Monthly Archives: July 2010

वर्षा ऋतु में स्वास्थ्य-सुरक्षा


ग्रीष्म ऋतु में अत्यधिक दुर्बलता को प्राप्त हुए शरीर को वर्षा ऋतु में धीरे-धीरे बल प्राप्त होने लगता है। आर्द्र (नमीयुक्त) वातावरण जठराग्नि को मंद कर देता है। शरीर में पित्त का संचय व वायु का प्रकोप हो जाता है। परिणामतः वात-पित्तजनित व अजीर्णजन्य रोगों का प्रादुर्भाव होता है। अतः इन दिनों में जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला, सुपाच्य व वात-पित्तशामक आहार लेना चाहिए।

सावधानियाँ

भोजन में अदरक व नींबू का प्रयोग करें। नींबू वर्षाजन्य रोगों में बहुत लाभदायी है।

गुनगुने पानी में शहद व नींबू का रस मिलाकर सुबह खाली पेट लें। यह प्रयोग सप्ताह में 3-4 दिन करें।

प्रातःकाल में सूर्य की किरणें नाभि पर पड़ें इस प्रकार वज्रासन में बैठ के श्वास बाहर निकालकर पेट को अंदर-बाहर करते हुए ‘रं’ बीजमंत्र का जप करें। इससे जठराग्नि तीव्र होगी।

भोजन के बीच गुनगुना पानी पीयें।

सप्ताह में एक दिन उपवास रखें। निराहार रहें तो उत्तम, अन्यथा दिन में एक बार अल्पाहार लें।

सूखा मेवा, मिठाई, तले हुए पदार्थ, नया अनाज, आलू, सेम, अरबी, मटर, राजमा, अरहर, मक्का, नदी का पानी आदि त्याज्य हैं।

देशी आम, जामुन, पपीता, पुराने गेहूँ व चावल, तिल अथवा मूँगफली का तेल, सहजन, सूरन, परवल, पका पेठा, टिंडा, शलजम, कोमल मूली व बैंगन, भिंडी, मेथीदाना, धनिया, हींग, जीरा, लहसुन, सोंठ, अजवायन सेवन करने योग्य हैं।

श्रावण मास में पत्तेवाली हरी सब्जियाँ व दूध तथा भाद्रपद में दही व छाछ का सेवन न करें।

दिन में सोने से जठराग्नि मंद व त्रिदोष प्रकुपित हो जाते हैं। अतः दिन में न सोयें। नदी में स्नान न करें। बारिश में न भीगें। रात को छत पर अथवा खुले आँगन में न सोयें।

औषधि प्रयोगः

वर्षा ऋतु में रसायन के रूप में 100 ग्राम हरड़ चूर्ण में 10-15 ग्राम सेंधा नमक मिला के रख लें। दो ढाई ग्राम रोज सुबह ताजे जल के साथ लेना हितकर है।

हरड़ चूर्ण में दो गुना पुराना गुड़ मिलाकर चने के दाने के बराबर गोलियाँ बना लें। 2-2 गोलियाँ दिन में 1-2 बार चूसें। यह प्रयोग वर्षाजन्य सभी तकलीफों में लाभदायी है।

वर्षाजन्य सर्दी, खाँसी, जुकाम, ज्वर आदि में अदरक व तुलसी के रस में शहद मिलाकर लेने से व उपवास रखने से आराम मिलता है। एंटीबायोटिक्स लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 30, अंक 211

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सितारों से जहाँ कुछ और भी है…..


