Monthly Archives: June 2010

जल-सेवन विधि


हमारे शरीर में जलीय अंश की मात्रा 50 से 60 प्रतिशत है। प्रतिदिन सामान्यतः 2300 मि.ली. पानी त्वचा, फेफड़ों व मूत्रादि के द्वारा उत्सर्जित होता है। शरीर को पानी की आवश्यकता होने पर प्यास लगती है। उसकी पूर्ति के लिए जितना आवश्यक है, उतना ही पानी पीना चाहिए। उससे कम अथवा अधिक पानी पीना, प्यास लगने पर भी पानी न पीना अथवा बिना प्यास के पानी पीना रोगों को आमंत्रण देना है।

आयुर्वेदोक्त जल-सेवन विधि

भोजन के आरम्भ में पानी पीने से जठराग्नि मंद होती है व दुर्बलता आती है।

भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी पीना चाहिए। इससे अन्न का पाचन सहजता से होकर शरीर की सप्तधातुओं में साम्य बना रहता है व बल आता है। ठंडा पानी हानिकारक है। प्रायः भोजन के बीच एक ग्लास (250 मि.ली.) पानी पीना पर्याप्त है।

भोजन के तुरंत बाद पानी पीने से कफ की वृद्धि होती है व मोटापा आता है। भोजन के एक से डेढ़ घंटे बाद पानी पीना चाहिए।

भोजन करते समय जठर का आधा भाग अन्न से व एक चौथाई भाग पानी से भरें तथा एक चौथाई भाग वायु के लिए रिक्त रखें।

पचने में भारी, तले हुए पदार्थो का सेवन करने पर उनका सम्यक् पाचन होने तक बार-बार प्यास लगती है। उसके निवारणार्थ गुनगुना पानी पीना चाहिए।

केवल गर्मियों में ही शीतल जल पियें, बारिश व सर्दियों में सामान्य या गुनगुना जल ही पीयें।

सूर्योदय से 2 घंटे पूर्व रात का रखा हुआ आधा लीटर पानी पीना असंख्य रोगों से रक्षा करने वाला है।

रात को सोने से पहले उबालकर औटाया हुआ गर्म पानी पीने से त्रिदोष साम्यावस्था में रहते हैं। पानी को यदि 3∕4 भाग शेष रहने तक उबालते हैं तो वह पानी वायुशामक हो जाता है। 1∕2 शेष रहने तक उबालते हैं तो वह पित्तशामक तथा 1∕4 शेष रहने तक उबालते हैं तो वह कफशामक हो जाता है।

जब बायाँ नथुना चल रहा हो तभी पेय पदार्थ पीना चाहिए। दायाँ स्वर चालू हो उस समय यदि पेय पदार्थ पीना पड़े तो दायाँ नथुना बंद करके बायें नथुने से श्वास लेते हुए ही पीना चाहिए।

खड़े होकर पानी पीना हानिकारक है, बैठकर चुस्की लेते हुए पानी पीयें।

विशेष

प्यास लगने पर पानी न पीने से मुँह सूखना, थकान, कम सुनाई देना, चक्कर आना, हृदयरोग व इन्द्रियों की कार्यक्षमता का ह्रास होता है।

आवश्यकता से अधिक जल पीने आँतों, रक्तवाहिनियों, हृदय, गुर्दे, मूत्र नलिकाओं व यकृत (लीवर) को बिन जरूरी काम करना पड़ता है, जिससे उनकी कार्यक्षमता धीरे-धीरे कम होने लगती है। अधिक जल-सेवन अम्लपित्त (एसीडिटी), जलोदर, सिरसंबंधी रोग, नपुंसकता, सूजन, प्रमेह, संग्रहणी, दस्त का हेतु है।

प्रतिदिन की कुल 2300 मि.ली. पानी की आपूर्ति हेतु डेढ़ लीटर पानी पीने में और लगभग 800 मि.ली. पानी चावल, रसमय सब्जी, दाल, रोटी आदि के द्वारा भोजन के अंतर्गत लें। ऋतु, देश, काल, आहार, व्यवसाय, दिनचर्या आदि के अनुसार यह मात्रा परिवर्तित होती है। गर्मियों में अधिक जल की आवश्यकता की पूर्ति फलों के रस, दूध, शरबत आदि के द्वारा की जा सकती है।

अजीर्ण, गैस, नया बुखार, हिचकी, दमा, मोटापा, मंदाग्नि, पेट-दर्द व सर्दी जुकाम होने पर पानी गर्म करके पीना चाहिए।

दाह(जलन), चक्कर आना, मूर्च्छा, परिश्रमजन्य थकान, पित्त के विकार, शरीर से रक्तस्राव होना, आँखों के सामने अँधेरा छाना ऐसी अवस्थाओं में शीतल जल का सेवन हितकारक है।

अति शीत जैसे फ्रीज या बर्फवाला पानी पीने से हृदय, पीठ व कमर में दर्द तथा हिचकी, खाँसी, दमा आदि कफजन्य विकार उत्पन्न होते हैं।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 210

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हृदयकोष की रक्षा करो – पूज्य बापू जी


काम, क्रोध, लोभ, मोह के जो आवेग आते हैं, उनसे बचने के लिए सोचो कि ‘इन आवेगों के अनुसार कौन-सा काम करें, कौन सा न करें ?’ इसमें तुम्हारी पुण्याई चाहिए। पहले जानो। जानाति, इच्छति, करोति। जानो, फिर शास्त्र अनुरूप इच्छा करो, फिर कर्म करो। आप क्या करते हैं कि पहल कर्म करते हैं। इन्द्रियाँ कर्म में लगती हैं, मन उसके पीछे लगता है और बुद्धि को घसीट के ले जाता है तो धीरे-धीरे बुद्धि राग-द्वेषमयी हो जाती है।

इच्छा हुई तो सोचो कि ‘इच्छा के अनुसार कर्म करें या बुद्धि से सोच के कर्म करें ?’ इच्छा हुई, फिर मन से उसको सहमति दी और इच्छा के अनुरूप मन करना चाहता है तो धीरे-धीरे बुद्धि दब जायेगी। बुद्धि का राग-द्वेष का भाग उभरता जायेगा, समता मिटती जायेगी। अगर शास्त्र, गुरु और धर्म का विचार करके बुद्धि को बलवान बनायेंगे और समता बढ़ाने वाला, मुक्तिदायी जो काम है वह करेंगे तो बुद्धि और समता बढ़ेगी लेकिन मन का चाहा हुआ काम करेंगे तो बुद्धि और समता का नाश होता जायेगा। कुत्ते, गधे, घोड़े, बिल्ले, पेट से रेंगने वाले तुच्छ प्राणी और मनुष्य में क्या फर्क है ?

वसिष्ठजी कहते हैं- हे रामजी ! कभी ये मनुष्य थे लेकिन जैसी इच्छा हुई ऐसा मन को घसीटा और बुद्धि उसी तरफ चली गयी तो धीरे धीरे दुर्बुद्धि होकर केँचुए, साँप और पेट से रेंगने वाले प्राणियों की योनियों में पड़े हैं।

जो बहुत द्वेषी होता है वह साँप की योनि में जाता है। इसी प्रकार की और भी कई योनियाँ हैं। यह चार दिन की जिंदगी है, अगर इसको सँभाला नहीं तो चौरासी लाख जन्में की पीड़ाएँ सहनी पड़ती हें।

रक्षत रक्षत कोषानामपि कोषें हृदयम्।

यस्मिन सुरक्षिते सर्वं सुरक्षितं स्यात्।।

‘जिसके सुरक्षित होने से सब सुरक्षित हो जाता है, वह कोषों का कोष है हृदय। उसकी रक्षा करो, रक्षा करो।’

