ज्ञानसंयुक्त कर्म करें

ज्ञानसंयुक्त कर्म करें


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

जीवन में ज्ञान पहले और कर्म बाद में हो। और ज्ञान भी उत्तम ज्ञान… कर्म करने का ज्ञान नहीं, कर्म के परिणाम का ज्ञान। किस कर्म से भगवत्प्रेम, भगवदशांति, भगवन्माधुर्य, स्वतन्त्रता और जीवन रसमय होगा, वह ज्ञान मिले तो आपके कर्म दिव्य कर्म होते हैं।

ज्ञान में तो दो धाराएँ होती हैं। सुख की प्रधानता की तरफ ज्ञान झुकता है तो जानते हुए भी हम चोरी-जारी आदि न करने का करते हैं, न खाने का खाते हैं, न बोलने का बोलते हैं। वह ज्ञान है वासना से आच्छादित ज्ञान। और जब सत्संग, ध्यान भजन करते हैं तो परमात्म ज्ञान से शुद्ध ज्ञान होता है। जैसे रिफाइंड तेल और ऐसा वैसा तेल, फिल्टर प्लांट का पानी और गटर का पानी…. तो फर्क है न ! ऐसे ही शास्त्र के अनुसार जो करणीय है उसको करने में पूरा तन-मन, योग्यता लगा दें और जो अकरणीय है उससे बच लें। रावण कोई कम नहीं था। रावण के पास ऐहिक ज्ञान भी अदभुत था। समुद्र को खारेपन से रहित करने की, मीठा बनाने की उसकी योजना थी। चन्द्रमा को निष्कलंक बनाना था। अग्नि को धुआँरहित बनाने की योजना थी, लकड़ी जलाओ तो धुआँ न हो। ये सारी योजनाएँ थीं किंतु सुख की प्रधानता का तरफ झुकाव हो गया तो वे योजनायें धरी रह गयीं। मंदोदरी पत्नी थी, और नर्तकियाँ, सुंदरियाँ थी फिर भी रावण ने सीता जी का हरण किया। सुख की प्रधानता की तरफ झुके हुए ज्ञान ने रावण को गिरा दिया। शबरी के पास संयम की प्रधानतावाला ज्ञान था। शबरी भीलन…. एक तो छोटी सी जाति, उसमें भी शबर जाति की कुरूप, अबला, घरवालों से, कुटुम्ब से कोई रिश्ता-नाता नहीं। फिर भी मतंग ऋषि का ज्ञान उसने आत्मसात् किया तो उसे अंतर्यामी परमात्म-राम का भी साक्षात्कार हुआ और दशरथनंदन भी उसके जूठे बेर खाते हैं।

तो ज्ञान होता है दो प्रकार का। एक सुख की तरफ ले जाता है और दूसरा सही समझ देता है। जब सही समझ का महत्त्व रखोगे तो सुख में फिसलोगे नहीं। पति-पत्नी हैं, संसार में बच्चे को जन्म देना है, ठीक है परंतु सुखबुद्धि से पति-पत्नी मिलेंगे तो अकारण ऊर्जा का नाश होगा, शरीर कमजोर होंगे। जब सुख के पक्ष में आपकी इन्द्रियाँ जाती हैं, मन जाता है, बुद्धि जाती है तो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति। रावण कोई कम नहीं था पर देखने-सुनने की इन्द्रियों के विषयों में महत्त्वबुद्धि की तो वह नीचे आ गया। शबरी कोई बड़ी महान नहीं थी किंतु गुरु का सान्निध्य था, आवश्यकता पूरी की और बाकी का संयम किया तो रावण को हजार वर्ष की तपस्या से जो नहीं मिला, वह शबरी को हँसते-खेलते मिला। अंतरात्मा-राम का साक्षात्कार और बाहर से दशरथनंदन का साक्षात्कार दोनों हुए।

तो शास्त्रसम्मत जो शुद्ध ज्ञान है, उसका आदर करेंगे तो आपके जीवन में प्रेममय परमात्मा का सामर्थ्य, आनंद प्रकट होगा। जिसके जीवन में परमात्म-प्रेम, परमात्म-आनंद नहीं है, उसको शारीरिक तनाव सुरा सुन्दरी अथवा पान मसाले की तरफ फिसलायेगा और मानसिक तनाव, भावनात्मक तनाव न जाने कितने-कितने विकारों और व्यसनों में उसको नोचता रहेगा।

जो शुद्ध ज्ञान के अनुसार कर्म करता है, उसमें भगवदरस की उत्पत्ति होती है, कर्म करने के रस की भी उत्पत्ति होती है, कर्म करने के रस की भी उत्पत्ति होती है और वह उसी रस से तृप्त रहता है। जो ज्ञान दूसरे को दुःख देकर सुख लेने की तरफ ले जाता है, समझ लेना वह वासनासंयुक्त ज्ञान है और जो ज्ञान कठिनाई सहकर भी अपना और दूसरों को मंगल करने की तरफ आपको कटिबद्ध करता है, वह शुद्ध ज्ञान है। तो ज्ञान पहले और कर्म बाद में।

कर्म हो तो निष्ठाजन्य हो। जड़ता, तमोगुण न हो अथवा आधे में कर्म न छोड़ दें। ज्ञानस्वरूप के प्रकाश में कर्म हों। जैसे शिवाजी महाराज के कर्म को समर्थ रामदासजी की राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। ऐसी आत्मविद्या का सम्पुट मिल गया तो शिवाजी का राजकर्म, राजधर्म भी आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाला हो गया और हिटलर, सिकंदर के पास युद्ध का ज्ञान तो बहुत था परंतु स्वार्थ की प्रधानता थी तो उनको ले डूबा।

तो वासना का महत्त्व समझ के कर्म करते हैं तो वे कर्म हमको ईश्वर से दूर ले जाते हैं परंतु ज्ञान विवेक की प्रधानता से, शास्त्र-प्रधानता कसे ज्ञान का आदर करके कर्म करते हैं तो वे कर्म हमें सत्स्वभाव, चेतनस्वभाव, आनंदस्वभाव प्रकट होने लगता है। जीवन्मुक्त अवस्था में आपकी स्थिति होने लगती है। मरने के बाद मुक्ति नहीं जीते ही परम मुक्ति का अनुभव !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 214

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