Monthly Archives: June 2010

बच्चों को क्या दें ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

हमारे भारत के बच्चे-बच्चियों के साथ बड़ा अन्याय हो रहा है। अश्लील चलचित्रों, उपन्यास द्वारा उनके साथ बड़ा अन्याय किया जा रहा है। फिर भी हमारे बच्चे-बच्चियाँ अन्य देशों के युवक-युवतियों की अपेक्षा बहुत अच्छे हैं, परिश्रमी हैं, कष्ट सहते हैं, देश विदेश में जाकर बेचारे रोजी-रोटी कमा लेते हैं, दूसरे देशों के युवक-युवतियों की तरह विलासी नहीं हैं। यह सब उनके माँ-बाप की तपस्या है। माँ-बाप जिनका सान्निध्य सेवन करते हैं उन संतों की तपस्या और हमारी भारतीय संस्कृति के प्रसाद की महिमा है। यह ऐसा प्रसाद है कि सब दुःखों को सदा के लिए मिटाने की ताकत रखता है। यह कहीं जा के, किसी को हटा के, किसी को पा के दुःख नहीं मिटाता। कुछ मिल जाये तब दुःख मिटे, कुछ हट जाय तब दुःख मिटे…..नहीं। भारतीय संस्कृति का ज्ञान प्रसाद तो इतना निराला है कि आप चाहे जैसी परिस्थिति में हैं, वह आपको सुखी बना देता है। मगर दुर्भाग्य है कि हमारे देशवासी पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर अपने साथ, अपने बच्चों के साथ अन्याय कर बैठते हैं।

दिल्ली मे मेरे सत्संग में एक पुलिस अफसर आया था। उसके दोनों बच्चों को देखकर मुझे तरस आया। मैंने कहा कि “इनका विकास नहीं होगा, इनके पेट में तकलीफ है।”

बोलाः “चॉकलेट खाते हैं।”

मैंने कहाः “इतनी चॉकलेट क्यों खिलाते हो ? चॉकलेट से, फास्टफूड से कितनी-कितनी हानि होती है, पेट की खराबी होती है।”

बस, पैसे मिल गये, अधिकार मिल गया तो खिलाओ, बच्चे हैं….। बच्चों से पूछते हैं- “क्या चाहिए बेटे ?” बच्चे टी.वी. में देखते रहते हैं तो बोल देते हैं- यह चाहिए, वह चाहिए…..। इससे बच्चों का स्वास्थ्य और हमारे भारत की गरिमा बिगड़ रही है। बच्चों का माँ-बाप के प्रति सदभाव नहीं रहा। यह कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाई का परिणाम है। अगर माँ-बाप के जीवन में सत्संग नहीं है तो जो सूझबूझ चाहिए उससे माँ-बाप भी वंचित हो जाते हैं। अज्ञानता बढ़ाने में, विषय विकार बढ़ाने में अथवा अधिकारलोलुप होकर संघर्ष करने में सुख का, ज्ञान का निवास नहीं है। एकत्व के ज्ञान से ही सारी समस्याओं का समाधान है। यह ज्ञान गुरुकुलों में मिलता है।

कॉन्वेंट स्कूलों में बच्चों को हिन्दू साधुओं के प्रति नफरत करना सिखाया जाता है। हिन्दू देवी देवताओं को नीचा दिखाते हैं, हनुमानजी को बंदर साबित कर देते हैं। पूँछवाले किसी जानवर का चित्र बनाते हैं और बच्चों से पूछते हैं कि ‘यह क्या है?’ बच्चे कहते हैं- ‘जानवर’।

‘कैसे?’

‘क्योंकि इसको पूँछ है।’

फिर हनुमान जी का चित्र बनाते हैं। बोलते हैं- ‘देखो, यह भी जानवर है।’ बच्चों में ऐसी जहरी संस्कार डाल देते हैं। वे ही बच्चे जब बड़े अधिकारी बनते हैं तो हिन्दू होते हुए भी हिन्दू साधुओं के लिए, हिन्दू धर्म के लिए और हिन्दू शास्त्रों के लिए उनके मन में नफरत पैदा हो जाती है, इसलिए बेचारे शराबी हो जाते हैं। शराब पीने से बुद्धि मारी जाती है, फिर न पत्नी का मन सँभाल सकते हैं, न माँ-बाप का मन सँभाल सकते है। ऐसे कई युवकों को मैं जानता हूँ। एक व्यक्ति मेरे पास आया और रोते हुए बोला कि ‘मेरी लड़की ने ग्रेजुएशन किया, तीस हजार की सर्विस थी और जिससे शादी की उस लड़के की भी पैंतीस हजार की सर्विस थी। बयालीस लाख रूपये शादी में खर्च किये लेकिन बाबा ! बेटी को चार महीने का गर्भ है और उसको लाकर घर पर छोड़ दिया।’