खरीदारी करके कमीशन खाना, चोरी करना, बेईमानी करना…. ले क्या जायेंगे, कहाँ ले जायेंगे ! प्रारब्ध में जो होगा वह नहीं माँगने पर भी मिलेगा और कितनी भी बेईमानी करो, देर-सवेर उसका फल बेईमान को दुःखद योनियों में ले जायेगा। यदि तुम दगाखोर और कपटी हुए तो उसका फल तुमको भी दुःखद योनियों में ले जायेगा। ऐसे कपटी, बगला भगत को फिर बगुले, बिलार वाली, कपट करके पेट भरने वाली योनियों में जाना पड़ता है। तो बुद्धि में लोभ का आवेग आया, काम का आवेग आया, क्रोध का आवेग आया इंद्रियों में शरीर में तो शास्त्र के अनुरूप परिणाम का ख्याल करके बुद्धि को बलवान बनायें और आवेग को सहन करें। लोभ के आवेग को सहन करें। सोचें, ‘अनीति का धन क्या करना, अनीति का भोग क्या करना ?’ पहले शास्त्र के ढंग से बुद्धि में औचित्य-अनौचित्य समझ लो। वासना कहती है यह कर्म करो, इच्छा बोलती है करो लेकिन बुद्धि बोलती है उचित तो नहीं है, तो धीरे-धीरे थोड़ा समय निकाल दो और मन को थोड़ा समझाओ अथवा दूसरे काम में लगाओ तो वासना और द्वेष की लहर शांत हो जायेगी। अगर करने का आवेगा है, मन भी कहता है करो, बुद्धि भी कहती है करो और करने का औचित्य भी है तो उसे कर डालो।

एक तरफ इच्छा खींचती है और दूसरी तरफ बुद्धि और शास्त्र सहमति नहीं देते हैं तो वह कर्म अधर्म है। ऐसी स्थिति में थोड़ा समय गुजरने दो। जैसे समुद्र की लहर आयी और आप बैठ गये, समय गया तो लहर उतर गयी। ऐसे ही ये आवेग हैं। आवेग के समय थोड़ा शांत हो जायें, थोड़ा धैर्य रखें तो आवेग उतर जाता है। नहीं तो आवेग-आवेग में आदमी अंधा हो जाता है। आवेग-आवेग में अपनी खुशामद करने वाले चमचे अच्छे लगेंगे।

तो राग-द्वेष से बचें। आवेगों से बचें और भगवान में श्रद्धा करें। भगवान में सर्वसमर्थता, अंतर्यामीपना आदि दिव्य गुण हैं। आर्त्तभाव से प्रार्थना करे कि ‘प्रभु ! हमें अपने प्रसाद से पावन करो। हम तो आपके रस में नहीं आ रहे, आप ही हमें जबरदस्ती अपने रस में डुबा दो।’

आप चाहे कैसे भी हो, आर्त्तभाव से भगवान को प्रार्थना करते हो तो भगवान तुरंत आपको दोषों को झाड़ देते हैं और भगवदरस मिलता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 9,11 अंक 210

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हर परिस्थिति का सदुपयोग


(पूज्य बापू जी की सर्वहितकारी अमृतवाणी)

आपके जीवन का मुख्य कार्य प्रभुप्राप्ति ही है। शरीर से संसार में रहो किंतु मन को हमेशा भगवान में लगाये रखो। समय बड़ा कीमती है, फालतू गप्पे मारने में अथवा व्यर्थ कि चेष्टाओं में समय बर्बाद न करके उसका सदुपयोग करना चाहिए। भगवदस्मरण, भगवदगुणगान और भगवदचिंतन में समय व्यतीत करना ही समय का सदुपयोग है। आपका हर कार्य भगवदभाव  युक्त हो, भगवान की प्रसन्नता के लिए हो इसका ध्यान रखें।

आपके पास क्या है, क्या नहीं है इसका महत्त्व नहीं है, जो है, जितना है उसका उपयोग किसलिए कर रहे हो इसका महत्त्व है। धन है, मान है और धन की हेकड़ी दिखा रहे होः “मैं बड़ा हूँ अथवा मेरे कुटुम्बी ऐसे हैं, वैसे हैं….।” धन का दिखावा करके दूसरों को प्रभावित करते हो और ईश्वर को भूलते हो तो धन का यह दुरुपयोग आपको दुःख में गिरा देगा। धन है, भगवान के रास्ते जाने में उसका सदुपयोग करते हो, जिसका है उसी की प्रीति के लिए लगाते हो तो धन आपका कल्याण कर देगा।

गरीब हो, मजदूरी करते हो, कमियाँ हैं इसकी परवाह न करो। इनका सदुपयोग करने से आपका मंगल हो जायेगा। आपके पास कैसी भी परिस्थिति आये – बीमारी की हो या तंदरुस्ती की, निंदा की हो या वाहवाही की, सबका सदुपयोग करो। आपके पास क्या है इसका मूल्य नहीं है, आप उसका उपयोग सत् के लिए, प्रभु को पाने के लिए करो तो आपका कल्याण हो जायेगा। शबरी भीलन अनपढ़ थी, नासमझ थी लेकिन मैं भगवान की हूँ, गुरु की हूँ….. ऐसा सोचकर गुरुआज्ञा में चली तो महान हो गयी। राजा जनक विद्वान थे, धनवान थे, धन को, विद्या को समाज के हित में लगा दिया तो महान हो गये।

बीमारी आयी। किस कारण आयी यह समझकर सावधान हो गये कि दुबारा वह गलती नहीं करेंगे। बीमारी आयी तो तपस्या हो गयी, वाह प्रभु ! ऐसे प्रसन्न हुए तो यह बीमारी का सदुपयोग हुआ। जरा सी बीमारी आयी और परेशान हो गये… तुरंत इंजेक्शन ले लिया, बिना विचार किये ऑपरेशन करा लिया और असमय बूढ़े हो गये। पैसे भी लुटवाये और शरीर भी खराब करा लिया तो यह बीमारी का दुरुपयोग हुआ।

लोग आपका मजाक उड़ाते हैं तो सावधान हो जाओ कि ‘मरने वाले शरीर का मजाक उड़ा रहे हैं, मसखरी कर रहे हैं। मैं इसको जानने वाला हूँ। ॐआनन्द… तो यह उस परिस्थिति का सदुपयोग हो गया।

कैसी भी परिस्थिति आये, उसका सदुपयोग करके अपने-आपको जानने की, भगवान को पाने की कला सीख लो।

बोलेः महाराज ! हमको भगवान पाने की इच्छा तो है लेकिन हमारे पतिदेव मर गये न, उनकी याद आ रही है। पति में बड़ा मोह था हमारा।

कोई बात नहीं, मोह को रहने दो, मोह को तोड़ो मत। पतिदेव चले गये तो चले गये, भगवान की तरफ गये। मेरे पति को भगवान ने अपने-आपमें समा लिया। अब पति की आकृति में ममता और विकार सब चला गया, भगवान रह गये। हम उस भगवान के रो रहे हैं- ‘हे प्रभु ! कब मिलेंगे….’ यह ममता का, रुदन का सदुपयोग हो गया।

“बाबा ! झूठ बोलने की आदत है। क्या करें?”

ठीक है, खूब झूठ बोलो किंतु उसका सदुपयोग करो, भगवान खुश हो जायेंगे। आप मन ही मन ठाकुरजी के लिए सिंहासन सजाओ और भगवान से झूठ बोलो कि ‘प्रभु ! आओ, आपके लिए सोने का सिंहासन बनाया है, बहुत नौकर-चाकर लगा रखे हैं, मक्खन मिश्री रखी है….’ इस प्रकार मन में जो भी भाव आये ठाकुर जी को प्रसन्न करने के लिए बंडल पर बंडल मारते जाओ। झूठ बोलने की आदत है, कोई बात नहीं, उसको दबाओ मत और कर्मों में फँसाने वाला झूठ कभी बोलो मत। ठाकुर जी को रिझाने वाला झूठ रोज बोलो, धीरे-धीरे झूठ चला जायेगा। ठाकुर जी की प्रीति, ठाकुर जी की निगाहें और ठाकुर जी का माधुर्य आपके हृदय  रति, प्रीति और तृप्ति के रूप में प्रगट होगा। कैसी है सनातन धर्म की व्यवस्था !

मिले हुए का आदर, जाने हुए में दृढ़ता और प्रभु में विकल्परहित विश्वास से आपका कर्मयोग हो जायेगा, भक्तियोग हो जायेगा, ज्ञानयोग हो जायेगा।

गरीबी से भी निर्दुःखता नहीं आती, अमीरी से भी निर्दुःखत नहीं आती बल्कि गरीबी व अमीरी का सदुपयोग करने से निर्दुःखता आती है और हृदय में परमात्मा का प्रागट्य हो जाता है। आपके पास गरीबी है तो डरो मत, उसका सदुपयोग करो, इससे आपके पास वह प्रगट होगा जिसके लिए दुनिया तरसती है। आप पठित हो या अनपढ़ हो, विद्वान हो या मूर्ख हो, बीमार हो या स्वस्थ हो, जैसे भी हो उसका सदुपयोग करे, भाई है तो भाईपने का सदुपयोग करे। मुख्य सम्पादक है तो सम्पादकपने का सदुपयोग करे। पत्रकार हो तो पत्रकारिता का सदुपयोग करे। सदुपयोग में इतनी शक्ति है कि उसके सहारे भगवान मिल जाते हैं।

‘बाबा ! दुर्घटना हो जाय, दुःख आये उसका सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?’ हाँ ! मर्खता का विद्वता का, धन-धान्य का सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?’ हाँ बिल्कुल मिल जायेंगे। कुछ भी नहीं है, निपट-निराले एकदम कंगाल हैं, इस परिस्थिति का भी सदुपयोग करें तो क्या भगवान मिल जायेंगे ?’ बोलेः हाँ !

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमो मतः।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख या दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

(भगवदगीताः 6.32)

परिस्थिति कैसी भी आयें, उनमें डूबो मत। उनका उपयोग करो। समझदार लोग संतों से, सत्संग से सीख लेते हैं और सुख-दुःख का सदुपयोग करके बहुतों के लिए सुख, ज्ञान व प्रकाश फैलाने में भागीदार होते हैं और मूर्ख लोग सुख आता है तो अहंकार में तथा दुःख आता है तो विषाद में डूब के स्वयं का तो सुख, ज्ञान और शांति नष्ट कर लेते हैं, औरों को भी परेशान करके संसार से हारकर चले जाते हैं।

संसार से जाना तो सभी को है, हमको भी जाना है, आपको भी जाना है, यहाँ सब जाने वाले ही आते हैं। भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध-महावीर सब आये और चले गये, हमारे दादे-परदादे सब चले गये तो हम कब तक ? यह शरीर तो जाने वाला है। जो जाने वाला है उसके जाने का सदुपयोग करो और जो रहने वाला है उसको सत्संग के द्वारा पहचान कर अभी आप निहाल हो जाओ, खुशहाल हो जाओ, पूर्ण हो जाओ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।…..

तो अब करना क्या है ? गरीब होना है ? अमीर होना है ? यहाँ रहना है ? परदेश जाना है ? क्या करना है ?

कुछ करना नहीं है, कोई परिवर्तन की इच्छा नहीं करनी है, जो कुछ हो रहा है उसका सदुपयोग करना है। ‘ऐसा हो जाय, वैसा हो जाय, ऐसा बन जाऊँ….’ इस चक्कर में मत पड़ो।

प्रारब्ध पहले रच्यो, पीछे भयो शरीर।

तुलसी चिंता क्या करे, भज ले श्री रघुवीर।।

पुरुषार्थ अपनी जगह पर है, प्रारब्ध अपनी जगह पर है, दोनों का सदुपयोग करने वाला धन्य हो जाता है।

परिस्थिति कैसी भी आये, अपने चित्त में दुःखाकार या सुखाकार वृत्ति पैदा होगी लेकिन उस वृत्ति को बदलकर भगवदाकार करना, यह है परिस्थिति का सदुपयोग। धन आया, सत्ता आयी, योग्यता आयी और अहंकार बढ़ाया तो आपने इनका दुरुपयोग किया। यदि धन से बहुजन हिताय-बहुजनसुखाय का नजरिया बना और मिली हुई योग्यता का सत्यस्वरूप ईश्वर के ज्ञान में, शांति में, ईश्वरप्रसादजा बुद्धि बनाने में सदुपयोग किया तो आप और ऊपर उठते जायेंगे, अनासक्त भाव से और ऊँचाइयों को छूते जायेंगे। बाहर की ऊँचाई दिखे चाहे न दिखे लेकिन अंतरात्मा की संतुष्टि, प्रीति और तृप्ति आपके हृदय में आयेगी।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,20 अंक 210

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