संत के अपमान का फल

संत के अपमान का फल


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

सेमिका महर्षि का आज्ञाकारी शिष्य था गौरमुख। मन में सुख आये तो उसको देखे, दुःख आये तो देखे, बीमारी आये तो देखे, तंदुरुस्ती आये तो देखे, – इन सबको जाननेवाला जो परमात्म है वही मेरा आत्मा है और वह सर्वव्यापक है। सदगुरू से ऐसी ऊँची साधना सीखकर गौरमुख एक जंगल में आश्रम बनाकर रहता था।

गौरमुख के शिष्य वेदपाठ करते समय कभी गलती से कोई स्वर गलत उच्चारित कर देते तो चैतन्य परमात्मा पक्षियों के मुख से वेदोच्चारण की गलती ठीक करवा देते, सुधरवा देते थे। उनकी गुरुभक्ति का प्रभाव ऐसा था।

एक दिन क्या हुआ, उस देश का राजा दुर्जय विचरण करता हुआ वहाँ आया। गौरमुख ने देखा कि राजा ने अपने पूरे सैन्यसहित मेरे आश्रम में प्रवेश किया है।

गौरमुख ने कहाः “राजन ! आपका स्वागत है, आपकी सेना और सेनापतियों का भी स्वागत है।” राजा दुर्जय सेनापति सहित महर्षि के विशाल आश्रम में प्रविष्ट हुआ।

अपनी सेना, अंगरक्षकों और दर्जनों बंदूकधारियों को लेकर किसी संत के पास जाना, संत की कुटिया की तरफ घुसना, यह नीच बुद्धि का परिचायक है।

हकीकत में गौरमुख को कहना चाहिए था कि ‘राजन ! आप आये तो अच्छी बात है लेकिन सेना की इस आश्रम में जरूरत नहीं है। सेना आश्रम के बाहर होनी चाहिए थी। खैर आ गयी है तो ठीक है। आप इन्हें आज्ञा कर दीजिये कि बाहर विश्राम करें।’ स्वागत है बोल दिया तो उनके खाने पीने की, रहने की व्यवस्था का जिम्मा सिर पर आ गया। गौरमुख ने सोचा कि “मैंने स्वागत किया है तो अब इनके खाने पीने, रहने की व्यवस्था भी तो मुझे करनी पड़ेगी।”

उसने भगवान विष्णु का चिंतन किया और प्रार्थना की ‘हे प्रभु ! अब क्या करूँ ? दुर्जय राजा सेना सहित आये हैं, उनका स्वागत करना है।’ अपने लिए कुछ न माँगने वाले, निर्दोष गौरमुख की प्रार्थना पर सोऽहं स्वभाव अंतर्यामी परमेश्वर ने उसके आगे प्रकट होकर उसे चिंतन करने मात्र से कार्यसिद्धि प्रदान करने वाली चिंतामणि दी और कहा कि “तुम इसके आगे जो भी चिंतन करोगे, चाहोगे उसकी सब व्यवस्था चिंतामणि कर देगी।

गौरमुख ने चिंतामणि के सामने बैठकर कहाः “हे नारायण की दी हुई प्रसादी ! मेरे आश्रम में इन सेनापतियों के रहने योग्य जगह बन जाय और सेना के योग्य भोजन बन जाय। घोड़ों के लिए दाना, हाथियों के लिए चारा और राजा के लिए उनके अनुरूप निवास व भोजन बन जाये।”

गौरमुख चिंतामणि के आगे चिंतन करते गये और खूब सारी व्यवस्था हो गयी। यह देखकर दुर्जय राजा दंग रह गया। इतनी आवभगत करने वाले मुनि को मस्का मारते हुए राजा ने कहाः “मुनि ! आपने हमें स्वागत-सत्कार से खूब प्रसन्न किया है। आप भी कभी हमारे अतिथि बनिये।”