क्योंकि पढ़ाई ऐसी थी कि खाओ-पियो-मौज करो। और भी कइयों को देखा है। एक व्यक्ति, वह खुद दो किसी कम्पनी में मैनेजर है, पत्नी भी मैनेजर है, बारह-पन्द्रह लाख वह भी कमाती है। फिर भी दुःखी हैं क्योंकि उन्हें शिक्षा ही उलटी मिली है, संस्कार ही भोगें के मिले हैं। दूसरों का कुछ भी हो, खुद को मजा आना चाहिए। बाहर का मजा लेने के जो संस्कार हैं, वे अंदर के मजे से वंचित कर देते हैं और पाशवी वृत्तियाँ जगाते हैं। जिन बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार मिले हैं, ऐसे बच्चों के लिए बाहरी सुख-सुविधा के साधन उतना मायना नहीं रखते। वे जैसी भी परिस्थिति में रहते हैं, स्वयं तो संतुष्ट रहते हैं, प्रसन्न रहते हैं उनके संपर्क में आने वालों को भी उनसे कुछ-न-कुछ सीखने को मिल जाता है। हम अपने बच्चों को धन न दे सकें तो कोई बात नहीं, बड़े-बड़े बँगले, कोठियाँ, गाड़ियाँ, बैंक बैलेंस न दे सकें तो कोई बात नहीं परंतु अच्छे संस्कार जरूर दें। अगर आपने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार जरूर दें। अगर आपने अपने बच्चों को अच्छे संस्कारों से सम्पन्न बना दिया तो समझो, आपने उन्हें बहुत बड़ी सम्पत्ति दे दी, बहुत बड़ी पूँजी का मालिक बना दिया। यह अच्छे संस्कारों की पूँजी आपके लाडलों को जीवन के हर क्षेत्र में सफल बनायेगी, यहाँ तक कि लक्ष्मीपति भगवान से भी मिलने के योग्य बना देगी। बच्चों के मन में अच्छे संस्कार डालना यह हम सबका कर्तव्य है, इसमें हमें प्रमाद नहीं करना चाहिए, लापरवाही नहीं करनी चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 209

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स्वार्थ त्यागें, महान बनें – पूज्य बापू जी


मनुष्य को कभी भी स्वार्थ में आबद्ध नहीं होना चाहिए। व्यावहारिक वासनाओं को पोसने का स्वार्थ सुख का अभिलाषी है वह सच्ची सेवा नहीं कर सकता। जो संसारी वासनाओं का गुलाम है वह अपना ठीक से विकास नहीं कर सकता। जो अपने स्वार्थ का गुलाम है वह अपना कल्याण नहीं कर सकता। व्यक्तिगत स्वार्थ कुटुम्ब में कलह पैदा कर देगा, कुटुम्ब का स्वार्थ पड़ोस में कलह पैदा कर देगा, पड़ोस का स्वार्थ गाँव में कलह पैदा कर देगा, गाँव का स्वार्थ तहसील में कलह पैदा करेगा, तहसील का स्वार्थ जिले में कलह पैदा कर देगा, जिले का स्वार्थ राज्य में कलह पैदा कर देगा और राज्य प्रांतीयता का स्वार्थ राष्ट्र में कलह पैदा कर देगा, राष्ट्रीयता का स्वार्थ विश्व में कलह करेगा और वैश्विकता का स्वार्थ विश्वेश्वर के दूर पटक देगा। स्वार्थ में आकर मूर्खतावश जो कुप्रचार करते हैं, करवाते हैं मेरे दिल में उनके प्रति नफरत नहीं होती।

दूसरे लोग फोन पर फोन करते हैं ‘बापू जी की सहनशक्ति कैसी है ! इतना कुप्रचार, इतना जुल्म पर जुल्म हो रहा है और बापू जी को देखो तो कोई दुःख नहीं ! जब देखो मुस्कराते रहते हैं। हमको तो बड़ा दुःख होता है।’

बेटा ! तुम जहाँ बैठकर देखते हो वहाँ तुम ठीक हो लेकिन वास्तविकता कुछ और है। जो अखण्ड भारत को तोड़ना चाहते हैं उनकी मुरादें हैं कि हम आपस में लड़ें-भिड़ें, झगड़े परन्तु हमारा ज्ञान कहता है किः

