Monthly Archives: July 2010

सच्चे हितैषी हैं सदगुरू


इस सम्पूर्ण संसार में जितने भी प्राणी पुण्यकर्म करते हैं, वे सभी संतों का ज्ञानोपदेश सुन के ही करते हैं। अतः संसार में जो कुछ भी अच्छापन है वह सब संतों का ही उपकार है।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर से परे अपने निजस्वरूप घर को प्राप्त करने का विचार गुरू बिना नहीं मिलता। गुरू बिना परमेश्वर के ध्यान की युक्ति नहीं मिलती और हृदय में ब्रह्मज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकता। जैसे पथिक पंथ बिना किसी भी देश को नहीं जा सकता, वैसे ही साधक ब्रह्मज्ञान बिना संसार दशा रूप देश से ब्रह्म स्थिति रूप प्रदेश में नहीं जा सकता। सम्पूर्ण लोकों में घूमकर देखा है तथा तीनों भुवनों को विचार द्वारा भी देखा है, उनमें साधक के ब्रह्म-आत्म विषयक संशय को नष्ट कर सके ऐसा सदगुरू बिना कोई भी नहीं।

साधन-वृक्ष का बीज सदगुरू वचन ही है। उसे साधक निज अंतःकरणरूप पृथ्वी में बोये व विचार-जल से सींचे तथा कुविचार-पशुओं से बचाने रूप यत्न द्वारा सुरक्षित रखे तो उससे मनोवांछित (परम पद की प्राप्तिरूप) फल प्राप्त होगा।

जो गुरुवचनों को प्रेमपूर्वक हृदय में धारण करता है, वह अपने जीवनकाल में सदा सम्यक् प्रकार का सुख ही पाता है। सदगुरू का शब्द प्रदान करना अनंत दान है। वह अनंत युगों के कर्मों को नष्ट कर डालता है। सदगुरू के शब्दजन्य ज्ञान से होने वाले पुण्य से अधिक अन्य कोई भी धर्म नहीं दिखता। इस संसार में गुरू के शब्दों द्वारा ही जीवों का उद्धार होता है, सम्पूर्ण विकार हटकर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है।

जैसे सूर्य ओलों को गलाकर जल में मिला देता है ,ओले होकर भी जल अपने जलरूप को नहीं त्याग सकता, वैसे ही सदगुरू जीवात्मा के अज्ञान को नष्ट करके ब्रह्म से मिला देते हैं, जीवात्मा में अज्ञान आने पर भी वह अपने चेतन स्वरूप का त्याग नहीं कर सकता।

गुरूदेव की दया से सुंदर ज्ञानदृष्टि प्राप्त होती है, जिसके बल से साधक प्रकटरूप से भासने वाले मायिक संसार को मिथ्यारूप से पहचानता है और जिसे कोई भी अज्ञानी नहीं देख सकता उस गुप्त परब्रह्म को सत्य तथा अपना निजस्वरूप समझकर पहचानता है।

गुरु गोविन्द की सेवा करने से शिष्य सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से पूर्ण हो जाता है, उसकी सब प्रकार की कमी उसके हृदय से उठ जाती है। जन्मादिक दुःख नष्ट  हो जाते हैं और आशारूपी दरिद्रता भी सम्यक् प्रकार से दूर हो जाती है।

सदगुरू आकाश के समान हैं और गुरू-आज्ञा में रहने वाले शिष्य बादल के समान हैं। नभ-स्थित बादल में जैसे अपाल जल होता है, वैसे ही गुरू आज्ञा में रहने वाले शिष्यों में अपार ज्ञान होता है, उन्हें कुछ भी कमी नहीं रहती है।

जिस प्रकार वनपंक्ति के पुष्पों में शहद छिपा रहता है, वैसे ही शरीराध्यास में मन रहता है। जैसे शहद को मधु-मक्षिका निकाल लाती है, वैसे ही गुरू मन को निकाल लाते हैं। वह जो मन की छिपी हुई स्थिति है उससे भी मन को गुरू निकाल लाते हैं, अतः मैं गुरूदेव की बलिहारी जाता हूँ।

ईश्वर ने जीव को उत्पन्न किया किंतु शरीर के राग में बाँध दिया, इससे वह दुःखी ही रहा। फिर गुरूदेव ने ज्ञानोपदेश द्वारा राग के मूल कारण अज्ञान को नष्ट करके राग-बंधन से मुक्त किया है और परब्रह्म से मिलाया है। अतः इस संसार में गुरू के समान जीव का सच्चा हितैषी कोई भी नहीं है।

संत रज्जबजी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

नंगा होना तो कोई विरला जाने !


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

गांधारी ने दुर्योधन को कहा किः “मैंने आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। मेरा तप इतना है कि आँख पर से पट्टी खोलूँ तो जैसा चाहूँ वैसा हो जायेगा। बेटे ! तू सुबह एकदम नग्न होकर आ जाना। मैं तुझे वज्रकाय हो जायेगा, फिर तेरे को कोई मार नहीं सकेगा।”

गांधारी की तपस्या सब लोग जानते थे। पांडवों में सनसनी फैल गयी। ‘दुर्बुद्धि दुर्योधन वज्रकाय हो जायेगा, अमर हो जायेगा तो धरती पर अच्छे आदमी का रहना मुश्किल हो जायेगा ! क्या करें ?….’ इस प्रकार पांडव बड़े दुःखी, चिंतित थे। भगवान श्रीकृष्ण आये। पांडव बोलेः “गोविन्द ! क्या आपने सुना, गांधारी ने दुर्योधन को बुलाया है कि एकदम निर्वस्त्र होकर आ, मैं पट्टी खोलकर तुझे देखूँगी तो तू वज्रकाय हो जायेगा और तुझे कोई मार नहीं सकेगा।”

श्रीकृष्ण हँसे। पांडव बोलेः “माधव ! आपको तो सब विनोद लगता है।”

“अरे ! विनोद ही है। सारा प्रपंच ही विनोद है, सारी सृष्टि विनोदमात्र है। जैसे नाटिका में उग्र रूप, सामान्य रूप, स्नेहमय रूप दुष्टों का क्रूर रूप…. जो कुछ दिखाते हैं, वह सब दर्शक के विनोद के लिए होता है। ऐसे ही यह सारी सृष्टि ब्रह्म के विनोदमात्र के लिए है, इसमें ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है।”

“लेकिन वह दुर्योधन नंगा होकर जायेगा….”

“अरे ! वह बेवकूफ नंगा होना जानता ही नहीं है। नंगा होना जानता तो बेड़ा पार हो जाता। उसने तो अपने ऊपर काम के, क्रोध के, लोभ के, अहंता के विचारों के कई आवरण लगा दिये हैं।”

दुर्योधन नंगा होना जानता ही नहीं है, नंगा होना तो महापुरुष जानते हैं। अन्नमय कोष मैं नहीं हूँ, प्राणमय कोष मैं नहीं हूँ, मनोमय कोष मैं नहीं हूँ, विज्ञानमय कोष मैं नहीं हूँ, आनंदमय कोष मैं नहीं हूँ, बचपन मैं नहीं हूँ, जवानी मैं नहीं हूँ, बुढ़ापा मैं नहीं हूँ, सुख मैं नहीं हूँ, दुःख मैं नहीं हूँ…. इन सबको जाननेवाला मैं चैतन्य आत्मा हूँ – यह है नंगा होना।

खुश फिरता नंगम-नंगा है, नैनों में बहती गंगा है।

जो आ जाये सो चंगा है, मुख रंग भरा मन रंगा है।।

देखो रमण महर्षि कितने नंगे थे ! एक बार एक पंडित ने महर्षि के पास आकर लोगों को प्रभावित करने के लिए कई प्रश्न पूछे। महर्षि ने उठाया डंडा और पंडित को भगाने लगे। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई, विदेशी पत्रकार पॉल ब्रंटन जैसे जिनके चरणों में बैठते थे, ऐसे रमण महर्षि कितने नंगे ! कोई आवरण नहीं। लोग सोच भी नहीं सकते कि शांत आत्मा, ब्रह्म-स्वरूप, सबमें अद्वैत ब्रह्म देखने की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए रमण महर्षि को ऐसा भी क्रोध आता है !

