Monthly Archives: November 2010

महालक्ष्मी को कैसे बुलायें ?


लक्ष्मी चार प्रकार की होती है। एक होता है वित्त, दूसरा होता है धन, तीसरी होती है लक्ष्मी और चौथी होती है महालक्ष्मी जिस धन से भोग-विलास, आलस्य, दुराचार हो वह पापलक्ष्मी, अलक्ष्मी है। जिस धन से सुख-वैभव भोगा जाय वह वित्त है। जिस धन से सुख-वैभव भोगा जाय वह वित्त है। जिस धन से कुटुम्ब-परिवार को भी सुखी रखा जाय वह लक्ष्मी है और जिस धन से परमात्मा की सेवा हो, परमात्म तत्त्व का प्रचार हो, परमात्म-शांति के गीत दूसरों के दिल में गुँजाये जायें वह महालक्ष्मी है। हम लोग इसीलिए महालक्ष्मी की पूजा करते हैं कि हमारे घर में जो धन आये, वह महालक्ष्मी ही आये। महालक्ष्मी नारायण से मिलाने का काम करेगी। जो नारायण के सहित लक्ष्मी है, वह कुमार्ग में नहीं जाने देती। वह धन कुमार्ग में नहीं ले जायेगा, सन्मार्ग में ले जायेगा। धन में 64 दोष हैं और 16 गुण हैं, ऐसा वसिष्ठजी महाराज बोलते हैं।

सनातन धर्म ऐसा नहीं मानता है कि धनवानों को ईश्वर का द्वार प्राप्त नहीं होता, धनवान ईश्वर को नहीं पा सकते। अपने शास्त्रों के ये दृष्टान्त हैं कि जनक राजा राज्य करते थे, मिथिला नरेश थे और आत्मसाक्षात्कारी थे। भगवान राम जिनके घर में प्रकट हुए, वे दशरथ राजा राज्य करते थे, धनवान थे ही। जो सत्कर्मों में लक्ष्मी को लुटाता है, खुले हाथ पवित्र कार्यों में लगाता है उसकी लक्ष्मी कई पीढ़ियों तक बनी रहती है, जैसे राजा दशरथ, जनक आदि के जीवन में देखा गया। 22 पीढ़ियाँ चली जनक की, 22 जनक हो गये।

दीपावली में लक्ष्मी पूजन की प्रथा देहातों में भी है, शहरों में भी है। इस पर्व में जो व्यक्ति लक्ष्मी और तुलसी का आदर पूजन करेगा, वह धन-धान्य तथा आरोग्य पाकर सुखी रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 8, अंक 215

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जीवन में सत्त्व हो


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

श्रुत्वा सत्त्वं पुराणं सेवया सत्त्वं वस्तुनः।

अनुकृत्या च साधूनां सदवृत्तिः प्रजायते।।

‘जीवन में पुराण आदि सात्त्विक शास्त्रों के श्रवण से, सात्त्विक वस्तु के सेवन से और साधु पुरुषों के अनुसार वर्तन करने से सात्त्विक वृत्ति उत्पन्न होती है।’

आदमी में तामसी और राजसी वृत्ति जब जोर पकड़ती है तो वह खिन्न, अशांत और बीमार होता है, उद्विग्न होता है। सब कुछ होते हुए भी दरिद्र रहता है और जब सत्त्वगुण बढ़ता है तो सब कुछ होते हुए अथवा कुछ न होते हुए भी महा शोभा को पाता है।

सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्।

सत्त्वगुण से ज्ञान में प्रगति होती है।

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः।

आहार शुद्ध होने पर सत्त्वगुण बढ़ता है।

जिह्वा का आहार भोजन है और आँखों का आहार दृश्य है। कानों का आहार शब्द है, नाक का आहार गन्ध है और त्वचा का आहार स्पर्श है। स्पर्श करने की इच्छा है तो ठाकुर जी के चरणों को स्पर्श करें, ठाकुर जी को चढ़ाये हुए पुष्पों को आँखों पर लगायें। देखने की इच्छा है तो प्रभु के रूप को निहारें अथवा जो रूप दिखे उसमें प्रभु की भावना करें। बोलने की इच्छा है तो प्रभु के विषय में बोलें और सुनने की इच्छा है तो प्रभु के विषय में सुनें। पंचदशी में आया हैः तच्चिंतनं… उसी का चिंतन करें। तत्कथनम्। उसी का कथन करें। अन्योन्यं तत्प्रबोधनम्। उसी के विषय में परस्पर विचार-विमर्श करें। ऐसा करने वाले को जल्दी से जल्दी परमात्म-साक्षात्कार हो जाता है। उसका बेड़ा पार हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 23 अंक 215

