किया योग्यता का दुरूपयोग हुआ मौत से संयोग

किया योग्यता का दुरूपयोग हुआ मौत से संयोग


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

आपके पास मानने की, जानने की, करने की शक्ति है, अतः आप ऐसे सत्कर्म करो जिन कर्मों से अंतर्यामी परमात्मा संतुष्ट हो, अहंकार पुष्ट न हो, लोभ-मोह न बढ़े, द्वेष, चिंता न बढ़े, ये सब घट जायें। आपके पास जो भी धन, सत्ता योग्यता है, अगर उसके साथ ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य नहीं है तो वह न जाने किस प्रकार तुम्हें धोखा दे जाय कोई पता नहीं।

हरिदास महाराज के दो शिष्य थे बैजू बावरा और तानसेन। दोनों गुरुभाई महान संगीतज्ञ हो गये। बैजू बावरा का जन्म ईस्वी सन् 1542 में चंदेरी (ग्वालियर क्षेत्र, म.प्र.) में हुआ था। बैजू का संगीत और व्यवहार बहुत सुखद था। वह गुरु की कृपा को पचाने में सफल रहा। गुरु से संगीत की विद्या सीखकर बैजू एकांत में चला गया और झोंपड़ी बनाकर संयमी जीवन जीते हुए संगीत का अभ्यास करने लगा। अभ्यास में ऐसा तदाकार हुआ कि संगीत की कला सीखने वाले कई लोग उसके शिष्य बन गये। उनमें गोपाल नायक नाम का एक शिष्य बड़ा प्रतिभा सम्पन्न था। जैसे बैजू ने अपने गुरु हरिदासजी की प्रसन्नता पा ली थी, ऐसे ही गोपाल ने भी बैजू की प्रसन्नता पा ली। सप्ताह बीते, महीने बीते, वर्षों की यात्रा पूरी करके गोपाल ने संगीत-विद्या में निपुणता हासिल कर ली।

अब वक्त हुआ गुरु से विदाई लेने का। गोपाल ने प्रणाम किया। विदाई देते समय बैजू का हृदय भर आया कि यह शिष्य मेरी छाया की तरह था, मेरी विद्या को पचाने में सफल हुआ है पर जाने से रोक तो सकते नहीं। बैजू भरे कंठ, भरी आँखें शिष्य को विदाई देता हुआ बोलाः “पुत्र ! तुझे संगीत की जो विद्या दी है, यह मनुष्य जाति का शोक, मोह, दुःख, चिंता हरने के लिए है। इसका उपयोग जेब भरने या अहंकार पोसने के लिए नहीं करना।” विदाई लेकर गोपाल चला गया।

गोपाल नायक अपने गीत और संगीत के प्रभाव से चारों तरफ जय-जयकार कमाता हुआ कश्मीर के राजा का खास राजगायक था।

जब ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य नहीं होता तब धन मिलता है तो धन की लालसा बढ़ती है, मान मिलता है तो मान की लालसा, सत्ता मिलती है तो सत्ता की लालसा बढ़ती है। उस लालसा-लालसा में आदमी रास्ता चूक जाता है और न करने जैसे कर्म करके बुरी दशा को प्राप्त होता जाता है। इतिहास में ऐसी कई घटनाएँ मिलेंगी।

अब गोपाल को चारों तरफ यश मिलने लगा तो उसका अहंकार ऐसा फूला, ऐसा फूला कि वह गायकों का सम्मेलन कराता तथा उनके साथ गीत और संगीत का शास्त्रार्थ करता। गायकों को ललकारताः “आओ मेरे सामने ! अगर कोई मुझे हरा देगा तो मैं अपना गला कटवा दूँगा और जो मेरे आगे हारेगा उसको अपना गला कटवाना पड़ेगा।” जो हार जाता उसका सिर कटवा देता। हारने वाले गायकों के सिर कटते तो कई गायक-पत्नियाँ विधवा और गायक-बच्चे अनाथ, लाचार, मोहताज हो जाते लेकिन इसके अहंकार को मजा आता कि मैंने इतने सिर कटवा दिये। मुझे चुनौती देने वाला तो मृत्यु को ही प्राप्त होता है।

