हृदयकोष की रक्षा करो – पूज्य बापू जी

हृदयकोष की रक्षा करो – पूज्य बापू जी


काम, क्रोध, लोभ, मोह के जो आवेग आते हैं, उनसे बचने के लिए सोचो कि ‘इन आवेगों के अनुसार कौन-सा काम करें, कौन सा न करें ?’ इसमें तुम्हारी पुण्याई चाहिए। पहले जानो। जानाति, इच्छति, करोति। जानो, फिर शास्त्र अनुरूप इच्छा करो, फिर कर्म करो। आप क्या करते हैं कि पहल कर्म करते हैं। इन्द्रियाँ कर्म में लगती हैं, मन उसके पीछे लगता है और बुद्धि को घसीट के ले जाता है तो धीरे-धीरे बुद्धि राग-द्वेषमयी हो जाती है।

इच्छा हुई तो सोचो कि ‘इच्छा के अनुसार कर्म करें या बुद्धि से सोच के कर्म करें ?’ इच्छा हुई, फिर मन से उसको सहमति दी और इच्छा के अनुरूप मन करना चाहता है तो धीरे-धीरे बुद्धि दब जायेगी। बुद्धि का राग-द्वेष का भाग उभरता जायेगा, समता मिटती जायेगी। अगर शास्त्र, गुरु और धर्म का विचार करके बुद्धि को बलवान बनायेंगे और समता बढ़ाने वाला, मुक्तिदायी जो काम है वह करेंगे तो बुद्धि और समता बढ़ेगी लेकिन मन का चाहा हुआ काम करेंगे तो बुद्धि और समता का नाश होता जायेगा। कुत्ते, गधे, घोड़े, बिल्ले, पेट से रेंगने वाले तुच्छ प्राणी और मनुष्य में क्या फर्क है ?

वसिष्ठजी कहते हैं- हे रामजी ! कभी ये मनुष्य थे लेकिन जैसी इच्छा हुई ऐसा मन को घसीटा और बुद्धि उसी तरफ चली गयी तो धीरे धीरे दुर्बुद्धि होकर केँचुए, साँप और पेट से रेंगने वाले प्राणियों की योनियों में पड़े हैं।

जो बहुत द्वेषी होता है वह साँप की योनि में जाता है। इसी प्रकार की और भी कई योनियाँ हैं। यह चार दिन की जिंदगी है, अगर इसको सँभाला नहीं तो चौरासी लाख जन्में की पीड़ाएँ सहनी पड़ती हें।

रक्षत रक्षत कोषानामपि कोषें हृदयम्।

यस्मिन सुरक्षिते सर्वं सुरक्षितं स्यात्।।

‘जिसके सुरक्षित होने से सब सुरक्षित हो जाता है, वह कोषों का कोष है हृदय। उसकी रक्षा करो, रक्षा करो।’

खरीदारी करके कमीशन खाना, चोरी करना, बेईमानी करना…. ले क्या जायेंगे, कहाँ ले जायेंगे ! प्रारब्ध में जो होगा वह नहीं माँगने पर भी मिलेगा और कितनी भी बेईमानी करो, देर-सवेर उसका फल बेईमान को दुःखद योनियों में ले जायेगा। यदि तुम दगाखोर और कपटी हुए तो उसका फल तुमको भी दुःखद योनियों में ले जायेगा। ऐसे कपटी, बगला भगत को फिर बगुले, बिलार वाली, कपट करके पेट भरने वाली योनियों में जाना पड़ता है। तो बुद्धि में लोभ का आवेग आया, काम का आवेग आया, क्रोध का आवेग आया इंद्रियों में शरीर में तो शास्त्र के अनुरूप परिणाम का ख्याल करके बुद्धि को बलवान बनायें और आवेग को सहन करें। लोभ के आवेग को सहन करें। सोचें, ‘अनीति का धन क्या करना, अनीति का भोग क्या करना ?’ पहले शास्त्र के ढंग से बुद्धि में औचित्य-अनौचित्य समझ लो। वासना कहती है यह कर्म करो, इच्छा बोलती है करो लेकिन बुद्धि बोलती है उचित तो नहीं है, तो धीरे-धीरे थोड़ा समय निकाल दो और मन को थोड़ा समझाओ अथवा दूसरे काम में लगाओ तो वासना और द्वेष की लहर शांत हो जायेगी। अगर करने का आवेगा है, मन भी कहता है करो, बुद्धि भी कहती है करो और करने का औचित्य भी है तो उसे कर डालो।

एक तरफ इच्छा खींचती है और दूसरी तरफ बुद्धि और शास्त्र सहमति नहीं देते हैं तो वह कर्म अधर्म है। ऐसी स्थिति में थोड़ा समय गुजरने दो। जैसे समुद्र की लहर आयी और आप बैठ गये, समय गया तो लहर उतर गयी। ऐसे ही ये आवेग हैं। आवेग के समय थोड़ा शांत हो जायें, थोड़ा धैर्य रखें तो आवेग उतर जाता है। नहीं तो आवेग-आवेग में आदमी अंधा हो जाता है। आवेग-आवेग में अपनी खुशामद करने वाले चमचे अच्छे लगेंगे।

तो राग-द्वेष से बचें। आवेगों से बचें और भगवान में श्रद्धा करें। भगवान में सर्वसमर्थता, अंतर्यामीपना आदि दिव्य गुण हैं। आर्त्तभाव से प्रार्थना करे कि ‘प्रभु ! हमें अपने प्रसाद से पावन करो। हम तो आपके रस में नहीं आ रहे, आप ही हमें जबरदस्ती अपने रस में डुबा दो।’

आप चाहे कैसे भी हो, आर्त्तभाव से भगवान को प्रार्थना करते हो तो भगवान तुरंत आपको दोषों को झाड़ देते हैं और भगवदरस मिलता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 9,11 अंक 210

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *