प्रीति और स्मृति

प्रीति और स्मृति


(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

प्रीति और स्मृति में अन्तर है। देखो, जिससे प्रीति होती है उसकी स्मृति सतत बनी रहे यह कोई जरूरी नहीं। बेटे के लिए प्रीति होती है और कामकाज करते हैं तो क्या दिन भर बेटे की स्मृति करते हैं ? गहरी नींद में सो जाते हैं तो मैं कौन हूँ ? कहाँ हूँ ? बेटा कहाँ है ? – ये सब बातें विस्मृति की खाई में चली जाती हैं। फिर भी हृदय की गहरी कंदरा में अपने प्रिय की स्मृति बनी रहती है। सुबह उठे तो कामकाज में लगे लेकिन बेटे का फोन आया या बेटा आ गया तो आपकी प्रीति उभर आती है। स्मृति तो करनी पड़ती है लेकिन प्रीति एक बार हो जाय तो बनी रहती है। तो जिसको अपना मानते हैं उसमें प्रीति स्वाभाविक होती है। बेटे को अपना मानते हैं, वस्तु को अपनी मानते हैं… किसी के जूते पड़े हैं, कुत्ता उन पर पिचकारी लगा रहा है तो उसे हम नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन अपने जूते पर जब कुत्ता पिचकारी लगाने लगता है तो हम हटाते हैं क्योंकि जूता अपना है। तो जो अपनी चीज होती है, अपना जिसको मानते हैं उसमें प्रीति होती है।

मैं आपको हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि आप भगवान को अपना मानिये। वास्तव में भगवान आपके थे, हैं और रहेंगे। शरीर आपका पहले नहीं था, बचपन आपका नहीं था इसीलिए नहीं रहा। बचपन कौन-से दिन चला गया, बताओगे तुम ? जवानी भी आपकी नहीं है, नहीं रहेगी। बुढ़ापा भी आपका नहीं है। शरीर भी आपका नहीं है। आपका हो तो आपके कहने में रहे। आप नहीं चाहते कि यह बीमार हो जाय, नहीं चाहते मर जाय, नहीं चाहते बूढ़ा हो जाय तो भी हो जाता है। तो शरीर माया का है, प्रकृति का है, संसार का है। इसको संसार की सेवा में, कर्तव्य में लगा दो किंतु आपका आत्मा-परमात्मा है। वह एकरस है, नित्य है, सुखस्वरूप है। आपका बचपन असत् था, उसको जानने वाला सत् अभी भी है – ‘बचपन में मैं ऐसा था, वैसा था….’ वह आपका परमात्मा ज्ञानस्वरूप है। आपकी बुद्धि में ज्ञान उसी से आता है। वह आपका परमात्मा आनंदस्वरूप है इसीलिए हृदय में कभी-कभी प्रेम, खुशी, आनंद आता है। उस परमात्मा को अपना मान लो। जो सत् है, चेतन है, आनंदस्वरूप है, वह मेरा आत्मा-परमात्मा है। जो बदलने वाला है दुःख-सुख, वह मेरा नहीं है। मनुष्य ने यह ठान लिया है कि हमको जो मिलेगा उसको पकड़े रहेंगे। कोई छुड़ायेगा तो हम रोयेंगे। ‘यह मिल गया, अब मेरा है। लेकिन यह देखते-देखते सड़ जायेगा, गल जायेगा फिर मुझे रोना पड़ेगा जो आ गया वह आ गया, उसका उपयोग किया परंतु जिसकी सत्ता से आया, जिसको दिखा वह आत्मा चैतन्य मैं हूँ। जो दिखा वह मेरा नहीं है, जो मिला वह मेरा नहीं है किंतु मिला हुआ जिससे दिखा वह सच्चिदानंद प्रभु मेरा है।’ – ऐसा चिन्तन करने से आपके दुःख ऐसे मिटेंगे जैसे सूरज उगते ही अंधकार मिट जाता है। आपको दुःख और सुख स्वप्नवत् दिखेंगे और उनको जानने वाला परमेश्वर अपना महसूस होगा। प्रभु ऐसा नहीं कि कहाँ से आयेंगे, घूमकर दर्शन देंगे और चले जायेंगे। वह उपासना के अंतर्गत है, भावना के बल से है, वह प्रभु का अवतार आयेगा, जायेगा किंतु प्रभु तो वास्तव में सर्वत्र, सर्वव्यापक है और आपके आत्मा है। अंतर्यामी प्रभु इधर (हृदय में) होंगे तभी तो बाहर के मंदिर के प्रभु दिखेंगे अथवा आये हुए प्रभु दिखेंगे। आये हुए प्रभु तो चले जायेंगे किंतु जिससे दिखेंगे वे प्रभु कभी नहीं जाते।

तो भगवान में प्रीति बने रहे। प्रीति में स्मृति की शर्त नहीं है। स्मृति जब प्रीति बन जाती है, स्मृति जब अपनत्व दिखाती है फिर स्मृति की भी आवश्यकता नहीं रहती। भगवान कहते हैं-

मत्कर्मकृन्मत्परमो मदभक्तः संगवर्जितः।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।

‘हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूर्तप्राणियों में वैरभाव से रहित है, वह अनन्य भक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।’

(गीताः 11.55)

हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे लिए ही सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को करने वाला है… माँ से मधुर व्यवहार, पत्नी का पालन अथवा पति की सेवा या बेटों का पालन, ये मुझे सुख देंगे – इस भावना  से नहीं अपितु अब संसार में फँसे हैं तो भगवान के निमित कर्तव्य करते हैं – इस भावना से करें। तो भगवान के परायण होकर जो कर्म करता है, भगवान कहते हैं कि वह मेरा भक्त है। जिसके कर्म भगवान के निमित्त हों, जो आसक्तिरहित और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित हो, वह मनुष्य, अनन्य भावयुक्त पुरुष मुझको (भगवान को) ही प्राप्त हो जाता है। एक तो मत्कर्मकृत्। भगवान के लिए कर्म। दूसरा मत्परमः। भगवान का ही भरोसा। भगवान के निमित्त कर्म और भगवान का भरोसा। बुढ़ापे में क्या होगा ? क्या खायेंगे ? अरे, माँ के गर्भ से आये तब उस परमात्मा ने हमारे लिए दूध बना दिया तो बुढ़ापे में भी कुछ-न-कुछ हो जायेगा। क्यों चिन्ता करके मरो !

मुर्दे को प्रभु देत है, कपड़ा लकड़ा आग।

जिंदा नर चिंता करे, ताके बड़े अभाग।।

मदभक्तः…. मेरे में भक्ति। भगवान का मैं अर्थात् जहाँ से मैं-मैं स्फुरता है। मैं, यह, वह सब भूल जाते हैं लेकिन वास्तविक ‘मैं’ ज्यों का त्यों रहता है। मदभक्तः…. मेरे में भक्ति, मेरे में प्रीति, मेरे में भरोसा तथा दूसरे से ममता नहीं और वैर नहीं। आदमी या तो ममता से फँसता है या तो वैर से फँसता है। भगवान के निमित्त कर्म करने से तो फँसान छूट जाती है।

तो रति भी भगवान में, प्रीति भी भगवान में। भगवान की महत्ता जान के उनको अपना जानें तो उनमें हमारी प्रीति स्वाभाविक है। बिना प्रीति के कोई व्यक्ति रह नहीं सकता। प्रीति जब मूल में (परमात्मा में) नहीं होती और विकारों के द्वारा भटकती है तो वह संसार बन जाती है और प्रीति निर्विकार नारायण के प्रति होकर व्यवहार करते हैं तो प्रीति भक्ति के रूप में चमकती है। भगवान सत्स्वरूप है उससे हमारा अस्तित्व है। भगवान चेतनस्वरूप हैं उससे जीव की बुद्धि में चेतना है और भगवान आनन्दस्वरूप हैं इसीलिए जीवों को किसी-न-किसी के प्रति प्रीति है। अगर जीव वह प्रीति नाम में, रूप में, आकृति में, वस्तु में ही आबद्ध कर लेता है तो संसार में फँसता है किंतु नाम में, रूप में, वस्तु में जिसके आधार से प्रीति होती है उस उदगम स्थान का सुमिरन करता है अथवा उसमें प्रीति करता है तो निर्लेप ब्रह्मज्ञानी संत बन जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 213

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