भगवान की विशेष कृपाएँ

भगवान की विशेष कृपाएँ


पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

ईश्वर की चार विशेष कृपाएँ हैं जिन्हें नास्तिक आदमी भी स्वीकार करेगा। ईश्वर की पहली कृपा है कि हमको मनुष्य शरीर दिया। ‘रामायण’ में आता हैः

बड़ें भाग मानुष तन पावा।

सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

‘बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर (भारत में जन्म) देवताओं को भी दुर्लभ है।’

(रामचरित. उ.कां. 42.4)

हमारे जन्मते ही माँ के भोजन से हमारे लिए दूध बन गया। किसी वैज्ञानिक के बाप की ताकत नहीं कि रोटी सब्जी से दूध बनाके दिखाये। यह ईश्वर की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन है। जब बच्चा खाने पीने के लायक नहीं होता है तो दूध बंद हो जाता है और जब दूसरा बच्चा आता है तो फिर दूध चालू हो जाता है। यह जड़ का काम नहीं है, इसमें समझदारी, शक्ति चेतन परमात्मा की है।

ईश्वर की दूसरी कृपा है हमको बुद्धि दी, शास्त्र का ज्ञान, भगवान की उपासना की पद्धति और श्रद्धा दी।

श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्व श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

“श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्री हरि संतुष्ट होते हैं।’

(नारद पुराण, पूर्व भागः 4.1)

श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। श्रद्धावान लभते ज्ञानम्। यदि मनुष्य को ईश्वर एवं ईश्वरप्राप्त महापुरुषों में दृढ़ श्रद्धा हो जाय तो फिर उसके लिए मुक्ति पाना सहज हो जाता है। श्रद्धा ही श्रेष्ठ धन है। श्रद्धा ऐसा अनुपम सदगुण है कि जिसके हृदय में वह रहता है, उसका चित्त श्रद्धेय के सदगुणों को पा लेता है। श्रद्धा में ऐसी शक्ति है कि वह दुःख में सुख बना देती है और सुख में सुखानंद्स्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करा देती है। जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है वह भले ही बड़े पद पर है लेकिन अशांति की आग उसके चित्त को और वैरवृत्ति की आग उसके कर्मों को धूमिल कर देगी।

तीसरी कृपा है भगवान क्या है, हम क्या हैं और भगवान को कैसे प्राप्त करें, ऐसी जिज्ञासा दी। जिज्ञासा होने से मनुष्य संतों के द्वार तक पहुँच सकता है और संतों के सत्संग से परमात्म-ज्ञान प्राप्त करके मुक्त भी हो सकता है।

सारी कृपाओं में आखिरी कृपा है कि उसने हमें किसी जाग्रत, हयात, आत्मारामी महापुरुष तक पहुँचाया। वे संसार के सर्वोत्तम केवट हैं। जो उनकी भवतरण-नौका में सवार हो जाते हैं, वे निश्चित ही समस्त दुःखों-आपदाओं से पार हो जाते हैं।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

महापुरुषों का मिलना वह ईश्वर की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन है। अगर मुझे सदगुरु लीलाशाहजी महाराज नहीं मिलते तो मैं दस जन्म तो क्या दस हजार जन्मों में भी इस ऊँचाई को नहीं छू सकता था, जो मुझे मेरे सदगुरु के सान्निध्य और कृपा से मिली। ऐसे ही एक महापुरुष हो गये है, लोग उनको मोकलपुर के बाबा बोलते थे। वे बड़े उच्चकोटि के संत थे। गंगाजी ने उनको अपने मध्य में ही रहने को जगह दे दी थी। गंगा जी की दो धाराएँ बन गयीं और बीच के टापू पर मोकलपुर के बाबा का निवास, आश्रम बना। बाद में फिर धीरे-धीरे गाँव भी बस गया।

मोकलपुर के बाबा बड़े अच्छे, आत्मारामी संत थे। उनके पास एक सज्जन आये और बोलेः “बाबा ! मुझे ईश्वर के दर्शन करा दीजिए। हमने आपके सत्संग में सुना है कि ईश्वर हमारे आत्मा हैं और ईश्वर के लिए सच्ची तड़प हो तो वे जरूर दर्शन देते हैं पर महापुरुषों की कृपा होनी चाहिए। मुझ पर कृपा करो बाबा ! मुझे दर्शन करा दो।”

