(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
सत्तवानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।
‘हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसे श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है।’ (भगवदगीताः 17.3)
भगवान श्रीकृष्ण की जगत-उद्धारिणी वाणी भगवदगीता विश्ववंदनीय ग्रंथ है। भगवदगीता भगवान के हृदय के अनुभव की पोथी कही गयी है। सत्रहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान स्वयं कहते हैं- हे अर्जुन ! हे भारत !! ‘भा’ माना ज्ञान, ‘रत’ माना उसमें रमण करने वाले लोग जिस देश में रहते हैं, उसको भारत बोलते हैं। अर्जुन को भी यहाँ सम्बोधन दिया- ‘भारत !’ ज्ञान में रत रहने वाले अर्जुन ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा अंतःकरण के अनुरूप होती है।
मनुष्य चाहे बाहर से कैसा भी दिखे किंतु भीतर उसकी जैसी आस्था होती है, ऐसी मान्यता बनती है, ऐसे कर्म होते हैं। एक ही माँ बाप की संतानें भिन्न-भिन्न मान्यतावाली और भिन्न-भिन्न कर्म करती हुई दिखती हैं। एक ही पक्ष के लोगों का आचरण भी भिन्न-भिन्न मान्यता और भिन्न-भिन्न कर्मवाला देखा जा सकता है। एक ही धर्म, मजहब, पंथ के लोगों में भी अपनी-अपनी श्रद्धा, मान्यता के अनुसार कर्मों में भिन्नता दिखती है।
श्रद्धा वास्तव में शुद्धस्वरूप सच्चिदानन्द परमात्मा की वृत्ति है परंतु गुणों के मेल से इसके तीन विभाग हैं – सात्त्विक श्रद्धा, राजस श्रद्धा, तामस श्रद्धा।
जिनकी सात्त्विक श्रद्धा है उनके जीवन में सात्त्विक आहार, कर्म, शास्त्र व गुरु की पसंदगी होगी और सात्त्विकता का परम फल है कि उनके हृदय में परमात्मप्राप्ति की रूचि जागेगी, जागेगी और जागेगी ! उनमें सुख-दुःख और परिस्थितियों में सामान्य, निगुरे लोगों की अपेक्षा शांति और समता अधिक होगी।
यदि यक्षों में, किन्नरों में, गन्धर्वों में, धन कमाने में, सत्ता पाने में श्रद्धा है तो यह राजसी श्रद्धा है। वह मौका पाकर अपने स्वार्थ के लिए कभी किसी का कुछ भी करवा लेगी। अगर किसी की धर्म व भगवान में श्रद्धा है और वह राजसत्ता चाहता है तो उसके द्वारा हत्याएँ नहीं होंगी, दूसरे कुकर्म नहीं होंगे। जिसकी श्रद्धा तामसी और राजसी है, वह शराब भी पी लेगा, कबाब भी खा लेगा, पिटाई भी करवा देगा, झगड़े भी करवा देगा, हत्या भी करवा देगा, झगड़े भी करवा देगा, हत्या भी करवा लेगा और चाहेगा कि मेरे को मनचाहा मिलना चाहिए। ‘मैं लंकापति रावण हूँ… सीता-हरण हो जाये तो हो जाये परंतु मैं अपनी चाह पूरी करूँगा’ – यह राजसमिश्रित तामसी वृत्ति है।
रजस् में और तमस् में श्रद्धा सदा के लिए टिकेगी नहीं। राजसी श्रद्धावाला बुरे कर्म कर लेता है पर अंत में पछताता है – यह उसकी सात्त्विक वृत्ति है। अच्छा हुआ तो मैंने किया और गड़बड़ हुई तो ‘क्या करें भाई ! तुम्हारा मुकद्दर ऐसा था, भगवान की मर्जी है’ – यह राजसी व्यक्ति का स्वभाव है। सात्त्विक श्रद्धावाला दूर की सोचता है, दूर की जानता है। अच्छा हुआ तो बोलेगा, ‘भगवान की कृपा’ और कुछ घटिया हुआ तो कहेगा, ‘मेरी असावधानी, लापरवाही रही होगी अथवा तो भगवान मेरे किन्हीं पापकर्मों का फल भुगताकर मुझे शुद्ध करना चाहते होंगे। जो हुआ अच्छा हुआ।’
सात्त्विक श्रद्धावाला सफलता में और विफलता में भी भगवान को धन्यवाद देगा। राजसी श्रद्धावाला सफलता में छाती फुलायेगा और विफलता में अन्य लोगों को, भगवान को कोसेगा। तामसी श्रद्धावाला अपने को भी कोसेगा और सामने वाले का भी कुछ भी करके नुकसान कराये बिना उसे चैन नहीं पड़ेगा। है तो सभी में वह चैतन्य परंतु श्रद्धा के प्रकार और श्रद्धा में प्रतिशत की भिन्नता होने से व्यक्ति के स्वभाव में, मान्यता में, खुशियों में, गम में फर्क पड़ता है।
कोई राजसी श्रद्धा में जीता है और उसका कोई प्रिय व्यक्ति मर गया तो सिर पटकेगा, खूब रोयेगा और तामसी श्रद्धावाला तो आत्महत्या करने को भी उत्सुक हो जायेगा अथवा तो शराब आदि कुछ पी के पड़ा रहेगा। सात्त्विक वाला बोलेगाः “इसमें क्या बड़ी बात है !”
