हर परिस्थिति का सदुपयोग

हर परिस्थिति का सदुपयोग


(पूज्य बापू जी की सर्वहितकारी अमृतवाणी)

आपके जीवन का मुख्य कार्य प्रभुप्राप्ति ही है। शरीर से संसार में रहो किंतु मन को हमेशा भगवान में लगाये रखो। समय बड़ा कीमती है, फालतू गप्पे मारने में अथवा व्यर्थ कि चेष्टाओं में समय बर्बाद न करके उसका सदुपयोग करना चाहिए। भगवदस्मरण, भगवदगुणगान और भगवदचिंतन में समय व्यतीत करना ही समय का सदुपयोग है। आपका हर कार्य भगवदभाव  युक्त हो, भगवान की प्रसन्नता के लिए हो इसका ध्यान रखें।

आपके पास क्या है, क्या नहीं है इसका महत्त्व नहीं है, जो है, जितना है उसका उपयोग किसलिए कर रहे हो इसका महत्त्व है। धन है, मान है और धन की हेकड़ी दिखा रहे होः “मैं बड़ा हूँ अथवा मेरे कुटुम्बी ऐसे हैं, वैसे हैं….।” धन का दिखावा करके दूसरों को प्रभावित करते हो और ईश्वर को भूलते हो तो धन का यह दुरुपयोग आपको दुःख में गिरा देगा। धन है, भगवान के रास्ते जाने में उसका सदुपयोग करते हो, जिसका है उसी की प्रीति के लिए लगाते हो तो धन आपका कल्याण कर देगा।

गरीब हो, मजदूरी करते हो, कमियाँ हैं इसकी परवाह न करो। इनका सदुपयोग करने से आपका मंगल हो जायेगा। आपके पास कैसी भी परिस्थिति आये – बीमारी की हो या तंदरुस्ती की, निंदा की हो या वाहवाही की, सबका सदुपयोग करो। आपके पास क्या है इसका मूल्य नहीं है, आप उसका उपयोग सत् के लिए, प्रभु को पाने के लिए करो तो आपका कल्याण हो जायेगा। शबरी भीलन अनपढ़ थी, नासमझ थी लेकिन मैं भगवान की हूँ, गुरु की हूँ….. ऐसा सोचकर गुरुआज्ञा में चली तो महान हो गयी। राजा जनक विद्वान थे, धनवान थे, धन को, विद्या को समाज के हित में लगा दिया तो महान हो गये।

बीमारी आयी। किस कारण आयी यह समझकर सावधान हो गये कि दुबारा वह गलती नहीं करेंगे। बीमारी आयी तो तपस्या हो गयी, वाह प्रभु ! ऐसे प्रसन्न हुए तो यह बीमारी का सदुपयोग हुआ। जरा सी बीमारी आयी और परेशान हो गये… तुरंत इंजेक्शन ले लिया, बिना विचार किये ऑपरेशन करा लिया और असमय बूढ़े हो गये। पैसे भी लुटवाये और शरीर भी खराब करा लिया तो यह बीमारी का दुरुपयोग हुआ।

लोग आपका मजाक उड़ाते हैं तो सावधान हो जाओ कि ‘मरने वाले शरीर का मजाक उड़ा रहे हैं, मसखरी कर रहे हैं। मैं इसको जानने वाला हूँ। ॐआनन्द… तो यह उस परिस्थिति का सदुपयोग हो गया।

कैसी भी परिस्थिति आये, उसका सदुपयोग करके अपने-आपको जानने की, भगवान को पाने की कला सीख लो।

बोलेः महाराज ! हमको भगवान पाने की इच्छा तो है लेकिन हमारे पतिदेव मर गये न, उनकी याद आ रही है। पति में बड़ा मोह था हमारा।

कोई बात नहीं, मोह को रहने दो, मोह को तोड़ो मत। पतिदेव चले गये तो चले गये, भगवान की तरफ गये। मेरे पति को भगवान ने अपने-आपमें समा लिया। अब पति की आकृति में ममता और विकार सब चला गया, भगवान रह गये। हम उस भगवान के रो रहे हैं- ‘हे प्रभु ! कब मिलेंगे….’ यह ममता का, रुदन का सदुपयोग हो गया।

“बाबा ! झूठ बोलने की आदत है। क्या करें?”

ठीक है, खूब झूठ बोलो किंतु उसका सदुपयोग करो, भगवान खुश हो जायेंगे। आप मन ही मन ठाकुरजी के लिए सिंहासन सजाओ और भगवान से झूठ बोलो कि ‘प्रभु ! आओ, आपके लिए सोने का सिंहासन बनाया है, बहुत नौकर-चाकर लगा रखे हैं, मक्खन मिश्री रखी है….’ इस प्रकार मन में जो भी भाव आये ठाकुर जी को प्रसन्न करने के लिए बंडल पर बंडल मारते जाओ। झूठ बोलने की आदत है, कोई बात नहीं, उसको दबाओ मत और कर्मों में फँसाने वाला झूठ कभी बोलो मत। ठाकुर जी को रिझाने वाला झूठ रोज बोलो, धीरे-धीरे झूठ चला जायेगा। ठाकुर जी की प्रीति, ठाकुर जी की निगाहें और ठाकुर जी का माधुर्य आपके हृदय  रति, प्रीति और तृप्ति के रूप में प्रगट होगा। कैसी है सनातन धर्म की व्यवस्था !

मिले हुए का आदर, जाने हुए में दृढ़ता और प्रभु में विकल्परहित विश्वास से आपका कर्मयोग हो जायेगा, भक्तियोग हो जायेगा, ज्ञानयोग हो जायेगा।

गरीबी से भी निर्दुःखता नहीं आती, अमीरी से भी निर्दुःखत नहीं आती बल्कि गरीबी व अमीरी का सदुपयोग करने से निर्दुःखता आती है और हृदय में परमात्मा का प्रागट्य हो जाता है। आपके पास गरीबी है तो डरो मत, उसका सदुपयोग करो, इससे आपके पास वह प्रगट होगा जिसके लिए दुनिया तरसती है। आप पठित हो या अनपढ़ हो, विद्वान हो या मूर्ख हो, बीमार हो या स्वस्थ हो, जैसे भी हो उसका सदुपयोग करे, भाई है तो भाईपने का सदुपयोग करे। मुख्य सम्पादक है तो सम्पादकपने का सदुपयोग करे। पत्रकार हो तो पत्रकारिता का सदुपयोग करे। सदुपयोग में इतनी शक्ति है कि उसके सहारे भगवान मिल जाते हैं।

‘बाबा ! दुर्घटना हो जाय, दुःख आये उसका सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?’ हाँ ! मर्खता का विद्वता का, धन-धान्य का सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?’ हाँ बिल्कुल मिल जायेंगे। कुछ भी नहीं है, निपट-निराले एकदम कंगाल हैं, इस परिस्थिति का भी सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?’ बोलेः हाँ !

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमो मतः।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख या दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

(भगवदगीताः 6.32)

परिस्थिति कैसी भी आयें, उनमें डूबो मत। उनका उपयोग करो। समझदार लोग संतों से, सत्संग से सीख लेते हैं और सुख-दुःख का सदुपयोग करके बहुतों के लिए सुख, ज्ञान व प्रकाश फैलाने में भागीदार होते हैं और मूर्ख लोग सुख आता है तो अहंकार में तथा दुःख आता है तो विषाद में डूब के स्वयं का तो सुख, ज्ञान और शांति नष्ट कर लेते हैं, औरों को भी परेशान करके संसार से हारकर चले जाते हैं।

संसार से जाना तो सभी को है, हमको भी जाना है, आपको भी जाना है, यहाँ सब जाने वाले ही आते हैं। भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध-महावीर सब आये और चले गये, हमारे दादे-परदादे सब चले गये तो हम कब तक ? यह शरीर तो जाने वाला है। जो जाने वाला है उसके जाने का सदुपयोग करो और जो रहने वाला है उसको सत्संग के द्वारा पहचान कर अभी आप निहाल हो जाओ, खुशहाल हो जाओ, पूर्ण हो जाओ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।…..

तो अब करना क्या है ? गरीब होना है ? अमीर होना है ? यहाँ रहना है ? परदेश जाना है ? क्या करना है ?

कुछ करना नहीं है, कोई परिवर्तन की इच्छा नहीं करनी है, जो कुछ हो रहा है उसका सदुपयोग करना है। ‘ऐसा हो जाय, वैसा हो जाय, ऐसा बन जाऊँ….’ इस चक्कर में मत पड़ो।

प्रारब्ध पहले रच्यो, पीछे भयो शरीर।

तुलसी चिंता क्या करे, भज ले श्री रघुवीर।।

पुरुषार्थ अपनी जगह पर है, प्रारब्ध अपनी जगह पर है, दोनों का सदुपयोग करने वाला धन्य हो जाता है।

परिस्थिति कैसी भी आये, अपने चित्त में दुःखाकार या सुखाकार वृत्ति पैदा होगी लेकिन उस वृत्ति को बदलकर भगवदाकार करना, यह है परिस्थिति का सदुपयोग। धन आया, सत्ता आयी, योग्यता आयी और अहंकार बढ़ाया तो आपने इनका दुरुपयोग किया। यदि धन से बहुजन हिताय-बहुजनसुखाय का नजरिया बना और मिली हुई योग्यता का सत्यस्वरूप ईश्वर के ज्ञान में, शांति में, ईश्वरप्रसादजा बुद्धि बनाने में सदुपयोग किया तो आप और ऊपर उठते जायेंगे, अनासक्त भाव से और ऊँचाइयों को छूते जायेंगे। बाहर की ऊँचाई दिखे चाहे न दिखे लेकिन अंतरात्मा की संतुष्टि, प्रीति और तृप्ति आपके हृदय में आयेगी।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,20 अंक 210

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