जो हम आपस में न झगड़ते।

बने हुए क्यों खेल बिगड़ते।।

लोग यह मानते हैं कि संघर्ष के बिना विकास नहीं होता, संघर्ष के बिना अपनी चाही हुई चीज नहीं मिलती। भाई साहब ! विदेशी लोग तो ऐसी बड़ी भारी गलती में पड़े हैं कि लड़ाओ और राज करो (Divide and Rule)। हिन्दू हिन्दुओं को लड़ाओ, हिन्दूवादी सरकार को बदनाम करो, हिन्दू संस्थाओं को बदनाम करो। हिन्दुओँ को आपस में लड़ाकर उन पर राज करने की मुराद वालों ने, धर्मांतरण कराने वालों ने हिन्दू साधुओं और पुलिस के बीच में, हिन्दू संस्थाओं और मीडिया के बीच में एक खाई खड़ी कर दी। ये लोग सफल भी हो पाते हैं जब हम स्वार्थ के वशीभूत होकर आपस में लड़ने लग जाते हैं। हमें आपस में लड़ना नहीं चाहिए। लड़ाई-झगड़े से जो भी मिलेगा वह सुखद नहीं होगा और सात्त्विक ज्ञान, आत्मज्ञान, गीताज्ञान से जो मिलेगा वह कभी दुःखद नहीं होगा। संघर्ष से आपको कुछ मिल गया तो आप भोगी बन जाओगे, और अधिक संघर्ष करोगे, अपने से कमजोर लोगों का शोषण करने लग जाओगे।

संघर्ष से अपनी इच्छापूर्ति करो – यह स्वार्थियों की, संकीर्ण मानसिकतावालों की मान्यता बहुत छोटी जगह पर बैठकर होती है। वास्तव में संघर्ष करके अपनी इच्छापूर्ति करने के बाद भी दुःख नहीं मिटता, चिंता नहीं मिटती, विकार नहीं मिटते, अशांति नहीं मिटती। उस अशांति, विकार तथा बदले की भावना से मरने के बाद भी न जाने किस-किस रूप में एक-दूसरे से प्रतिशोध लेने के लिए न जाने किन किन योनियों में भटकते हैं, मारकाट करते रहते हैं, तपते-तपाते रहते हैं कुत्तों की नाईं।

स्वार्थी, नासमझ आपस में कुत्तों की नाईं लड़ मरते हैं परंतु समझदार मनुष्य तो बहुत ऊँचे ज्ञान के धनी होते हैं, दूरदृष्टिवाले होते हैं। लोग कहते हैं- ‘बापू के करोड़ो शिष्य हैं। बापू जी आज्ञा करें तो देश को हिला देंगे, यह कर देंगे – वह कर देंगे।’ मैंने कहाः ‘नहीं बाबा ! देश को हिलाओगे तो भी अपने की ही घाटा है।’

षड्यंत्रकारियों के बहकावे में आकर समझदारी की कमीवाले कुछ की कुछ साजिशें करते हैं। जो षड्यंत्र करके दूसरें का बुरा सोचता है, बुरा चाहता है, बुरा करता है उसका तो अपनी ही बुरा हो जाता है। आप किसी का बुरा चाहोगे तो पहले अपने दिल में बुराई लायेंगे, इससे कुछ-न-कुछ आपकी बुद्धि मारी जायेगी। बुद्धि मारी जाती है तब लाखों करोड़ों की नजरों में आदरणीय व्यक्ति के लिए भी हलकी भाषा बोलते है। फिर उनको लोगों की बददुआएँ मिलती हैं। शास्त्र में आता है कि

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम्।।

(शिव पुराण, रूद्र. सती. 35.9)

जहाँ पूजनीय माता-पिता, सदगुरुओं का आदर नहीं होता और अपूजनीय लोगों का आदर-सत्कार होता है, वहाँ भय, दरिद्रता और मृत्यु का तांडव होने लगता है। गलत निर्णय होने लगते हैं। अशांति के कारण अकाल मृत्यु हो जाती है, हार्टअटैक आ जाता है, एक्सीडेंट होने लगते हैं। इसका प्रत्यक्ष दृष्टान्त है – अफगानिस्तान में महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ी गयीं, महापुरुषों के प्रति नफरत जगायी गयी तो वहाँ कितना कितना कहर हो रहा है !