बैजू बावरा का दिखाने वाला सत्शिष्य कुशिष्य बन गया। मेरे गुरुदेव का भी एक कहलाने वाला सत्शिष्य ऐसा ही कुशिष्य हो गया था तो गुरुजी ने उसका त्याग कर दिया। वह मुझसे बड़ा था, मैं उसका आदर करता था। बाद में मेरी जरा प्रसिद्धि हुई तो मेरे पास आया लेकिन मैंने उससे किनारा कर लिया। जो मेरे गुरु का नहीं हुआ, वह मेरा कब तक ? गुरुभाई तब तक है जब तक मेरे गुरु की आज्ञ में रहता है। मेरे आश्रम से 40 साल में जो 5-25 लोग भाग गये, वे बगावत करने वाले और धर्मांतरण वालों के हथकंडे बन गये। अब उनकी बातों में मेरे शिष्य थोड़े ही आते हैं। वे तो गुरुभाई तब तक थे जब तक गुरु के सिद्धान्त में रहते थे। गुरु का सिद्धान्त छोड़ा तो हमारा गुरुभाई नहीं है, वह तो हमारा त्याज्य है। जैसे सुबह मल छोड़कर आते हैं तो देखते नहीं हैं। वमन करते हैं तो देखते नहीं हैं कि कितनी कीमती उलटी है।

उस जमाने में मोबाईल की व्यवस्था नहीं थी। बैजू बावरा को गोपाल की करतूतों का जल्दी से पता नहीं चला। कई गायकों के सिर कट गये, कई अबलाएँ विधवा हो गयीं, उनके बच्चे दर-दर की ठोकर खाने वाले मोहताज हो गये तब बात घूमती-घामती बैजू बावरा के कान पड़ी। उसे बड़ा दुःख हुआ कि इस दुष्ट ने मेरी विद्या का उपयोग अहंकार पोसने में किया ! मैंने कहा था कि यह संगीत की विद्या अहंकार पोसने  के लिए नहीं है।

आखिर वह अपने शिष्य को समझाने के लिए पचासों कोस पैदल चलते-चलते वहाँ पहुँचा, जहाँ गोपाल नायक बड़े तामझाम से रहता था।

राजा साहब का खास था गोपाल, इसलिए अंगरक्षकों, सेवकों और टहलुओं से घिरा था। उसे संदेशा भेजा कि तुम्हारे गुरु तुमसे मिलने को आये हैं। गोपाल ने गुरु से मिलना अपना अपमान समझा। बैजू ने पहरेदारों से बहुत आजिजी की और किसी बहाने से अंदर पहुँचने में सफल हो गया। वृद्ध गुरु आये हैं यह देखकर भी वह बैठा रहा, उठकर खड़े होना उसके अहंकार को पसंद नहीं था। वह जोर से चिल्लायाः “अरे, क्या है बूढ़ा !”

बैजू बोलाः “बेटा ! भूल गया क्या ? मैंने भरी आँखें, भरे हृदय से तुझे विदाई दी थी। मैं वही बैजू हूँ गोपाल ! क्यों तू अहंकार में पड़ गया है ! मैंने सुना तूने कइयों के सिर कटवा दिये। बेटा ! इसलिए विद्या नहीं दी थी। मैं तेरी भलाई चाहता हूँ पुत्र !”

गोपालः “पागल कहीं का, क्या बकता है ! यदि तू गायक है या गुरु है तो कल आ जाना राजदरबार में, दिखा देना अपनी गायन कला का शौर्य। अगर हार गया तो सिर कटवा दिया जायेगा। पागल ! बड़ा आया गुरु बनने को !”