अरे, क्रोधी तो अपने को जलाता है, वे महापुरुष तो क्रोध का भी उपयोग करते हैं। आ गया गुस्सा तो आ गया, किसी का अहित करने के लिए नहीं परंतु व्यवस्था सँभालने के लिए। देखो, महापुरुष कितने नंगम नंगे हैं ! कोई आवरण नहीं। तो दुर्योधन नंगा होना नहीं जानता और गांधारी पट्टी खोलना नहीं जानती। पट्टी खोलती है पर मोह-ममता चालू रखती है तो पट्टी क्या खोली ! अपनी वर्षों की तपस्या अपने रज से उत्पन्न एक जीव के पीछे नष्ट कर रही है ! मासिक धर्म के रक्त को पीकर जो शरीर बना है और अधर्म कर रहा है, उसके पीछे गांधारी अपनी तपस्या खत्म कर रही है। धर्म के पक्ष में निर्णय लेना चाहिए, वह तो ममता में निर्णय लेकर अपने पापी बेटे को दीर्घ जीवन देना चाहती है तो उसने पट्टी नहीं खोली, बेवकूफी की पट्टी बाँधे रखी।

लोग समझते हैं कि नंगा होने में क्या है, कपड़े उतार दिये तो हो गया नंगा ! अरे ! कपड़े उतारने से कोई नंगा होता है क्या ! वह तो बेशर्म आदमी है। अहं की चादरें पड़ी हैं, विकारों की चादरें पड़ी हैं, मान्यताओं की चादरें पड़ी हैं……। नंगा तो कोई भाग्यशाली हो। लोग फोटो में देखते हैं कि श्रीकृष्ण ने चीर हरण किया और गोपियों को नंगा किया। चित्रकार भी ऐसे ही चित्र बना देते हैं कि गोपियाँ बेचारी चिल्ला रही हैं और श्रीकृष्ण कपड़े ऊपर ले गये। यह बेवकूफी है। श्रीकृष्ण ने ग्वाल गोपियों को नंगा किया, मतलब ‘मैं गोपी हूँ, मैं ग्वाल हूँ, मैं अहीर हूँ, मैं फलाना हूँ…..’ इन मान्यताओं की परतें हटायीं।

पाँच शरीर होते हैं और हर शरीर में अपने-अपने विकार होते हैं। वही चादरें ओढ़कर जीव जी रहा है, नंगा होना जानता ही नहीं।

हम अमेरिका में स्वीमिंग पूल देखने गये थे। वह सब पुरुषों के शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था, एकदम नंगे। ऐसे नंगा होने से तो पाप लगता है। शरीर को नंगा करना शास्त्रविरूद्ध है। स्नानागार में भी नंगा नहीं रहना चाहिए। कोई-न-कोई वस्त्र कटि पर होना चाहिए।

श्रीकृष्ण ने कहाः “गांधारी पट्टी खोलना नहीं जानती है और दुर्योधन नंगा होना नहीं जानता है। तुम चिंता क्यों करते हो ?”

“माधव ! लेकिन वह देख लेगी तो ?”

“अरे ! तुम देखो तो सही। वह किस रास्ते से जाता है, मैंने पता करके रखा है।”

दुर्योधन एकदम नंगधड़ंग होकर जा रहा था तो श्रीकृष्ण ने देख लिया। अब ढकने को कुछ था नहीं तो ऐसे ही बैठ गया। श्रीकृष्ण ने कहाः “अरे दुर्योधन ! तू इतना समझदार और ऐसे जा रहा है ! वह तेरी माँ है और तू इतनी बड़ी उम्र का है, मैं तो पुरुष हूँ, जब मेरे सामने तेरे को इतना संकोच होता है तो माँ के सामने जाने पर कैसा होगा ! कम-से-कम कटिवस्त्र तो पहन ले।”

दुर्योधन को लगा कि बात तो ठीक कहते हैं। उसने कटिवस्त्र (कमर से घुटने तक शरीर ढकने का वस्त्र) पहन लिया।

दुर्योधन गया गांधारी के पास और गांधारी ने संकल्प किया कि ‘दुर्योधन के शरीर पर जहाँ-जहाँ मेरी नजर पड़े, वे सभी अंग वज्रसमान हो जायें।’ सारी तपस्या दाँव पर लगा दी। पट्टी खोली तो देखती है कि दुर्योधन ने कटिवस्त्र पहना है। उसको देखकर बोलने लगीः “अरे अभागे ! यह क्या कर दिया तूने !”