“बाबा ! जब तक मुझे दर्शन नहीं होगा, मैं यहाँ से जाऊँगा नहीं, अन्न नहीं खाऊँगा, जल नहीं पीऊँगा, उपवास करूँगा।” बाबा ने फिर अनसुना कर दिया। 12 घंटे हो गये, 24 घंटे हो गये, 36 घंटे हो गये, 48 घंटे हो गये।

बड़े अलबेले होते हैं महापुरुष ! सुबह को बाबा डंडा लेकर सामने खड़े हो गयेः “क्यों रे ! ईश्वर का दर्शन चाहता है, कैसा बेवकूफ है ! यह जो दिख रहा है वह क्या है !

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।

मैं जल में रस हूँ, सूरज और चंदा में मैं ही प्रभा के रूप में हूँ। वृक्षों में पीपल मैं हूँ। जब सर्वत्र नहीं देख सकता तो ईश्वर विशेषरूप से जहाँ प्रकट हुआ है वहाँ तो देख।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।

“मैं सम्पूर्ण वेदों में ॐकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।”

ईश्वर ही ईश्वर तो है, और नया कौन सा ईश्वर बुलायेगा ! कैसा बेवकूफ है !” बाबा जी ने मार दिया डंडा। डंडा तो बाहर लगा पर अंदर से ईश्वर और उसके बीच की जो खाई थी वह भर गयी और वह आदमी समाधिस्थ हो गया।

गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।

अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।

गुरु शिष्य की कमी को निकालने के लिए बाहर से चोट करते दिखते हैं पर अंदर अपनी कृपा का सहारा देकर रखते हैं। डंडा मारते ही बाबा ने अपना संकल्प बरसाया और शिष्य को परमात्म-विश्रान्ति मिल गयी। आप लोग ऐसी इच्छा मत करना कि बापू भी कभी हमें डंडा मारे। यह मेरी प्रक्रिया नहीं है, मेरी प्रक्रिया दूसरी है।

हमको हयात महापुरुष में दृढ़ श्रद्धा दे दी, यह ईश्वर की कृपा नहीं तो क्या है ! ऐसा सदभाव दिया कि सदगुरु ईश्वर का दर्शन करा सकते हैं। यह भाव आना ईश्वर की कृपा की पराकाष्ठा नहीं है तो क्या है ! अगर मुझमें मेरे गुरुदेव के प्रति दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, गुरुजी मुझे ईश्वर से मिला देंगे ऐसा दृढ़ विश्वास नहीं होता तो जैसे दूसरे लोग भाग गये 5 – 25 प्रतिशत फायदा लेकर, ऐसे ही मैं भी तो भाग जाता। मेरी भी कई कसौटियाँ हुई पर मैं भागा नहीं।

मैं जब मेरे गुरुदेव के श्रीचरणों में रहता था, तब एक दिन गुरुदेव ने एक सेवक को ‘पंचदशी’ ग्रंथ पढ़ने को दिया। वह उसके सातवें प्रकरण का पहला श्लोक पढ़ रहा था।

आत्मानं चेद्धिजानीयादयमस्मीति पुरुषः।

किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत्।।

‘यदि पुरुष यह आत्मा है, मैं हूँ – इस प्रकार आत्मा को जान ले तो किस विषय की इच्छा करता हुआ और किस विषय के लिए आत्मा को तपायमान करे अर्थात् आत्मज्ञान से ही सब कामनाएँ शांत हो जाती हैं।’

शरीर छूट जाने वाला है और आत्मा अमर है, इसको जानने के बाद वह पुरुष शरीर की वाहवाही अथवा शरीर के भोग के लिए क्यों अपने को पचायेगा ! यह चल रहा था और गुरुजी ने जरा सी कृपा-दृष्टि डाली और अपने घर में घर दिखला दिया। तरंग ने अपने को सागर जान लिया, घड़े के आकाश ने अपने को महाकाश के रूप में देख लिया। जीव की कल्पना हटी और ब्रह्म हो गया।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर कार्य रहे न शेष।

धनभागी हैं वे, जो संत-दर्शन की महत्ता जानते हैं, उनके दर्शन-सत्संग का लाभ लेते हैं, उनके द्वार पर जा पाते हैं, उनकी सेवा कर पाते हैं और धन्य है यह भारतभूमि, जहाँ ऐसे आत्मारामी संत अवतरित होते रहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 210

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *