नम्रता की मूर्तिः तुलसीदास जी

नम्रता की मूर्तिः तुलसीदास जी


(संत तुलसीदासजी जयंतीः 16 अगस्त)

संत विनोबाजी भावे कहते हैं – “मुझे एक दिन, रात को सपना आया। सात्त्विक मुद्रा का एक व्यक्ति मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहा था। विनय पत्रिका पर चर्चा चल रही थी। उसने दो भजनों के अर्थ पूछे, कुछ शंकाएँ थीं। मैं समझा रहा था। वह एकाग्रता से सुन रहा था। थोड़ी देर बाद मेरे ध्यान में आया कि ये तो साक्षात् संत तुलसीदास जी हैं, जो मुझसे बात कर रहे हैं और मेरी नींद टूट गयी। मैं सोचने लगा, ‘यह क्या हुआ ?’ तो ध्यान में आया कि आज तुलसीदासजी की जयंती है। हर साल तुलसी जयंती के दिन मैं तुलसी रामायण या विनय पत्रिका पढ़ता हूँ और तुलसीदासजी का स्मरण कर लेता हूँ, परंतु उस दिन तुलसी-जयंती का स्मरण मुझे नहीं रहा था। इसलिए रात को तुलसीदासजी मुझसे बात करके गये।

तुलसीदास जी ने जब रामायण लिखी, तब प्रचार का कोई साधन नहीं था। उनके हाथ में प्रेस नहीं थी। परंतु इसके बावजूद रामायण का घर-घर में प्रचार हुआ। आज प्रेस होते हुए भी हिंदुस्तान की किसी भी भाषा में कोई ऐसी किताब नहीं है, जो तुलसी रामायण के समान घर घर पहुँची हो। तुलसीदासजी ने पैंतालीस साल की उम्र में रामायण लिखी और फिर चालीस साल तक गाँव-गाँव जाकर अपनी मधुर वाणी में रामायण गान किया।

यह रामकथा ऐसी है कि छोटे बच्चों से लेकर औरतों और ग्रामीणों को भी, जिनको संस्कृत का ज्ञान नहीं है या कम पढ़े लिखे हैं, उनको भी सुनने में और गाने में आनंद आता है। जिनको गहराई में पैठने की आदत है, उनको वैसे पैठने का भी मौका मिलता है। यह बड़ा भारी उपकार तुलसीदासजी ने हम पर किया है।

सारे समाज का उत्थान करने के लिए, सब प्रकार के अहंकार को छोड़कर वे झुक गये और अत्यंत सरल भाषा में लिखा। विद्वत्-शिरोमणि होकर लिखा ‘जागबलिक’। कोई संस्कृत जानने वाला सहन करेगा ? कहेगा ‘याज्ञवल्क्य’ लिखना चाहिए। अब लोगों को व्याकरण सिखाना है कि धर्म सिखाना है ! जिन शब्दों का लोग उच्चारण भी नहीं कर सकते, उनके लिए उन्होंने सरल भाषा लिखी और वे कहते हैं कि ‘मैं बहुत बड़े ग्रन्थों का प्रमाण लेकर लिख रहा हूँ।’ अरथ न धरम न काम रूचि। ‘धर्म’ नहीं कहते ‘धरम’ कहते हैं, ‘अर्थ’ नहीं कहते ‘अरथ’ कहते हैं, ‘निर्वाण’ नहीं कहते ‘निरबान’ कहते हैं। युक्ताक्षर तोड़कर आम समाज सके, ऐसी भाषा लिखी।

इतनी नम्रता थी और ऐसे झुक गये समाज को ऊपर उठाने के लिए, जैसे माँ बच्चे को उठाने के लिये झुकती है।

तुलसीदासजी पहले काशी में ‘पंचगंगा घाट’ पर रहते थे। वहाँ लोगों ने उनको ईर्ष्यावश इतना सताया कि वे मणिकर्णिका घाट पर भाग गये। वहाँ भी अलग-अलग पंथों के लोगों ने बहुत सताया। वहाँ से भी भागे, तीसरे घाट पर गये। आखिर बहुत सताया तो सब छोड़कर काशी के आखिरी हिस्से में जहाँ एक टूटा-फूटा घाट था ‘अस्सी घाट’, वहाँ पर रहे। वहाँ ज्यादा बस्ती नहीं थी। आज उसके दक्षिण में हिन्दू विश्वविद्यालय बना है और कुछ बस्ती है, उस जमाने में बस्ती नहीं थी। इस तरह उन्हें बहुत तंग किया गया लेकिन आज सब उनका नाम लेकर आदर से, भक्ति से, प्यार से झुक जाते हैं। यही हाल संत कबीर जी, संत ज्ञानदेव, नानकजी, संत नामदेव जी का हुआ। आद्य शंकराचार्य जी इतने महान थे पर उनका भी यही हाल हुआ था उनके जमाने में।

अपनी भारतीय परम्परा सभ्यता रामायण की सभ्यता है। दुर्गुणों पर, पाप पर हमला करना यह रामायण का स्वरूप है। उसी के लिए घर-घर में रामायण पढ़ी जाती है। यह कथा कब तक चलेगी ? जब तक गंगा की धारा बहती रहेगी, हिमालय खड़ा रहेगा तब तक यह राम कथा बहती रहेगी।

तुलसी रामायण जैसा कोई ग्रंथ नहीं है, जिससे सामान्य किसान भी जो लेना है वह ले सकता है और महाज्ञानी भी जो लेना है वह ले सकता है।

बचपन में माँ ने हमको रामायण का सार सुनाया था कि ये दिन भी बीत जायेंगे। रामचन्द्र जी पन्द्रह साल के हैं और विश्वामित्र जी उन्हें बुलाने आये हैं। सब लोग चिंतित हैं परंतु राम जी शांत हैं। कोई उनको पूछता है तो कहते हैं- ये दिन भी बीत जायेंगे। राक्षसों का संहार कर, अनेक पराक्रम कर रामजी वापस आते हैं। उस समय सब आनंद मना रहे हैं लेकिन रामजी तो शांत ही बैठे हैं। उन्हें पूछा जाता है तो वे कहते हैं- ‘ये दिन भी बीत जायेंगे।’ जब आता है शादी का प्रसंग, उस समय भी रामजी के मुखारविंद पर शांति और वही जवाब। फिर आया राज्याभिषेक का आनंदमयी प्रसंग। तब भी रामजी शांत थे और वही जवाब, ‘ये दीन भी बीत जायेंगे।’ इतने में माँ की आज्ञा पर चौदह साल का वनवास मिलता है। फिर भी रामजी शांत ही थे। वही प्रश्न, वही उत्तर। इस प्रकार पूरी रामायण सुख-दुःख के प्रसंगों से भरी है परंतु राम जी के मुख पर सदा वही शांति, वही प्रसन्नता क्योंकि उनको पता था कि ये दिन भी बीत जायेंगे।’

पूज्य बापू जी कहते हैं- “वास्तव में जो बीत रहा है, वह अनित्य शरीर और संसार है और जो उसका साक्षी है वह नित्य अपना आत्मा शुद्ध-बुद्ध चैतन्य है। श्रीरामजी अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप में जाग गये थे, वसिष्ठजी का सत्संग आत्मसात् किया था। आप भी सत्संग को आत्मसात् करें। जरा-जरा सी परिस्थितियों को सत्यबुद्धि से देखकर हर्ष और शोक में फिसलो मत।

हरख सोग जा कै नहीं बैरी मीत समान।

कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।

यह बात मैंने पहले भी कही बार कही है। यह उत्तम साधन है। बीतने वाला बीत रहा है, आप सम सत्ता में रहो। उचित प्रयत्न करो पर परिणाम में सम रहो तो आपने श्रीरामजी की, गुरु वसिष्ठजी की और मेरे गुरुदेव श्रीलीलाशाहजी की एक साथ सेवा सम्पन्न कर ली, प्रसाद पचाया ऐसा मैं मानूँगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 212

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