Monthly Archives: October 2010

वीर्य कैसे बनता है ?


वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है। श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा हैः

रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।

मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।।

जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पाँच दिन बाद रक्त से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है। स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे ‘रज’ कहते हैं। इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है और 800 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है।

आकर्षक व्यक्तित्व का कारण

वीर्य के संयम से शरीर में अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने ‘ओज’ कहा है। यही ओज मनुष्य को परम लाभ-आत्मदर्शन कराने में सहायक बनता है। आप जहाँ-जहाँ भी किसी के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो वीर्यरक्षण का ही चमत्कार है।

एक स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 800 ग्राम भोजन के हिसाब से 40 दिन में 32 किलो भोजन करे तो उसकी कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी। महीने कि करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में खर्च होता है।

माली की कहानी

एक माली ने अपना तन मन धन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुंदर बगीचा तैयार किया, जिसमें भाँति-भाँति के मधुर सुगंधयुक्त पुष्प खिले। उन पुष्पों से उसने बढ़िया इत्र तैयार किया। फिर उसने क्या किया, जानते हो ? उस इत्र को एक गंदी नाली (मोरी) में बहा दिया। अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को, जिसकी सुगंध से उसका घर महकने वाला था, उसने नाली में बहा दिया ! आप कहेंगे कि ‘वह माली बड़ा मूर्ख था, पागल था…..’ मगर अपने-आप में ही झाँककर देंखें, उस माली को कहीं और ढूँढने की जरूरत नहीं है, हममें से कई लोग ऐसे ही माली हैं।

वीर्य बचपन से लेकर आज तक, यानी 15-20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज, बल और स्फूर्ति देता रहा। अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी, उसे यों ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ! क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो-चार बार यह भूल करने के बाद किसी के समझाने पर संभल भी गया होगा, फिर वही की वही भूल नहीं दोहरायी होगी परंतु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं। अंत में पश्चाताप ही हाथ लगता है। क्षणिक सुख के लिए व्यक्ति कामांध होकर बड़े उत्साह से इस मैथुनरूपी कृत्य में पड़ता है परंतु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है। होगा ही, उसे पता ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला केवल सुखाभास हुआ परंतु उसमें उसने 30-40 दिन की अपनी कमाई खो दी।

युवावस्था आने तक वीर्य संचय होता है। वह शरीर में ओज के रूप में स्थित रहता है। वीर्यक्षय से वह तो नष्ट होता ही है, साथ ही अति मैथुन से हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है, जिससे युवक अत्यधिक कमजोर होकर नपुंसक भी बन जाते हैं। फिर वे किसी के सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते। उनका जीवन नारकीय बन जाता है। वीर्यरक्षण का इतना महत्त्व होने के कारण ही कब मैथुन करना, किससे करना, जीवन में कितनी बार करना आदि निर्देश हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में दे रखे हैं।

सृष्टि क्रम के लिए मैथुनः एक प्राकृतिक व्यवस्था

शरीर से वीर्य-व्यय यह कोई क्षणिक सुख के लिए प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। संतानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है। यह सृष्टि चलती रहे इसके लिए संतानोत्पत्ति जरूरी है। प्रकृति में हर प्रकार की वनस्पति व प्राणिवर्ग में यह काम-प्रवृत्ति स्वभावतः पायी जाती है। इसके वशीभूत होकर हर प्राणी मैथुन करता है व उसका सुख भी उसे मिलता है किंतु इस प्राकृतिक व्यवस्था को ही बार-बार क्षणिक सुख का आधार बना लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ! पशु भी अपनी ऋतु के अनुसार ही कामवृत्ति में प्रवृत्त होते हैं और स्वस्थ रहते हैं तो क्या मनुष्य पशुवर्ग से भी गया बीता है ? पशुओं में तो बुद्धितत्त्व विकसित नहीं होता पर मनुष्य में तो उसका पूर्ण विकास होता है।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।

भोजन करना, भयभीत होना, मैथुन करना और सो जाना – ये तो पशु भी करते है। पशु-शरीर में रहकर हम यह सब करते आये हैं। अब मनुष्य-शरीर मिला है, अब भी यदि बुद्धि विवेकपूर्वक अपने जीवन को नहीं चलाया व क्षणिक सुखों के पीछे ही दौड़ते रहे तो अपने मूल लक्ष्य पर हम कैसे पहुँच पायेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 214

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वे वीडियो व आवाज को काट-छाँटकर प्रसारित करते हैं


परम पूज्य सदगुरुदेव संत श्री आसारामजी बापू के श्रीचरणों में सादर प्रणाम !

आज भारतीय मीडिया जिस दिशा में जा रहा है वह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। अपने ही संत-संस्कृति का मखौल उड़ाकर पूरे विश्व में भारत की छवि को बिगाड़ने का प्रयास कुछ चैनल कर रहे हैं। मैं तो खुद एक टी.वी. पत्रकार हूँ इसलिए बेहतर तरीके से जानता हूँ कि मीडिया में कुछ ऐसे तत्त्व घुस आये हैं, जिन्होंने भारतीय संत-समाज को बदनाम करने का ठेका दुराचारियों से ले लिया है।

पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति का डंका बजाने वाले और अध्यात्म-ज्ञान, आत्मज्ञान का खजाना बाँटने वाले, स्वस्थ, सुखी, सम्मानित जीवनि की राह दिखाने वाले लोकलाडले संत श्री आसारामजी महाराज को सनसनी खबर बनाकर बदनाम करने का सोचा समझा षडयंत्र है। केवल बापू जी ही नहीं, श्री श्री रविशंकरजी महाराज, कांची कामकोटि पीठ के श्रद्धेय शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती जी, श्री सत्य साँई बाबा और योग गुरु स्वामी रामदेव को भी बदनाम करने का कुचक्र कुछ मीडिया संस्थानों ने किया है।

दिन रात दौड़ धूप कर समाज को जागृत करने में तत्पर बापू जी के लोक-कल्याणकारी कार्य दिखाने में इन चैनलों को शर्म आती है, परंतु अभिनेता अभिनेत्रियों के लज्जाहीन बाईट इंटरव्यू और फुटेज दिखाने में ये गर्व महसूस करते हैं। मैं जानता हूँ कि किस तरीके से बापू जी के सत्संग के वास्तविक वीडियो और आवाज को काट-छाँटकर प्रसारित किया जाता है। टी.आर.पी. (टेलिविज़न रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने के चक्कर में इन अधर्मियों को यह भी नहीं पता कि ऐसा करके वे भारत की अस्मिता पर प्रहार कर रहे हैं। अरे ये सहनशील हिन्दू संतों के पीछे क्यों पड़े हैं ? और… कट्टरपंथी धर्मों के आचार्यों के खिलाफ एक शब्द भी छापने व दिखाने की हिम्मत इनमें क्यों नहीं है ? क्योंकि उनके बारे में कुछ दिखाया तो वे आग लगा देंगे, काटकर रख देंगे, लेकिन ये हिन्दू संत अपमान सह लेते हैं और इन अधर्मियों का फिर भी बुरा न चाहकर लोककल्याम में लगे हैं।

मैं तो इन चैनलों के मालिकों के साथ ही भारत सरकार से अपील करता हूँ कि वह जाँच कराये कि कहीं भारतीय संस्कृति का उपहास उड़ाने वाले इन चैनलों में आतंकवादी व आई.एस.आई. एजेन्ट तो नहीं घुस गये हैं, जो मीडियारूपी मजबूत हथियार का इस्तेमाल कर भारत को नष्ट-भ्रष्ट करने पर उतारू हैं। इन चैनलों के बड़े पदों पर भी संदिग्ध लोगों का आधिपत्य बढ़ता जा रहा है।

मीडिया में कुछ अच्छे लोग भी हैं जो संस्कृति के रक्षण् में लगे हैं लेकिन कई बार जब रिपोर्टर खबर भेजता है तो वह या तो रोक ली जाती है या फिर ये विधर्मी चैनल उन खबरों को निगेटिव बनाकर प्रसारित करते हैं। पत्रकार न चाहकर भी कई बार अपने आलाओं के लिए नकारात्मक खबरें बनाने को बाध्य हो जाता है।

मैं मीडिया समुदाय से आग्रह करना चाहूँगा कि भारतीय संस्कृति का रक्षक बने, न कि भक्षक ! भारत के अध्यात्म-ज्ञान की आज भारत को ही नहीं पूरे विश्व को जरूरत है, इसलिए बापू जी जैसे महान संतों के वचनों को जन-जन तक पहुँचाकर अपना व विश्व का कल्याण करें।

पूज्य बापू जी के श्रीचरणों में पुनः नमन।

धर्मेन्द्र साहू

टी.वी. पत्रकार, संवाददाता,

सहारा समय न्यूज चैनल।

कबीरा निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।

एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।

संतों की निंदा करके समाज की श्रद्धा तोड़ने वाले लोग कबीर जी के इस वचन से सीख लेकर सँभल जायें तो कितना अच्छा है !

जो अपराध छुड़ायें, रोग मिटायें, राष्ट्रप्रेम में दृढ़ बनायें, सबमें समता-सदभाव बढ़ायें, ऐसे संत पर से श्रद्धा तोड़ना, इसे राष्ट्रद्रोह कहें कि विश्वमानव-द्रोह कहें ? धिक्कार है ऐसे द्वेषपूर्ण रवैयेवालों को !

आर.सी.मिश्र

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 214

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सिद्धान्त प्रेमी सरदार पटेल


(सरदार पटेल जयंतीः 31 अक्तूबर)

महान आत्माओं की महानता उनके जीवन-सिद्धान्तों में होती है। उन्हें अपने सिद्धान्त प्राणों से भी अधिक प्रिय होते है। सामान्य मानव जिनि परिस्थितियों में अपनी निष्ठा से डिग जाता है, महापुरुष ऐसे प्रसंगों में भी अडिग रहते हैं। सत्य ही उनका एकमात्र आश्रय होता है, वे फौलादी संकल्प के धनी होते हैं। उनका अपना पथ होता है, जिससे वे कभी विपथ नहीं होते।

सरदार वल्लभ भाई पटेल जिन्हें देश ‘लौह-पुरूष’ के नाम से भी जानता है, ऐसे ही एक सिद्धान्तनिष्ठ नेता थे। उनके जीवन का यह प्रसंग उनके इसी सदगुण की झाँकी कराता है।

वल्लभ भाई अपने पुत्र-पुत्री को शिक्षा हेतु यूरोप भेजना चाहते थे। इस हेतु रूपये भी कोष में जमा कर दिये गये थे लेकिन ज्यों ही असहयोग आंदोलन की घोषणा की गयी, त्यों ही उन्होंने पूर्वनिर्धारित योजना को ठप्प कर दिया। उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि ‘चाहे जो हो, मैं मन, वचन और कर्म से असहयोग के सिद्धान्तों पर दृढ़ रहूँगा। जिस देश के निवासी हमारी बोटी-बोटी के लिए लालायित हैं, जो हमारे रक्त तर्पण से अपनी प्यास बुझाते हैं, उनकी धरती पर अपनी संतान को ज्ञान प्राप्ति के लिए भेजना अपनी ही आत्मा को कलंकित करना है। भारत माता का आत्मा को दुखाना है।’

उन्होंने सिर्फ सोचा ही नहीं, अपने बच्चों को इंग्लैंड में पढ़ने से साफ मना कर दिया। ऐसी थी उनकी सिद्धान्त-प्रियता। तभी तो थे वे ‘लौह पुरुष’।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 25, अंक 214

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