हवा और आरोग्य

हवा और आरोग्य


हवा का प्रभाव उसकी गति व दिशा के अनुसार स्वास्थ्य तथा वातावरण आदि पर पड़ता है। अत्यधिक खुली हवा शरीर में रूक्षता उत्पन्न करती है, वर्ण बिगाड़ती है, अंगों को शिथिल करती है, पित्त मिटाती है, पसीना दूर करती है। जहाँ हवा का आवागमन न हो वह स्थान उपरोक्त गुणधर्मों से विपरीत प्रभाव डालता है।

ग्रीष्म ऋतु में इच्छानुसार खुली हवा का सेवन करें व शरद ऋतु में मध्यम हवा हो ऐसे स्थान पर रहें। आयु और आरोग्य की रक्षा हेतु जहाँ अधिक गति से हवा नहीं बहती हो, ऐसे मध्यम हवायुक्त स्थान पर निवास करें। यह सदैव हितकर है।

निर्वातमायुषे सेव्यमारोग्याय च सर्वदा।

(भावप्रकाश)

भिन्न-भिन्न दिशाओं से आने वाली हवा का स्वास्थ्य पर प्रभाव

पूर्व दिशा की हवाः भारी, गर्म, स्निग्ध, दाहकारक, रक्त तथा पित्त को दूषित करने वाली होती है। परिश्रमी, कफ के रोगों से पीड़ित तथा कृश व दुर्बल लोगों के लिए हितकर है। यह हवा चर्मरोग, बवासीर, कृमिरोग, मधुमेह, आमवात, संधिवात इत्यादि को बढ़ाती है।

दक्षिण दिशा की हवाः खाद्य पदार्थों में मधुरता बढ़ाती है। पित्त व रक्त के विकारों में लाभप्रद है। वीर्यवान, बलप्रद व आँखों के लिए हितकर है।

पश्चिम दिशा की हवाः तीक्ष्ण, शोषक व हलकी होती है। यह कफ, पित्त, चर्बी एवं बल को घटाती है व वायु की वृद्धि करती है।

उत्तर दिशा की हवाः शीत, स्निग्ध, दोषों को अत्यन्त कुपित करने वाली, स्निग्धकारक व शरीर में लचीलापन लाने वाली है। स्वस्थ मनुष्य के लिए लाभप्रद व मधुर है।

अग्नि कोण की हवा दाहकारक एवं रूक्ष है। नैऋत्य कोण की हवा रूक्ष है परंतु जलन पैदा नहीं करती। वायव्य कोण की हवा कटु और ईशान कोण की हवा तिक्त है।

ब्राह्म मुहूर्त (सूर्योदय से सवा दो घंटे पूर्व से लेकर सूर्योदय तक का समय) में सभी दिशाओं की हवा सब प्रकार के दोषों से रहित होती है। अतः इस वेला में वायुसेवन बहुत ही हितकर होता है। वायु की शुद्धि प्रभातकाल में तथा सूर्य की किरणों, वर्षा, वृक्षों एवं ऋतु-परिवर्तन से होती है।

पंखे की हवा तीव्र होती है। ऐसी हवा उदानवायु को विकृत करती है और व्यानवायु की गति को रोक देती है, जिससे चक्कर आने लगते हैं तथा शरीर के जोड़ों को आक्रान्त करने वाली गठिया आदि रोग हो जाते हैं।

खस, मोर के पंखों तथा बेंत के पंखों की हवा स्निग्ध एवं हृदय को आनन्द देने वाली होती है।

अशुद्ध स्थान की वायु का सेवन करने से पाचन-दोष, खाँसी, फेफड़ों का प्रदाह तथा दुर्बलता आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति अपनी नासिका की सिधाई में 21 इंच की दूरी तक की वायु ग्रहण करता है और फेंकता है। अतः इस बात को सदैव ध्यान में रखकर अशुद्ध स्थान की वायु के सेवन से बचना चाहिए।

जो लोग अन्य किसी भी प्रकार की कोई कसरत नहीं कर सकते, उनके लिए टहलने की कसरत बहुत जरूरी है। इससे सिर से लेकर पैरों तक की करीब 200 मांसपेशियों की स्वाभाविक ही हलकी-हलकी कसरत हो जाती है। टहलते समय हृदय की धड़कन की गति 1 मिनट में 72 बार से बढ़कर 82 बार हो जाती है और श्वास भी तेजी से चलने लगता है, जिससे अधिक आक्सीजन रक्त में पहुँचकर उसे साफ करता है।

टहलना कसरत की सर्वोत्तम पद्धति मानी गयी है क्योंकि कसरत की अन्य पद्धतियों की अपेक्षा टहलने से हृदय पर कम जोर पड़ता है तथा शरीर के एक दो नहीं बल्कि सभी अंग अत्यंत सरल और स्वाभाविक तरीके से सशक्त हो जाते हैं।

चतुर्मास में स्वास्थ्य रक्षा

चतुर्मास में आकाश बादलों से ढका रहता है, जिससे उचित मात्रा में जीवनशक्ति नहीं मिल पाती तथा हानिकारक जंतुओं का नाश नहीं होता। अतः चतुर्मास रोग फैलाने वाला काल माना जाता है। इसमें फैले रोगों का विस्फोट शरद ऋतु में होता है।

जीवनशक्ति बढ़ाने के उपायः

साधारणतया चतुर्मास में पाचनशक्ति मंद रहती है। अतः आहार कम करना चाहिए। पन्द्रह दिन में एक दिन उपवास करना चाहिए।

चतुर्मास में जामुन, कश्मीरी सेब आदि फल होते हैं। उनका यथोचित सेवन करें।

हरी घास पर खूब चलें। इससे घास और पैरों की नसों के बीच विशेष प्रकार का आदान-प्रदान होता है, जिससे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

गर्मियों में शरीर के सभी अवयव शरीर शुद्धि का कार्य करते हैं, मगर चतुर्मास शुद्धि का कार्य केवल आँतों, गुर्दों एवं फेफड़ों को ही करना होता है। इसलिए सुबह उठने पर, घूमते समय और सुबह-शाम नहाते समय गहरे श्वास लेने चाहिए। चतुर्मास में दो बार स्नान करना बहुत ही हितकर है। इस ऋतु में रात्रि में जल्दी सोना और सुबह जल्दी उठना बहुत आवश्यक है।

अपान मुद्रा

जो बढ़ाये पवित्रता, सात्त्विकता

लाभः इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर की अंदरूनी सफाई में मदद मिलती है। आँतों में फँसे मल और विषैले पदार्थों को आसानी से बाहर निकालने में यह मुद्रा काफी असरदार है। इसके फलस्वरूप शारीरिक व मानसिक पवित्रता में वृद्धि होती है और अभ्यासकर्ता में सात्त्विक गुणों का समावेश होने लगता है। मूत्र-उत्सर्जन में कठिनाई, वायुदोष, अम्लदोष (पित्तदोष), पेटदर्द, कब्जियत और मधुमेह जैसी बीमारियों में भी यह मुद्रा काफी लाभदायक सिद्ध हुई है। जिन्हें पसीना न आने के कारण परेशानी होती हो, वे इस मुद्रा के अभ्यास से जल्द ही उससे छुटकारा पा सकते हैं। यदि छाती और गले में कफ जम गया हो तो इस मुद्रा के अभ्यास से ऐसे उपद्रवी कफ को भी सहज ही शरीर से बाहर किया जा सकता है।

इसका नियमित अभ्यास कैंसर जैसी भयानक बीमारी की भी रोकथाम करने में सहायक है।

विधिः अँगूठे के अग्रभाग से मध्यमा और अनामिका (छोटी उँगली के पासवाली उँगली) के अग्रभागों को स्पर्श करें। बाकी की दो उँगलियाँ सहजावस्था में सीधी रखें।

अवधिः इस मुद्रा का अभ्यास किसी भी समय, कितनी भी अवधि के लिए कर सकते हैं परंतु प्रतिदिन नियमित रूप से करें।

पुनर्नवा

शरीरं पुनर्नवं करोति इति पुनर्नवा।

जो अपने रक्तवर्धक एवं रसायन गुणों द्वारा सम्पूर्ण शरीर को नवीन स्वरूप प्रदान करे, वह है ‘पुनर्नवा’। यह हिन्दी में साटी, साँठ, गदहपुरना, विषखपरा, गुजराती में साटोड़ी, मराठी में घेटुली तथा अंग्रेजी में हॉगवीड नाम से जानी जाती है।

रसायन प्रयोगः हमेशा उत्तम स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए रोज सुबह पुनर्नवा के मूल या पत्तों का 2 चम्मच (10 मि.ली.) रस पीयें अथवा पुनर्नवा के मूल का चूर्ण 2 से 4 ग्राम की मात्रा में दूध या पानी से लें या सप्ताह में 1 दिन पुनर्नवा की सब्जी बना के खायें। इन दिनों में यह बहुत सरलता से उपलब्ध हो जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 28,29,30 अंक 212

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *