाता है और गुरुमंत्ररूपी अमूल्य रत्न मि जाता है तो फिर उसके जीवन में और किसी चीज की कीमत नहीं रह जाती। मेवाड़ की महारानी मीराबाई के जीवन में धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी, परंतु जब उन्हें गुरु से भगवन्नाम की दीक्षा मिली तब वे कहती हैं-

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

वस्तु अमोलक दी मेरे सदगुरु

कृपा करी अपनायो,

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।।

ऐसे ही भक्त पुरंदरदासजी के जीवन में भी देखने को मिलता है।

एक बार राजा कृष्णदेव के निमंत्रण पर भक्त पुरंदरदासजी राजमहल में पधारे। जाते समय राजा ने दो मुट्ठी चावल उनकी झोली में डालते हुए कहाः “महाराज ! इस छोटी सी भेंट को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत करें।” राजा ने उन चावलों में कुछ हीरे मिला दिये थे।

पुरंदरदास जी की पत्नी ने घर पर चावल साफ करते समय देखा कि उनमें कुछ बहुमूल्य रत्न भी हैं तो उन्हें अलग कर कूड़ेदान में फेंक दिया।

पुरंदरदासजी प्रतिदिन दरबार में जाते थे। राजा सदैव ही उन्हें दो मुट्ठी चावल के साथ हीरे मिलाकर दे देता पर मन में सोचता कि ‘पुरंदरदास जी धन के लालच से मुक्त नहीं हैं। यदि वे मुक्त होते तो प्रतिदिन भिक्षा के लिए दरबार में क्यों आते !’

एक दिन राजा ने कहाः ”भक्तराज ! लालच मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियों से दूर कर देता है। अब आप स्वयं ही अपने विषय में विचार करें।”

राजा के मुख से यह बात सुनकर भक्त पुरंदरदास जी को बड़ा दुःख हुआ। वे अगले दिन राजा को अपना घर दिखाने ले गये। उस समय पुरंदरदासजी की पत्नी थाली में चावल फैलाकर साफ कर दी थी। राजा ने पूछाः “देवि ! आप क्या कर रही हो ?”

वह बोलीः “महाराज ! कोई व्यक्ति भिक्षा में चावल के साथ कुछ बहुमूल्य रत्न मिलाकर हमें देता है। मैं उन पत्थरों को निकालकर अलग कर रही हूँ।”

“फिर क्या करेंगी उनका ?”

“घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक दूँगी। हमारे लिए इन पत्थरों का कोई मूल्य नहीं है।”

राजा ने उन सभी बहुमूल्य रत्नों को कूड़ेदान में पड़े देखा तो आश्चर्यचकित रह गया और भक्त-दम्पत्ति के चरणों में गिर पड़ा।

बहुरत्ना वसुंधरा…. यह वसुन्धरा, यह भारतभूमि ऐसे बहुविध मानव-रत्नों से सुशोभित है। धन संग्रह से अलिप्त, बहुमूल्य रत्नों से सुशोभित है। धनसंग्रह से अलिप्त, बहुमूल्य रत्नों में पत्थरबुद्धि रखने वाले भक्त पुरंदरदासजी व उनकी पत्नी जैसे भक्त भी यहाँ हुए हैं और लोक-मांगल्य के लिए धन का सदुपयोग कर सदज्ञान, सत्सेवा, सदाचार की विशाल पावन सरिता बहाने वाले संत एकनाथजी आदि महापुरुष भी इसी धरा पर हुए हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 208

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