सच्चे हितैषी हैं सदगुरू

सच्चे हितैषी हैं सदगुरू


इस सम्पूर्ण संसार में जितने भी प्राणी पुण्यकर्म करते हैं, वे सभी संतों का ज्ञानोपदेश सुन के ही करते हैं। अतः संसार में जो कुछ भी अच्छापन है वह सब संतों का ही उपकार है।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर से परे अपने निजस्वरूप घर को प्राप्त करने का विचार गुरू बिना नहीं मिलता। गुरू बिना परमेश्वर के ध्यान की युक्ति नहीं मिलती और हृदय में ब्रह्मज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकता। जैसे पथिक पंथ बिना किसी भी देश को नहीं जा सकता, वैसे ही साधक ब्रह्मज्ञान बिना संसार दशा रूप देश से ब्रह्म स्थिति रूप प्रदेश में नहीं जा सकता। सम्पूर्ण लोकों में घूमकर देखा है तथा तीनों भुवनों को विचार द्वारा भी देखा है, उनमें साधक के ब्रह्म-आत्म विषयक संशय को नष्ट कर सके ऐसा सदगुरू बिना कोई भी नहीं।

साधन-वृक्ष का बीज सदगुरू वचन ही है। उसे साधक निज अंतःकरणरूप पृथ्वी में बोये व विचार-जल से सींचे तथा कुविचार-पशुओं से बचाने रूप यत्न द्वारा सुरक्षित रखे तो उससे मनोवांछित (परम पद की प्राप्तिरूप) फल प्राप्त होगा।

जो गुरुवचनों को प्रेमपूर्वक हृदय में धारण करता है, वह अपने जीवनकाल में सदा सम्यक् प्रकार का सुख ही पाता है। सदगुरू का शब्द प्रदान करना अनंत दान है। वह अनंत युगों के कर्मों को नष्ट कर डालता है। सदगुरू के शब्दजन्य ज्ञान से होने वाले पुण्य से अधिक अन्य कोई भी धर्म नहीं दिखता। इस संसार में गुरू के शब्दों द्वारा ही जीवों का उद्धार होता है, सम्पूर्ण विकार हटकर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है।

जैसे सूर्य ओलों को गलाकर जल में मिला देता है ,ओले होकर भी जल अपने जलरूप को नहीं त्याग सकता, वैसे ही सदगुरू जीवात्मा के अज्ञान को नष्ट करके ब्रह्म से मिला देते हैं, जीवात्मा में अज्ञान आने पर भी वह अपने चेतन स्वरूप का त्याग नहीं कर सकता।

गुरूदेव की दया से सुंदर ज्ञानदृष्टि प्राप्त होती है, जिसके बल से साधक प्रकटरूप से भासने वाले मायिक संसार को मिथ्यारूप से पहचानता है और जिसे कोई भी अज्ञानी नहीं देख सकता उस गुप्त परब्रह्म को सत्य तथा अपना निजस्वरूप समझकर पहचानता है।

गुरु गोविन्द की सेवा करने से शिष्य सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से पूर्ण हो जाता है, उसकी सब प्रकार की कमी उसके हृदय से उठ जाती है। जन्मादिक दुःख नष्ट  हो जाते हैं और आशारूपी दरिद्रता भी सम्यक् प्रकार से दूर हो जाती है।

सदगुरू आकाश के समान हैं और गुरू-आज्ञा में रहने वाले शिष्य बादल के समान हैं। नभ-स्थित बादल में जैसे अपाल जल होता है, वैसे ही गुरू आज्ञा में रहने वाले शिष्यों में अपार ज्ञान होता है, उन्हें कुछ भी कमी नहीं रहती है।

जिस प्रकार वनपंक्ति के पुष्पों में शहद छिपा रहता है, वैसे ही शरीराध्यास में मन रहता है। जैसे शहद को मधु-मक्षिका निकाल लाती है, वैसे ही गुरू मन को निकाल लाते हैं। वह जो मन की छिपी हुई स्थिति है उससे भी मन को गुरू निकाल लाते हैं, अतः मैं गुरूदेव की बलिहारी जाता हूँ।

ईश्वर ने जीव को उत्पन्न किया किंतु शरीर के राग में बाँध दिया, इससे वह दुःखी ही रहा। फिर गुरूदेव ने ज्ञानोपदेश द्वारा राग के मूल कारण अज्ञान को नष्ट करके राग-बंधन से मुक्त किया है और परब्रह्म से मिलाया है। अतः इस संसार में गुरू के समान जीव का सच्चा हितैषी कोई भी नहीं है।

संत रज्जबजी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 211

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