तामसी और राजसी श्रद्धावाला व्यक्ति तो सुख-दुःख की खाई में जा गिरता है परंतु सत्संगी और सात्त्विक श्रद्धावाला व्यक्ति तो सुख को भी स्वप्न समझता है, उसका बाँटकर उपयोग करता है, दुःख को भी स्वप्न समझता है और उसे पैरों तले कुचलकर आगे बढ़ जाता है।
न खुशी अच्छी है न मलाल अच्छा है।
प्रभु जिसमें रख दे वह हाल अच्छा है।।
हमारी न आरजू है र जुस्तजू है।
हम राजी हैं उसमें जिसमें तेरी रजा है।।
इस प्रकार सात्त्विक श्रद्धा का धनी सुख-दुःख, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, जीवन-मृत्यु को ऊपर उठने का साधन बनाते-बनाते साध्य की तरफ आगे बढ़ता है, परमात्म-समता में, परमात्मा में स्थिति कर लेता है।
इस त्रिगुणमयी सृष्टि में जैसे श्रद्धा तीन प्रकार की है, ऐसे ही भोजन भी तीन प्रकार का है। जौ, गेहूँ, चावल, घी, दूध, सब्जियाँ आदि रसयुक्त, चिकना, स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसा आहार सात्त्विक श्रद्धावाले को प्रिय लगेगा। जिसको कड़वा, खट्टा, खारा, बहुत गरम, तीखा, रूखा, दाहकारक और दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाला आहार प्यारा लगता है वे राजसी श्रद्धा वाले हैं। जिसको अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, जूठा तथा अंडा, मांस, मदिरा आदि अपवित्र आहार लेने की, इधर-उधर का मिश्रित करके भी मौज करने की रूचि होगी, वह तामसी विचार का व्यक्ति माना जाता है।
देवर्षि नारदजी कहते हैं- श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्माः…. श्रद्धा सब धर्मों (शास्त्रविहित कर्मों) मूल में है। तामसी, राजसी, सात्त्विक किसी भी साधना-पद्धति में सफलता पाने के लिए श्रद्धा चाहिए। अरे ! रोजी-रोटी, नौकरी-धंधा और पढ़ाई-लिखाई में भी श्रद्धा चाहिए की ‘मैं पढूँगा, पास होऊँगा और आई.ए.एस. बनूँगा।’ ऐसी श्रद्धा करके चलते हैं तभी आई.ए.एस. पदवी तक पहुँचते हैं। हालांकि सभी आई.ए.एस. जिलाधीश नहीं बनते।
श्रद्धा के बिना कोई नहीं रह सकता। वास्तव में श्रद्धा तो भगवदरूपा है। वे लोग बिल्कुल धोखे में हैं जो बोलते हैं कि हमें श्रद्धा से कोई लेना देना नहीं है, हम भगवान को अल्लाह को नहीं मानते हैं। श्रद्धा सभी धर्मों-कर्मों में पहले होती है। चाहे राजसी धर्म-कर्म हो, चाहे तामसी हो, चाहे सात्त्विक हो, उसके मूल में श्रद्धारूपी इंजन होता है तभी आदमी प्रवृत्ति करता है। अब आपको पौरूष क्या करना है ? तामसी श्रद्धा का प्रभाव कम करके राजसी बना दो और राजसी श्रद्धा के प्रभाव को कम करके सात्त्विक बना दो। जब आप दृढ़ सात्त्विक श्रद्धा प्राप्त कर लेंगे तो ब्रह्मज्ञानी सदगुरु का आत्मप्रसाद पचाने में सक्षम बनेंगे और पूर्णता की ओर तीव्र गति से यात्रा करेंगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 209
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