स्वार्थ आदमी को गुमराह कर देता है। वे लोग सचमुच मूर्ख हैं जो अपनी ही संस्कृति की जड़ों को काटने में लगे रहते हैं। ये फिर भटक जाते हैं, स्वार्थ में अंधे होकर किसी भी तरीके से पैसा इकट्ठा करने लग जाते हैं। ऐसे लोग मरने के बाद नीच योनियों में जाते हैं।

लोगों में सुख शांति का प्रसाद बाँटने वाले संतों-महापुरुषों के प्रति जिनको वैरभाव है, समझ लो उनकी तो तौबा है ! वे न जाने कुत्ता बनकर कितने जन्मों तक दुष्कर्मों का फल भोगेंगे, मेंढक बनेंगे। रामायण में आता हैः

हर गुर निंदक दादुर होई।

जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

एक बार नही, हजार जन्मों तक उनको मेंढक बनना पड़ता है, फिर ऊँट बनते हैं, बैल बनते हैं। लोग बोलते हैं- ‘इनको दंड मिलना चाहिए।’ अरे ! आप हम क्या दंड देंगे ! वे स्वयं दंड ले रहे हैं। अशांति का दंड ले रहे हैं और कई जन्मों में दंड भोगने वाला मन बना रहे हैं। अब उनको हम आप क्या दंड देंगे।

बहुत गयी थोड़ी रही व्याकुल मन मत हो।

धीरज सबका मित्र है करी कमाई मत खो।।

अगर कोई शुभकामना करनी है तो दो-दो माला भगवन्नाम का जप कर लो। स्वार्थ में अँधे बनकर आपस में लड़ाकर मारने वाले इन षड्यंत्रकारियों से बचकर अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए, सीमा पर तैनात प्रहरी की तरह सदैव सावधान रहो। अपनी दृष्टि को व्यापक बनाने का अभ्यास करो। महापुरुषों का सत्संग सुनो।

भगवदसुमरिन का, परिस्थितियों में सम रहने की सजगता का, परमात्म-विश्रान्ति का, आकाश में एकटक निहारने का, श्वासोच्छवास में सोऽहं जप द्वारा समाधि-सुख में जाने का आदरसहित अभ्यास करना। कभी-कभी एकांत में समय गुजारना, विचार करना कि इतना मिल गया आखिर क्या ? अपने को स्वार्थ से बचाना। स्वार्थरहित कार्य ईश्वर को कर्जदार बना देता है और स्वार्थसहित कार्य इन्सान को गद्दार बना देता है। निष्काम कर्म, संस्कृति की सेवा, भगवान का सुमिरन और एकांत में आत्मविचार करके आत्मा के आनंद में आने वाला महान हो जाता है।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 210

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सत्संग यही सिखाता है – पूज्य बापू जी


‘लोग बोलते हैं कि इच्छा छूटती नहीं, इच्छा छोड़ना कठिन है’ लेकिन संत बोलते हैं कि ‘इच्छा पूरी करना असंभव है।’ इच्छा पूरी नहीं होती, इच्छा गहरी होती जाती है। जो कठिन काम है वो तो हो सकता है लेकिन जो काम असम्भव है तब नहीं हो सकता है। हमें इच्छाएँ खींचती हैं इसलिए हम सत् वस्तु (परमात्मा) से दूर हो जाते हैं। किस विषय की इच्छाएँ खींचती हैं ? या तो देखने की या तो सुनने की या सूँघने की या चखने की या स्पर्श करने की। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध…. इन पाँच प्रकार के विषयों की इच्छाएँ हमें घसीटती हैं। अब आज हमारी जो स्थिति है, जो अवस्था है, इसके जवादार हम हैं। हमारी इच्छाएँ घूम-फिरकर देर-सवेर अवस्था का रूप धारण कर लेती हैं। इच्छाएँ आकर अवस्था दे जाती हैं, मिटती नहीं और दूसरी बन जाती है।

विषम इच्छाएँ होती हैं इसीलिए हम दुःखी होते हैं। सजातीय इच्छा हुई और वह पूरी हुई तो गहरी चली जायेगी। इच्छा थोड़ी देर के लिए पूरी हुई, थोड़ी देर का हर्ष हुआ परंतु जिस वस्तु से सुख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर राग की एक गहरी लकीर खींच दी और जिस वस्तु से दुःख मिला उस वस्तु ने हमारे अंदर भय की लकीर खींच दी। इच्छाएँ पूरी नहीं हुई बल्कि उन्होंने हमारे चित्त को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। अब क्या करना चाहिए ?