(पूज्य बापू जी का सत्संग-गंगा से)

एक महात्मा हो गये स्वामी राम।  स्वामी रामतीर्थ नहीं, दूसरे स्वामी राम। अभी उनका शरीर तो नहीं है पर देहरादून में संस्था है। देश-विदेश में उनके बहुत अनुयायी थे। स्वामी राम के गुरु बड़े उच्चकोटि के संत थे। वे एकांतप्रिय थे, जिस किसी से ज्यादा बात करना या मिलना उन्हें पसंद नहीं था।

स्वामी राम ने अपनी बाल्यावस्था में लिखा है कि भुवाल नाम के एक संन्यासी थे, जो संन्यास-दीक्षा के पहले बंगाल की ‘भवाल’ रियासत के राजकुमार थे। विवाह के बाद वे अपनी पत्नी के साथ दार्जिलिंग में रहते थे। उनकी पत्नी पहले से ही किसी डॉक्टर से प्रेम करती थी लेकिन शादी हो गयी इस राजकुमार से। फिर भी वह डॉक्टर उससे मिलने आता-जाता रहा। उनकी पत्नी और डॉक्टर ने मिलकर राजकुमार को साँप से विष के इंजेक्शन (सुई) लगाने शुरू कर दिये। राजकुमार समझते रहे कि यह विटामिन सी सुई लग रही है। डॉक्टर ने धीरे-धीरे वि, की मात्रा बढ़ायी और कुछ महीनों बाद विष ने अपना प्रभाव दिखाया, राजकुमार की मृत्यु हो गयी। दिखावा किया कि स्वाभाविक ढंग से मृत्यु हुई है।

राजकुमार की शव यात्रा में हजारों लोग एकत्रित हो गये। जलाने के लिए शहर से कुछ दूर एक पहाड़ी नाले के किनारे श्मशानघाट में ले गये। चिता तैयार की गयी लेकिन देव की लीला तो देखो ! एकाएक उस पहाड़ी इलाके में बहुत तेज बरसात आयी, दार्जिलिंग में तो वैसे ही कभी भी बरसात आ जाय। उस पहाड़ी इलाके में बरसात भी तेज आयी। ऐसी मूसलाधार बरसात आयी कि सारे लोग भाग गये। चिता को अग्नि लगी ही थी, शव का कफन थोड़ा-बहुत जला-न जला और बरसात ने सब तहस-नहस कर दिया। बरसात के कारण पहाड़ी नाले में भयंकर बाढ़ आ गयी और वह शव उसमें बह गया।

श्मशानघाट से तीन मील दूर स्वामी राम के गुरु अपने शिष्यों के साथ एक गुफा में ठहरे थे। उन्होंने उस कफन में लिपटे तथा बाँसों में बँधे शव को नाले में बहते देखा तो अपने शिष्यों को बोलेः “इस शव को ले आओ।” शव को नाले से निकालकर अर्थी की लकड़ी आदि जो बाँधी थी रस्सी-वस्सी से, वह खोली। लाश को उठाकर लाया गया। गुरुजी बोलेः “देखो, इसमें प्राण हैं, अभी यह मरा नहीं है। यह पूर्वजन्म का मेरा शिष्य है।” थोड़ा उपचार करके राजकुमार को उठाया लेकिन वे मौत की यह घटना, पूर्व का जीवन सब कुछ भूल गये थे। उनको गुरु ने पुनः दीक्षा दी और अपने साथ रख लिया। वे साधु बन गये। सात वर्ष तक साथ में रहे फिर गुरु जी बोलेः “जाओ बेटा ! देशाटन करो, विचरण करते-करते आगे बढ़ो। कहीं अटकना नहीं, अनुकूलता में रुकना नहीं और प्रतिकूलता को भी सत्य मत मानना। रोज अपना नित्य नियम और भगवद् ध्यान आदि करते रहना। समय पाते सब ठीक हो जायेगा।”

‘जो आज्ञा’ कहकर वे तो रवाना हुए। गुरुजी ने अपने शिष्यों से कहाः “इसकी बहन इसे पहचान लेगी और जब यह अपनी बहन से मिलेगा तब इसकी खोयी हुई स्मृति पुनः लौट आयेगी।”

राजकुमार परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते हुए अनजाने में अपनी बहन के द्वार पर जा पहुँचे। बहन ने भैया को पहचान लिया और भैया का नाम लेकर पुकारा। भैया की खोयी हुई स्मृति जागृत हो गयी, उन्होंने अपनी पूरी कहानी बतायी। बात बिजली की नाईं गाँव में फैल गयी। लोग आपस में बोलने लगे कि ‘राजकुमार तो मर गये थे, हम तो श्मशान में छोड़कर आये थे !’