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जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाती है ‘गीता’


(श्रीमदभगवदगीता जयंतीः 17 दिसम्बर 2010)

(पूज्य बापू जी की सारगर्भित अमृतवाणी)

‘यह मेरा हृदय है’ – ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा तो वह गीता का ग्रंथ है। गीता में हृदयं पार्थ। ‘गीता मेरा हृदय है।’ अन्य किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने यह नहीं कहा है कि ‘यह मेरा हृदय है।’

भगवान आदिनारायण की नाभि से हाथों में वेद धारण किये ब्रह्माजी प्रकटे, ऐसी पौराणिक कथाएँ आपने-हमने सुनी, कही हैं। लेकिन नाभि की अपेक्षा हदय व्यक्ति के और भी निकट होता है। भगवान ने ब्रह्माजी को तो प्रकट किया नाभि से लेकिन गीता के लिए कहते हैं।

गीता में हृदयं पार्थ। ‘गीता मेरा हृदय है।’

परम्परा तो यह है कि यज्ञशाला में, मंदिर में, धर्मस्थान पर धर्म-कर्म की प्राप्ति होती है लेकिन गीता ने गजब कर दिया – धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे… युद्ध के मैदान को धर्मक्षेत्र बना दिया। पद्धति तो यह थी कि एकांत अरण्य में, गिरि-गुफा में धारणा, समाधि करने पर योग प्रकट हो लेकिन युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया। परम्परा तो यह है कि शिष्य नीचे बैठे और गुरू ऊपर बैठे। शिष्य शांत हो और गुरू अपने-आप में तृप्त हो तब तत्त्वज्ञान होता है लेकिन गीता ने कमाल कर दिया है। हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ता से आक्रान्त मतिवाला अर्जुन ऊपर बैठा है और गीताकार भगवान नीचे बैठे हैं। अर्जुन रथी है और गीताकार सारथी हैं। कितनी करूणा छलकी होगी उस ईश्वर को, उस नारायण को अपने सखा अर्जुन व मानव-जाति के लिए ! केवल घोड़ागाड़ी ही चलाने को तैयार नहीं अपितु आज्ञा मानने को भी तैयार ! नर कहता है कि ‘दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को ले चलो।’ रथ को चलाकर दोनों सेनाओं के बीच लाया है। कौन ? नारायण। नर का सेवक बनकर नारायण रथ चला रहा है और उसी नारायण ने अपने वचनों में कहाः

गीता में हृदयं पार्थ।

पौराणिक कथाओं में मैंने पढ़ा है, संतों के मुख से मैंने सुना है, भगवान कहते हैं- “मुझे वैकुण्ठ इतना प्रिय नहीं, मुझे लक्ष्मी इतनी प्रिय नहीं, जितना मेरी गीता का ज्ञान कहने वाला मुझे प्यारा लगता है।” कैसा होगा उस गीताकार का गीता के प्रति प्रेम !

गीता पढ़कर 1985-86 में गीताकार की भूमि को प्रणाम करने के लिए कनाडा के प्रधानमंत्री मि. पीअर टुडो भारत आये थे। जीवन की शाम हो जाये और देह को दफनाया जाये उससे पहले अज्ञानता को दफनाने के लिए उन्होंने अपने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और एकांत में चले गये। वे अपने शारीरिक पोषण के लिए एक दुधारू गाय और आध्यात्मिक पोषण के लिए उपनिषद् और गीता साथ में ले गये। टुडो ने कहा हैः “मैंने बाइबल पढ़ी, एंजिल पढ़ी और अन्य धर्मग्रन्थ पढ़े। सब ग्रंथ अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं किंतु हिन्दुओं का यह श्रीमद भगवदगीता ग्रंथ तो अदभुत है। इसमें किसी मत-मजहब, पंथ या सम्प्रदाय की निंदा स्तुति नहीं है वरन् इसमें तो मनुष्य मात्र के विकास की बाते हैं। गीता मात्र हिन्दुओं का ही धर्मग्रन्थ नहीं है, बल्कि मानवमात्र का धर्मग्रन्थ है।”

गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं कि अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कही। और उन्नति कैसी ? एकांगी नहीं, द्विअंगी नहीं, त्रिअंगी नहीं सर्वांगीण उन्नति। कुटुम्ब का बड़ा जब पूरे कुटुम्ब की भलाई का सोचता है तब ही उसके बड़प्पन की शोभा है। और कुटुम्ब का बड़ा तो राग-द्वेष का शिकार हो सकता है लेकिन भगवान में राग-द्वेष कहाँ ! विश्व का बड़ा पूरे विश्व की भलाई सोचता है और ऐसा सोचकर वह जो बोलता है वही गीता का ग्रंथ बनता है।

पर कैसा है यह ग्रंथ ! थोड़े ही शब्दों में बहुत सारा ज्ञान बता दिया और युद्ध के मैदान में भी किसी विषय को अछूता ने छोड़ा। है तो लड़ाई का माहौल और तंदरूस्ती की बात भी नहीं भूले !

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

‘दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।’

(गीताः 6.17)

केवल शरीर का स्वास्थ्य नहीं, मन का स्वास्थ्य भी कहा है।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।

सुखद स्थिति आ जाये चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों। दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है। दृष्टि दिव्य बन जाये, फिर आपके सभी कार्य दिव्य हो जायेंगे। छोटे से छोटे व्यक्ति को अगर सही ज्ञान मिल गया और उसने स्वीकार कर लिया तो वह महान बन के ही रहेगा। और महान से महान दिखता हुआ व्यक्ति भी अगर गीता के ज्ञान के विपरीत चलता है तो देखते देखते उसकी तुच्छता दिखाई देने लगेगी। रावण और कंस ऊँचाइयों को तो प्राप्त थे लेकिन दृष्टिकोण नीचा था तो अति नीचता में जा गिरे। शुकदेव जी, विश्वामित्र जी साधारण झोंपड़े में रहते हैं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं लेकिन दृष्टिकोण ऊँचा था तो राम लखन दोनों भाई विश्वामित्र की पगचम्पी करते हैं।

गुरु तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।

(श्री रामचरित. बा.कां. 226)

विश्वामित्रजी जगें उसके पहले जगपति जागते हैं क्योंकि विश्वामित्रजी के पास उच्च विचार है, उच्च दृष्टिकोण है। ऊँची दृष्टि का जितना आदर किया जाय उतना कम है। और ऊँची दृष्टि मिलती कहाँ से है ? गीता जैसे ऊँचे सदग्रंथों से, सतशास्त्रों से और जिन्होंने ऊँचा जीवन जिया है, ऐसे महापुरुषों से। बड़े-बड़े दार्शनिकों के दर्शनशास्त्र हम पढ़ते हैं, हमारी बुद्धि पर उनका थोड़ा सा असर होता है लेकिन वह लम्बा समय नहीं टिकता। लेकिन जो आत्मनिष्ठ धर्माचार्य हैं, उनका जीवन ही ऐसा ऊँचा होता है कि उनकी हाजिरीमात्र से लाखों लोगों का जीवन बदल जाता है। वे धर्माचार्य चले जाते हैं तब भी उनके उपदेश से धर्मग्रन्थ बनता है और लोग पढ़ते-पढ़ते आचरण में लाकर धर्मात्मा होते चले जाते हैं।

