वीर्यरक्षण ही जीवन है

वीर्यरक्षण ही जीवन है


वीर्य इस शरीररूपी नगर का एक तरह से राजा ही है। यह राजा यदि पुष्ट है, बलवान है तो रोगरूपी शत्रु कभी शरीररूपी नगर पर आक्रमण नहीं करते। जिसका वीर्यरूपी राजा निर्बल है, उस शरीररूपी नगर को कई रोगरूपी शत्रु आकर घेर लेते हैं। इसीलिए कहा गया हैः मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्। बिन्दुनाश (वीर्यनाश) ही मृत्यु है और बिन्दुरक्षण ही जीवन है।’ जैन ग्रन्थों में अब्रह्मचर्य को पाप बताया गया हैः अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिठ्ठियम्। ‘अब्रह्मचर्य घोर प्रमादरूप पाप है।’

(दश वैकालिक सूत्रः 6.17)

अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य को उत्कृष्ट व्रत की संज्ञा दी गयी हैः व्रतेषु  वै वै ब्रह्मचर्यम्।

ब्रह्मचर्यं परं बलम्। ‘ब्रह्मचर्य परम बल है। ऐसा वैद्यकशास्त्र में कहा गया है।

वीर्यरक्षण की महिमा सभी सत्पुरुषों ने गायी है। योगीराज गोरखनाथ ने कहा हैः

कंत गया कूँ कामिनी झूरै।

बिन्दु गया कूँ जोगी।।

पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है।

भगवान शंकर ने तो यहाँ तक कह दिया हैः

यस्य प्रसादान्महिमा ममाप्येतादृशो भवेत्।

‘इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महानि महिमा हुई है।’

आधुनिक चिकित्सकों का मत

यूरोप के प्रतिष्ठित चिकित्सक भी भारतीय योगियों के कथन का समर्थन करते हैं। डॉ. निकोल कहते हैं- “यह एक भैषजिक व दैहिक तथ्य है कि शरीर के सर्वोत्तम रक्त से स्त्री तथा पुरुष दोनों ही जातियों में प्रजनन-तत्त्व बनते हैं। शुद्ध व व्यवस्थित जीवन में यह तत्त्व पुनः अवशोषित हो जाता है। यह सूक्ष्मतम मस्तिष्क, स्नायु तथा मांसपेशिय ऊतकों का निर्माण करने के लिए तैयार होकर पुनः परिसंचरण में हो जाता है। मनुष्य का यह वीर्य ऊर्ध्वगामी होकर शरीर में फैलने पर उसे निर्भीक, बलवान, साहसी तथा वीर बनाता है। यदि इसका अपव्यय किया गया तो यह उसको स्त्रैण दुर्बल कृशकलेवर एवं कामोत्तेजनशील बनाता है तथा उसके शरीर के अंगों के कार्यव्यापार को विकृत एवं स्नायुतंत्र को शिथिल (दुर्बल) करता है और उसे मिर्गी एवं अन्य अनेक रोगों तथा मृत्यु का शिकार बना देता है। जननेन्द्रिय के व्यवहार की निवृत्ति से शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक बल में असाधारण वृद्धि होती है।”

परम धीर एवं अध्यवसायी वैज्ञानिकों के अनुसन्धानों से पता चला है कि जब कभी भी वीर्य को सुरक्षित रखा जाता है तथा इस प्रकार शरीर में उसका पुनः अवशोषण किया जाता है तो वह रक्त को समृद्ध व मस्तिष्क को बलवान बनाता है।

डॉ डिओ लुई कहते हैं- “शारीरिक बल, मानसिक ओज तथा बौद्धिक कुशाग्रता के लिए इस तत्त्व (वीर्य) का संरक्षण परम आवश्यक है।”

डॉ. ई.पी.मिलर लिखते हैं- “शुक्रस्राव का स्वैच्छिक या अनैच्छिक अपव्यय जीवनशक्ति का प्रत्यक्ष अपव्यय है। यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं कि रक्त के सर्वोत्तम तत्त्व शुक्रस्राव की संरचना में प्रवेश कर जाते हैं। यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के कल्याण के लिए जीवन में ब्रह्मचर्य परम आवश्यक है।”

पश्चिम के प्रख्यात चिकित्सक कहते हैं कि वीर्यक्षय से विशेषकर तरूणावस्था में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। वे हैं- शरीर में व्रण, चेहरे पर मुँहासे या विस्फोट, नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, अण्डकोश की वृद्धि, अण्डकोशों में पीड़ा, दुर्बलता, निद्रालुता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, श्वासावरोध या कष्टश्वास, यक्ष्मा, पृष्ठशूल, कटिवात, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्नदोष व मानसिक अशांति।

उपरोक्त रोगों को मिटाने का एकमात्र इलाज ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य-पालन में निम्न प्रयोग मदद करेंगेः 80 ग्राम आँवला चूर्ण और 20 ग्राम हल्दी चूर्ण का मिश्रण बना लो। सुबह शाम 3-3 ग्राम यह मिश्रण फाँकने से 8-10 दिन में ही उपरोक्त सभी रोगों में चमत्कारिक लाभ होगा। वीर्यरक्षा में इससे मदद मिलेगी और ॐ अर्यमायै नमः। मंत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण है। गीता में भी इसके देवता अर्यमा की महिमा है। स्थल-बस्ति भी वीर्यरक्षा में अमोघ उपाय है। लेटकर श्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात् 30-35 बार गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण श्वास रोककर करें। ऐसे एक बार में 30-35 बार संकोचन विस्तरण करें। तीन चार बार श्वास रोकने में 100 से 120 बार हो जायेगा। यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब मदद करेगी। इससे व्यक्तित्व का विकास होगा ही, वात-पित्त-कफजन्य रोग भी दूर होंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 213

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