राजकुमार के संबंधियों ने न्यायालय की शरण ली। बाबाजी ने अपने दो शिष्यों को राजकुमार की मदद में भेज दिया। शिष्यों ने भी जब सच्चाईपूर्वक बात कही तो हजारों आदमी उनके पक्ष में हो गये और कौतूहलवश हजारों आदमी दूसरे पक्ष में भी हो गये। दार्जिलिंग के न्यायालय में इतनी भीड़ कभी नहीं हुई थी जितनी इसके निमित्त हुई। लोग उत्सुक थे कि सच्चाई क्या है ?

राजकुमार योग-साधना करते थे, अपनी स्मृति के बल से स्मरण करके न्यायालय में अपना पूरा वृत्तान्त बताया कि ‘ऐसे-ऐसे साँप के जहर के इंजेक्शन मुझे देते थे। मैं समझता था कि विटामिन मिल रहा है। इस तरह से मेरी मृत्यु हुई, ऐसी शवयात्रा हुई। मूसलाधार वर्षा हुई, शव बह गया और इस तरह से गुरुजी ने मुझे बचाया।’

आखिर न्यायालय में यह सिद्ध हो गया कि राजकुमार की पत्नी ने अपने प्रेमी डॉक्टर से मिलकर उनको साँप के जहर के इंजेक्शन दिये थे तथा स्वामी जी ने उनको अपना पूर्व-साधक समझकर मदद की और शेष जिंदगी बचायी है।

राजकुमार की जीत हुई और वे पुनः अपने भवाल नामक राज्य में लौट पड़े। उनके गुरुजी की यही आज्ञा थी। वे एक साल तक रहे फिर शरीर छोड़ दिया।

इन कथाओं से यह बात सामने आती है कि तुमको जितना दिखता है, सुनाई पड़ता है उतना ही जगत नहीं है, जगत और कुछ, बहुत सारा है लेकिन यह अष्टधा प्रकृति के अंदर हैं। जब तक प्रकृति को ‘मैं’ मानते रहेंगे, प्रकृति के शरीर को ‘मैं’ मानते रहेंगे व वस्तुओं को ‘मेरा’ मानते रहेंगे, तब तक असली ‘मैं’ स्वरूप जो परमात्मा है वह छुपा रहता है और जन्म मृत्यु, जरा व्याधि की यातनाओं के कष्ट और शोक तथा राग द्वेष, तपन में जीव तपते रहते हैं। ऐसा भी कोई है जो इन सबसे परे राग-द्वेष, कष्ट, शोक को जान रहा है। जिन्होंने अपने उस चिदानंदस्वरूप को, सत्स्वरूप को ‘मैं’ के रूप में जान लिया वे धन्य हैं ! उनके दर्शन करने वाले भी धन्य हैं ! ब्रह्म गिआनी का दरसु1 बडभागी पाईऐ।(गुरुवाणी) 1 दर्शन.

वह लक्ष्य रखो, ऊँचा उद्देश्य, ऊँचा लक्ष्य रखो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 211

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शिष्य की मनमुखता और गुरु का धैर्य


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

गुरु अपने शिष्य की सौ-सौ बातें मानते हैं, सौ-सौ नखरे और सौ-सौ बेवकूफियाँ स्वीकार करते हैं ताकि कभी-न-कभी, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में यह जीव पूर्णता को पा ले। बाकी तो गुरु को क्या लेना है ! अगर गुरु को कुछ लेना है तभी गुरु बने हैं तो वे सचमुच में सदगुरु भी नहीं हैं। सदगुरु को तो देना-ही-देना है। सारा संसार मिलकर भी सदगुरु की सहायता नहीं कर सकता है पर सदगुरु अकेले पूरे संसार की सहायता कर सकते हैं। मगर संसार उनको सदगुरु के रूप में समझे, माने, मार्गदर्शन ले तब न ! ऐसा तो है नहीं इसलिए लोग बेचारे पच रहे हैं।