श्रीकृष्ण ने भीम को कहाः “अब दुर्योधन को कहाँ मारने से मरेगा, वह उपाय समझ लें। इधर-उधर गदा मारने की जरूरत नहीं है कमर पर ही गदा मारना, गांधारी ने उसके मरने का रास्ता बता दिया है।”

गांधारी ईश्वर विधान को जानती तो थी, धर्म का उसे ज्ञान तो था लेकिन उसका धन मोहवश अधर्म की पीठ ठोंकता है। किसी भी व्यक्ति-वस्तु परिस्थिति में ममता हुई, आसक्ति हुई, मोह हुआ तो समझो की मरे ! इसलिए मोह-ममता नहीं होनी चाहिए और वह सदगुरु की कृपा बिना नहीं मिटती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 23, 24 अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मंत्र ले गया रोग, बंदर ले गये दवा


मैं काफी दिनों से ब्लडप्रेशर, डायबिटीज एवं कोलेस्ट्रॉल से पीड़ित था। कुछ ही कदम चलने पर मैं पसीने-पसीने हो जाता था। कंधे भी जकड़े हुए थे, शरीर टूटता था। चिकित्सकों ने मुझे पूर्णरूप से आराम करने की सलाह दी थी परंतु मैं एक समाजसेवी संस्था का संचालन करता हूँ, इससे आराम करने में असमर्थ था। मैंने गुरुपूर्णिमा पर्व पर अहमदाबाद आश्रम में जाकर पूज्य बापूजी के दर्शन करने का विचार किया। परिचितों व चिकित्सकों ने मेरी हालत को देखते हुए न जाने की सलाह दी परंतु मैं जिद करके अहमदाबाद आश्रम गया। वहाँ मुझे कई बार चक्कर आये और मेरी हालत नाजुक हो गयी। अंतर्यामी गुरुदेव शिष्य की व्यथा को समझ गये और लाखों लोगों के बीच से मुझे व्यासपीठ के पास बुलाया। दूसरे की पीड़ा न देख सकने वाले गुरदेव ने मेरा हालचाल पूछा। मैंने सब व्यथा कह दी। बापू जी ने मंत्र दिया और कहाः “मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करना, प्राणायाम करना, सवेरे घूमने जाना और 15 से 17 मिनट सूर्य की किरणें शरीर को लगें ऐसे सूर्यस्नान करना।’

मैंने उनके निर्देशानुसार नियम से जप, प्राणायाम, सूर्यस्नान और घूमना शुरू किया तो मुझे लाभ होने लगा। एक दिन मैं घूमने गया था, घर आया तो पत्नी ने बताया कि ‘लाल मुँह के चार बंदर आये और सारी दवाइयों का पॉलिथीन उठा के ले भागे।’ दूसरी बार दवा ले आया तो फिर से बंदर आकर दवाइयाँ ले भागे। ऐसा 4-5 बार हुआ। सभी को इस घटना का बड़ा आश्चर्य हुआ परंतु मुझे तो इसमें मंत्र का प्रभाव साफ दिखायी दे रहा था, नासै रोग….. हनुमानजी का मंत्र था और हनुमान जी की सेनावाले आये।

मेरी हालत में निरंतर सुधार आता गया। गुरुदेव की कृपा से मैं आज एकदम तंदुरुस्त हूँ। मैं ऐसे भगवद् स्वरूप गुरुदेव के लिए भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे चिरंजीवी हों और उनकी इस लोक-मांगल्य की पावन सरिता का लाभ विश्वमानव को मिलता रहे।

कमल किशोर खन्ना, अजमेर (राजस्थान)

मोबाइलः 9587297820

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 34, अंक 211

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