मनुष्यमात्र अपने जीवन की शक्ति का एकाध हिस्सा खानपान, रहन-सहन में लगाता है और दो तिहाई अपने इर्द गिर्द के माहौल पर प्रभाव डालने की कोशिश में ही खर्च करता है। चाहे चपरासी हो चाहे कलर्क हो, चाहे तहसीलदार हो चाहे मंत्री हो, प्रधानमंत्री हो, चाहे बहू हो चाहे सास हो, चाहे सेल्समैन हो चाहे ग्राहक हो, सब यही कर रहे हैं। फिर भी आम आदमी का प्रभाव वही जल में पैदा हुए बुलबुले की तरह बनता रहता है और मिटता रहता है। लेकिन जिन्होंने स्थायी तत्त्व में विश्रांति पायी है, उन आचार्यों का, उन ब्रह्मज्ञानियों का, उन कृष्ण का प्रभाव अब भी चमकता-दमकता दिखाई दे रहा है।

ख्वाजा दिल मुहम्मद ने लिखाः “रूहानी गुलों से बना यह गुलदस्ता हजारों वर्ष बीत जाने पर भी दिन दूना और रात चौगुना महकता जा रहा है। यह गुलदस्ता जिसके हाथ में भी गया, उसका जीवन महक उठा। ऐसे गीतारूपी गुलदस्ते को मेरा प्रणाम है। सात सौ श्लोकरूपी फूलों से सुवासित यह गुलदस्ता करोड़ों लोगों के हाथ गया, फिर भी मुरझाया नहीं।”

कनाडा के प्रधानमंत्री टुडो एवं ख्वाजा-दिल-मुहम्मद ही इसकी प्रशंसा करते हैं ऐसी बात नहीं, कट्टर मुसलमान की बच्ची और अकबर की रानी ताज भी इस गीताकार के गीत गाय बिना नहीं रहती।

सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम।

दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूँगी मैं।।

देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूँ भुलानी।

तजे कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी मैं।।

साँवला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिये।

तेरे नेह दाग में, निदाग हो रहूँगी मैं।।

नन्द के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै।

हूँ तो मुगलानी, हिन्दुआनी ह्वै रहूँगी मैं।।

अकबर की रानी ताज अकबर को लेकर आगरा से वृंदावन आयी। कृष्ण के मंदिर में आठ दिन तक कीर्तन करते-करते जब आखिरी घड़ियाँ आयीं, तब ‘हे कृष्ण ! मैं तेरी हूँ, तू मेरा है…’ कहकर उसने सदा के लिए माथा टेका और कृष्ण के चरणों में समा गयी। अकबर बोलता हैः “जो चीज जिसकी थी, उसने उसको पा लिया। हम रह गये….”

इतना ही नहीं महात्मा थोरो भी गीता के ज्ञान से प्रभावित हो के अपना सब कुछ छोड़कर अरण्यवास करते हुए एकांत में कुटिया में बनाकर जीवन्मुक्ति का आनन्द लेते थे। उनके शिष्य आकर देखते कि उनके गुरू के आसपास कहीं साँप घूमते हैं तो कहीं बिच्छू, फिर भी उन्हें कुछ भय नहीं, चिंता नहीं, शोक नहीं ! एक शिष्य ने आते ही प्रार्थना की कि “गुरूवर ! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपको सुरक्षित जगह पर ले जाऊँ।”

जिनका साहित्य गांधी जी भी आदर से पढ़ते थे, ऐसे महात्मा थोरो हँस पड़े। बोलेः “मेरे पास गीता का अदभुत ग्रंथ होने से मैं पूर्ण सुरक्षित हूँ और सर्वत्र आत्मदृष्टि से निहारता हूँ। मैंने आत्मनिष्ठा पा ली है, जिससे सर्प मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गीता के ज्ञान की ऐसी महिमा है कि मैं निर्भीक बन गया हूँ। वे मुझसे निश्चिंत है और मैं उनसे निश्चिंत हूँ।”

जीवन का दृष्टोकोण उन्नत बनाने की कला सिखाती है गीता ! युद्ध में जैसे घोर कर्मों में भी निर्लप रहना सिखाती है गीता ! कर्तव्यबुद्धि से ईश्वर की पूजारूप कर्म करना सिखाती है गीता ! मरने के बाद नहीं, जीते जी मुक्ति का स्वाद दिलाती है गीता !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 215

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