नौकरों के द्वारा धक्के मार के बाहर निकलवा दिया। अहंकार कैसा अंधा बना देता है ! लेकिन गुरुओं की क्या बलिहारी है कि एकाध दाँव अपने पास रखते हैं। उस लाचार दिखने वाले बूढ़े ने राजदरबार में घोषणा कर दी कि  ‘कल हम राजगायक के साथ गीत और संगीत का शास्त्रार्थ करेंगे। अगर हम हारेंगे तो राजा साहब हमारा सिर कटवा सकते हैं और अगर वह हारता है तो उसका कटवायें-न-कटवायें स्वतंत्र हैं।’ आखिर गुरु का दिल गुरु होता है, उदार होता है। तामझाम से अपनी विजय-पताका फहराने वाले गोपाल नायक के सामने वह बूढ़ा बेचारा हिलता-डुलता ऐसा लगा मानो, मखमल से पुराने चिथड़े आकर टकरा रहे हैं लेकिन बाहर से देखने में पुराने चिथड़े थे, भीतर से हरिदास गुरु की कृपा उसने सँभाल रखी थी। गुरु से गद्दारी नहीं की थी। गुरु से गद्दारी करने से गुरु की दी हुई विद्या लुप्त हो जाती है, मेरे गुरुभाई के जीवन में मैंने देखा है।

दूसरे दिन गोपाल ने ऐसा राग आलापा की महलों के झरोखों से देखने वाली रानियाँ, दास-दासियाँ वहीं स्तब्ध हो गयीं, राजा गदगद हो गया, प्रजा भी खुश हो गयी। वह संगीत सुनने के लिए जंगल से हिरण भाग-भागकर आ गये। गोपाल ने गीत गाते-गाते हिरणों के गले में हार पहना दिये और उनको पता ही नहीं चला। गीत-संगीत के प्रभाव से वे इतने तन्मय हो गये थे। गीत बंद किया तो हिरण भाग गये। गोपाल ने गुरु को ललकाराः “औ बुड्ढे ! क्या है तेरे पास ? अब तू दिखा कोई जलवा। अगर तुझमें दम है तो उन भागे हुए जंगली हिरणों को अपने राग से वापस बुला और उनके गले की मालाएँ उतार कर दिखा तो मैं कुछ मानूँ, नहीं तो तुझे मेरे आगे परास्त होने का दंड मिलेगा। सिर कटाने को तैयार हो जा।”

जो अपने गुरु को बुड्ढा कहता है समझ लो कि उसकी योग्यताओं का ह्रास शुरु हो गया, उसकी भावना का दिवाला निकला है। उस आदमी का पुण्य प्रभाव क्षीण और मति-गति विकृत हो जाती है।

अब बैजू बावरा ने गुरु हरिदासजी का ध्यान कियाः

ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

गुरु की इजाजत मिल गयी कि ‘अहंकार सजाने, किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि धर्मरक्षा के लिए अपनी विद्या का उपयोग कर सकते हो।’

बैजू बावरा ने तोड़ी राग गाया। ऐसा राग आलापा कि राज भाव समाधि में चला गया, रानियाँ और प्रजा सब स्तब्ध हो गये। आज तक गोपाल ने जो प्रभाव जमा रखा था वह सब फीका हो गया। जो भागे हुए हिरण थे वे वापस आ गये। बैजू खड़े-खड़े गीत गाते गये और उनके गले की मालाएँ उतारकर एक तरफ ढेर कर दिया। हिरण एकटक देखते रहे, उन्हें अपनी सुधबुध न रही।

बाद में भीमपलासी राग गाते-गाते बैजू ने एक पत्थर पर दृष्टि डाली तो वह पत्थर पिघलने लगा जैसे मोम पिघलता है। पिघले हुए उस पत्थऱ पर उसने अपना तानपूरा फेंका और गीत बंद किया तो पत्थर फिर कड़क हो गया और तानपुरा उसमें जम गया।

बैजू बावराः “हे गुणचोर, गुरुद्रोही गोपाल नायक ! अगर तेरे पास है कोई विद्या, बल या अपनी योग्यता तो इस पत्थर को पिघला और मेरा तानपूरा निकाल कर दिखा।” जिसने अहंकार के कारण कइयों की जानें ली थीं और गुरुद्रोह कर रखा था, अब उसके राग  दम ही कहाँ।

गोपाल ने गीत गाते-गाते कई बार पानी के घूँट भरे, सभी कोशिशें की मगर सब नाकाम रहीं। वह गाते-गाते थक गया, न पत्थर पिघला, न साज निकला, आखिर हार गया। राजा की आँखें क्रोध से चमचमाने लगीं। बैजू ने कहाः “राजन् ! इसे माफ कर दें। आखिर मेरा शिष्य है, बालक है। इसे मृत्युदण्ड न दें।”

गोपालः “मृत्युदण्ड तो इस बुड्ढे को दें यह मेरा गुरु बना था और यह विद्या मुझसे छुपाकर रखी। अगर यह विद्या मुझे सिखाता तो आज मैं हारता नहीं।”

बैजू बावराः “हाँ राजन् ! मुझे ही मृत्युदण्ड दे दो कि मैंने ऐसे कुपात्र को विद्या सिखायी जिसने लोकरंजन न करके, लोकेश्वर की भक्ति का प्रचार न करके अपने अहं को सजाया, कर्म को विकर्म बनाया। जिससे कई अबलाओं का सुहाग छिन गया, कई निर्दोष बच्चों के पिता छिन गये और तुम्हारे जैसे कई राजाओं का राज्य, धन-वैभव इसका अहंकार पोसने में लग गया। मैं अपराधी हूँ, मुझे दण्ड दीजिये।”

राजाः “गायकराज ! तुम्हारे गीतों से पत्थर पिघल सकता है लेकिन न्याय के इस तख्त पर बैठे राजा का कठोर हृदय तुम नहीं पिघला सकते हो। इस गद्दार को मृत्युदण्ड दिया जायेगा।”

क्रोध से चमचमाती आँखों और उग्र हाथ ने इशारा किया – इस नमकहराम, अहंकारी का शिरोच्छेद कर दो। जल्लादों ने गोपाल का सिर धरती पर गिरा दिया। यह घटना बैजू बावरा सह नहीं सका। जैसे कुपुत्र के जाने से भी माता-पिता के दिल में दुःख होता है, ऐसे ही बैजू बावरा के दिल में दुःख हुआ।

सतलज नदी के तट पर गोपाल का अग्नि संस्कार हुआ। उसकी पत्नी ने प्रार्थना कीः “हे गुरुवर ! मेरे पति ने तो अनर्थ किया लेकिन आप तो करूणामूर्ति हैं, उन्हें क्षमा कर दें। मैं अपने पति की अस्थियों के दर्शन करना चाहती हूँ। अस्थियाँ नदी में चली गयी हैं। आप मेरी सहायता करें।”

बैजू बावरा ने उसे ढाढ़स बँधाया और एक राग की रचना की। वह राग उसकी बेटी मीरा को सिखाया। मीरा को बोलेः “तू यह राग गा और भगवान को प्रार्थना कर कि पिता कि अस्थियाँ जो नदी के तल में पहुँच गयी हैं वे सब एकत्रित होकर किनारे आ जायें।” मीरा ने राग गाया और सारी अस्थियाँ किनारे लग गयीं। आज के विज्ञान के मुँह पर थप्पड़ मारने वाले गायक अपने भारत में थे, अब भी कहीं होंगे।

गोपाल ने गुरु की विद्या को अहंकार पोसने में लगाया, क्या हम-आप ऐसी गलती तो नहीं कर रहे हैं ? श्रीकृष्ण कहते हैं- सावधान !….

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।

‘कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।’

(गीताः 4.17)

आप जो भी कर्म करते हो तो वह ईश्वर की प्रीति के लिए, समाज के हित के लिए करो, न अहं पोसने के लिए, न कर्तृत्व-अभिमान बढ़ाने के लिए, न फल-लिप्सा के लिए और न कर्म-आसक्ति के वशीभूत होकर कर्म करो। क्रियाशक्ति, भावशक्ति और विवेकशक्ति इनका सदुपयोग करने से आप करने की शक्ति, मानने की शक्ति, जानने की शक्ति जहाँ से आती है उस सत्स्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,16,17 अंक 211

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