सब एक दूसरे को नीचा दिखाकर, एक दूसरे का अधिकार छीनकर सुखी होने में लगे हैं। सब-के-सब दुःखी हैं, सब के सब पच रहे हैं, नहीं तो ईश्वर के तो खूब-खूब उपहार हैं – जल है, तेज है, वायु है, अन्न है, फल हैं, धरती है और इसी धरती पर ब्रह्मज्ञानी सदगुरु भी हैं तो आनंद से जी सकते हैं, मुक्तात्मा हो सकते हैं। लेकिन राग में, द्वेष में, स्वार्थ में, अधिक खाने में, अधिक विकार भोगने में, सुखी होने में, मनमुखता में लगे हैं। गुरु आज्ञा-पालन में रूचि नहीं इसलिए ज्ञान में गति नहीं, पर जो आज्ञा-पालन में रुचि रखते हैं उनको गुरु-ज्ञान नित्य नवीन रस, नित्य नवीन प्रकाश देता है, वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं। वे परम सुख में विराजते हैं, परमानंद में, परम ज्ञान में, परम तत्त्व में एकाकार रहते हैं। परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति यह बहुत ऊँची स्थिति है, मानवता के विकास की पराकाष्ठा है। स्वर्ग मिल गया तो कुछ नहीं मिला। स्वर्ग से बढ़कर तो धरती पर कुछ नहीं है। तत्त्वज्ञानी की नजर में स्वर्ग भी कुछ नहीं है। स्वर्ग के आगे पृथ्वी का राज्य कुछ नहीं है। क्लर्क का पद प्रधानमंत्री पद के आगे छोटा है, तुच्छ है। ऐसे ही प्रधानमंत्री पद स्वर्ग के इन्द्रपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है और स्वर्ग का इन्द्रपद भी परमात्मपद के आगे तुच्छ है। जो सदगुरु की कृपा को सतत पचाने में लगेगा, उसको ऐसे परमात्मपद की प्राप्ति हो सकती है। अतः अपने हृदय में ईश्वरप्राप्ति की तड़प बढ़ायें। तड़प और प्यास बढ़ने से अंतःकरण की वासनाएँ, कल्मष और दोष तप-तपकर प्रभावशून्य हो जाते हैं। जैसे गेहूँ को भून दिया फिर वे बीज बोने के काम में नहीं आयेंगे, चने या मूँगफली को भून दिया तो फिर उसका विस्तार नहीं होगा, ऐसे ही ईश्वरप्राप्ति की तड़प से वासनाएँ भून डालो तो फिर वे वासनाएँ संसार के विस्तार में नहीं ले जायेंगी। ईश्वर की तड़प जितनी ज्यादा है उतना ही शिष्य गुरु की आज्ञा ईमानदारी से मानेगा। गुरु की समझ और धैर्य गजब का है और शिष्य की अपनी मनमुखता भी गजब की है, फिर भी दोनों की गाड़ी चल रही है तो गुरु की करूणा और शिष्य की श्रद्धा से। गुरु अपनी करुणा हटा लें तो शिष्य गिर जायेगा अथवा तो शिष्य अपनी श्रद्धा हटा ले तो भी गिर जायेगा। गुरु की दया और शिष्य की श्रद्धा का मेल…..। नहीं तो गुरु कहाँ और शिष्य कहाँ ! गुरु सत्स्वरूप में जीते हैं और शिष्य असत् में जीता है, दोनों का मेल होना सम्भव ही नहीं है। अमावस्या की काली रात और दोपहर का सूर्य कभी मिल सकते हैं क्या ? लेकिन यहाँ मिलन है। गुरु अपनी ऊँचाइयों से थोड़ा नीचे आ जाते हैं जहाँ शिष्य है और शिष्य अपनी नीची वासना से थोड़ा ऊपर श्रद्धा के बल से चलने को तैयार हो जाता है। जहाँ गुरु हैं वहाँ पहुँचने की भावना तो बनती है बेचारे की। चलो, आज नहीं कल पहुँचेगा।