अब मेहमान बनाकर वह अपना अहंकार दिखाना चाहता था। इन्होंने तो अतिथि समझकर उसका स्वागत किया लेकिन उस अहंकारी राजा की नीयत खराब हो गयी। अगले दिन जब राजा सेना सहित वहाँ से जाने लगा तो मणि की बनायी हुई सभी चीजें गायब हो गयीं। यह सब सम्भव है। ऐसे संतों के बारे में मैंने सुना है। समर्थ रामदासजी और तुकारामजी भी सब प्रकट कर देते थे। भारद्वाज ऋषि ने भी भरत के स्वागत में उनके साथ आयी हुई सारी जनता का यथायोग्य स्वागत करने वाली सामग्री प्रकट कर दी थी। अभी भी ऐसे सिद्धपुरुष हैं, जो अपने शिष्यों के साथ विचरण करते हैं और जहाँ मौज आ गयी वहाँ शिष्यों को कहते हैं, ‘यहाँ लगा लो तम्बू।’ सारी व्यवस्था हो जाती है, सारी चीजें आ जाती हैं और जितने दिन रहना है रहे, फिर गुरु जी बोलते हैं, ‘चलो !’ जब वहाँ से चलते हैं तो सारी सामग्री पंचभूतों में विलय हो जाती हैं। ऐसे महापुरुष से मेरी मुलाकात हुई थी, जिनके लिए स्वयं नर्मदाजी भोजन लेकर आती थीं।

राजा उस मणि की शक्ति को देख आश्चर्यचकित रह गया। दुर्जय की दुर्मति ने मंत्री को आज्ञा दीः “जाओ ! गौरमुख को बोलो कि चिंतामणि हमें दे दे। वह चिंतामणि बड़ी प्रभावशाली है। उस साधु को क्या जरूरत है उसकी !”

हरामी लोग साधु को तो कंगला देखने चाहते हैं और सब चीजें अपने अधीन करना चाहते हैं। भगवान के भक्त और प्यारों को पराधीन रखना चाहते हैं और वे अहंकारी, घमंडी आतंकवादियों से डरते रहते हैं। गौरमुख ने मंत्री को संदेश देकर वापस भेज दिया कि ‘भगवान के द्वारा दिया गया ऐसा उपहार स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं होता। उसका उपयोग केवल समाजहित के लिए ही होना चाहिए।’

संदेश सुनकर राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसने गौरमुख के आश्रम में अपनी सेना भेजकर मणि को बलपूर्वक लाने की आज्ञा दी।

गौरमुख ने देखा कि राजा आतंकी हो रहा है, पोषक शोषक हो रहा है तो उन्होंने भगवान से प्रार्थना कीः ‘हे नारायण ! रक्षमाम्… रक्षमाम्… ! प्रभु जी ! यह क्या हो रहा है ? यह सैन्य अंदर घुस रहा है !… प्रभु ! अपने सैन्य से ठीक करा दो।’

उन्होंने चिंतामणि के आगे अस्त्र-शस्त्रों मे सुसज्जित एक विशाल सेना का चिंतन किया और वह प्रकट हुई, जिससे निमेष भर में दुर्जय का सैन्य धूल चाटता हुआ चला गया। जब दुर्जय और उसके खास मंत्री सैनिकों के साथ गौरमुख के आश्रम पर पहुँचे तब गौरमुख ने भगवान नारायण का पुनः स्मरण किया। ईश्वरीय सत्ता ने मात्र एक निमेष (एक बार पलक झपकने में जितना समय व्यतीत होता है) में सुदर्शन चक्र द्वारा सेनासहित दुर्जय को नष्ट कर डाला।

भगवान बोलेः “महर्षि ! इन वन में सारे दुष्ट एक निमेष में ही नष्ट हो गये हैं इसलिए लोग इसे नैमिषारण्य क्षेत्र के नाम से जानेंगे। इस पुण्यभूमि में ऋषियों, मुनियों का समुचित निवास होगा और सत्संग, ज्ञानचर्चा व ध्यान उपासना होगी।”

तब से उस जगह का नाम नैमिषारण्य पड़ा। यह वही जगह है जहाँ सूत जी ने शौनकादि महामुनियों को श्रीमद भागवत सुनाया।

नैमिषारण्य आज भी हमें संदेश देता है कि जो अपनी शक्ति का अहंकार व योग्यता का दुरूपयोग करके महापुरुषों का अपमान करता है, उसका दैत्यों, मानवों और देवताओं पर भी विजय प्राप्त करने वाले महाप्रतापी राजा दुर्जय की तरह निश्चित ही सर्वनाश होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 16,17, अंक 215

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