एक तो होती है सत् वस्तु और दूसरी होती है असत् वस्तु। तो मन के फुरने, कल्पनाएँ जो हैं कि ‘यह करूँ तो सुखी होऊँगा, यह करूँ तो सुखी होऊँगा…’ इन कल्पनाओं के द्वारा असत् वस्तु को पाने की इच्छा हमारे जीवन को टुकड़े-टुकड़े कर देती है और सत्संग के द्वारा सत्त्वगुण बढ़ायें तो हम सत् वस्तु अपने सत्स्वरूप को पा लेते हैं।

दो चीजें होती हैं। एक होती है – नित्य और दूसरी होती है – अनित्य। बुद्धिमान आदमी अपने लिए अनित्य वस्तु पसंद करने के बजाय नित्य वस्तु पसंद करेगा, असत् वस्तु पसंद करने के बजाय सत् वस्तु पसंद करेगा। जो नित्य है, आप उसको पसंद करना और जो अनित्य है, उसका उपयोग करना।

देह अनित्य है – पहले नहीं थी, बाद में नहीं रहेगी और अब भी बदल रही है। जो वस्तु अभी मिली है, वह पहले हमारे पास नहीं  थी और मिली है तो उसको छोड़ना पड़ेगा। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मिली हुई और आप सदा रख सकें। या तो मिली हुई वह वस्तु आपको छोड़नी पड़ेगी या वस्तु आपको छोड़कर चली जायेगी। फिर चाहे वह नौकरी हो, चाहे मकान हो, चाहे परिवार हो, चाहे पति हो, चाहे पत्नी हो, चाहे गाड़ी हो, चाहे देह हो। देह आपको मिली है तो उसे छोड़ना पड़ेगा। बचपन आपको मिला था तो छूट गया। जवानी मिली थी, छूट गयी। बुढ़ापा मिला है, छूट जायेगा। मौत मिलेगी, वह भी छूट जायेगी किंतु आप नहीं छूटोगे क्योंकि आप अछूट आत्मा हो, स्वतः सिद्ध हो, सच्चिदानंदघन हो। जो मिली हुई चीज है उसको आप रख नहीं सकते और अपने-आपको छोड़ नहीं सकते। कितना सरल सत्य है, कितना सनातन सत्य है, कितना स्वाभाविक है !

लोग बोलते हैं, संसार को छोड़ना कठिन है लेकिन संतों का यह अनुभव है, सत्संग से हमने यह जाना है कि संसार को छोड़न कठिन नहीं, संसार को रखना असम्भव है। कठिन नहीं, असम्भव ! परमात्मा को छोड़ना असम्भव है। ईश्वर को आप छोड़ नहीं सकते और जगत को आप रख नहीं सकते। देखो, कितना सरल सौदा है !

बचपन छोड़ने की आपने मेहनत की क्या ? अपने आप छूट गया। बचपन छोडूँ, बचपन छोडूँ…. कोई रट लगायी थी ? जवानी छोड़ूँ, जवानी छोड़ूँ… कोई चिन्ता की थी ? छूट गयी। आप रखना चाहें तो भी छूट जायेगी। ऐसे ही अपमान छोड़ूँ, निंदा छोड़ूँ या स्तुति छोड़ूँ… नहीं ये अपने आप छूटते जा रहे हैं। एक साल पहले जो आपकी निंदा या स्तुति का प्रसंग था, वह अभी पुराना हो गया, तुच्छ हो गया। जो निंदा हुई वह पहले दिन बड़ी भयानक लगी, जो स्तुति हुई वह पहले दिन बड़ी मीठी लगी लेकिन अब देखो, सब पुराना हो गया। संसार की ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है, कोई स्थिति नहीं है कि जिसको आप रख सकें। आपको छोड़ना नहीं पड़ता है महाराज ! छूटता चला जा रहा है।

संसार को थामना असम्भव है और अपने को हटाना असम्भव है। जिसको आप हटा नहीं सकते वह है सत् वस्तु और जिसको आप रख नहीं सकते वह है असत् वस्तु। सत्संग सत् वस्तु का बोध कराने के लिए होता है और जब तक सत् वस्तु का बोध नहीं हुआ तब तक आदमी कहीं टिक नहीं सकता क्योंकि असत् शाश्वत नहीं है। तो असत् का उपयोग करो और सत् का साक्षात्कार करो। बस, सत्संग यही सिखाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 210

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