भगवान का चित्र तो काल्पनिक है, किसी ने बनाया है परंतु भगवान जहाँ अपनी महिमा में प्रकट हुए हैं, ऐसे महापुरुष तो साक्षात् हमारे पास हैं। वे महापुरुष पूजने व उपासना करने योग्य हैं। ‘मुण्डकोपनिषद’ में आता है कि ‘जिसको इस लोक का यश और सुख-सुविधा चाहिए वह भी ज्ञानवान का पूजन करे और मरने के बाद किसी ऊँचे लोक में जाना हो तब भी ज्ञानवान की पूजा करे।’

यं यं लोकं मनसा संविभाति

विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्।

तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-

स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः।।

‘वह विशुद्धचित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है, वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे।’

(मुण्डकोपनिषद् 3.1.10)

वे ज्ञानी अपने शिष्य या भक्त के लिए मन से जिस-जिस लोक की भावना करके संकल्प कर देते हैं, उनका शिष्य उसी-उसी लोक में जाता है। तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः। अपनी कामना पूर्ण करने के लिए आत्मज्ञानी महापुरुष का पूजन-अर्चन करें, उपासना करें। हम तो कहते हैं कि आत्मज्ञानी पुरुष का पूजन-अर्चन करो यह तो ठीक लेकिन आप ही आत्मज्ञानी हो जाओ मेरा ध्यान उधर ज्यादा है। घुमा-फिराकर मेरा प्रयत्न उधर की ओर ही रहता है।

आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे उत्तम पद में पहुँचे होते हैं, उनकी चेतना इतनी व्यापक, इतनी ऊँचाई में व्याप्त रहती है कि चन्द्र, सूर्य और आकाशगंगाओं से पार अनेकों ब्रह्माण्ड भी उनके अंतर्गत होते हैं। साधारण आदमी को यह बात समझ में नहीं आयेगी। जो मजाक में भी झूठ नहीं बोलते थे ऐसे सत्यनिष्ठ रामजी को वसिष्ठ जी ने यह बात बतायी थी। रामजी के आगे उपदेश देना कोई साधारण गुरु का काम नहीं है और राम जी किसी ऐरे-गैरे को गुरु को नहीं बनाते हैं, अपने से कई गुना ऊँचे होते हैं वहीं माथा झुकता है। गुरु का स्थान कोई ऐरा-गैरा नहीं ले सकता है। कितनी भी सत्ता हो, कितनी भी चतुराई का ढोल पीटे फिर भी गुरु के लिए हृदय में जो जगह है उस जगह पर, गुरु के सिंहासन पर ऐसे किसी को भी थोड़े ही बिठाया जाता है, कोई बैठ ही नहीं सकता। हमारे जीवन में कई ऊँचे-ऊँचे साधु-संत आये परंतु सब मित्रभाव से आये, सदगुरु तो हमारे पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाह जी महाराज ही हैं। कई नेता आये, कई भक्त आये किंतु मेरे गुरुदेव के लिए मेरे हृदय में जो जगह है, उस जगह पर आज तक कोई बैठा नहीं है क्या ! अदृश्य होने वाले, हवा पीकर पेड़ पर रहने वाले योगियों से भी हमारा परिचय हुआ परंतु गुरुकृपा से जो आत्मज्ञान का सुख मिला उसके आगे बाकी सब नन्हा, बचकाना है। तो गुरु की जगह तो गुरु की है, उस जगह पर और कोई बैठ ही नहीं सकता। वह बहुत ऊँचा स्थान है। गुरु-गोविन्द दोनों एक साथ आ जायें तो क्या करोगे ?

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

उस ईश्वरस्वरूप आत्मा-ब्रह्मवेत्ता को कौन तौल सकता है ? किससे तौलोगे ? उसके समान कोई बाट हो तभी तो तौलोगे !

किसी को परेशान होना हो, अशांत होना हो तो आत्मज्ञानी गुरु के लिए फरियाद करे कि ‘हमारा तो कुछ नहीं हुआ, हमको तो कोई लाभ नहीं हुआ।’ निषेधात्मक विचार करेगा तो निषेध ही हो जायगा। जो उनके प्रति आदरभाव और विधेयात्मक विचार करेगा, उसकी बहुत प्रगति होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 18,19,22 अंक 211

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