शक्ति का मूल – ब्रह्मचर्य – चक्रवर्ती राजगोपालाचारी

शक्ति का मूल – ब्रह्मचर्य – चक्रवर्ती राजगोपालाचारी


शक्तिशाली कहलाने वाले कुछ राष्ट्रों की शक्ति कसौटी के मौके पर वीर्यहीन साबित होती है। उन देशों की संस्कृति की यह एक शोकांति का ही मानी जायेगी। इसका मूल कारण क्या है ?

युद्ध में मनुष्य के साहस का जितना महत्त्व है, उतना शस्त्रों के ढेर का नहीं है। ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्मशक्ति को पोषण मिलता है। व्यक्तियों का जीवन जब केवल काम-वासना के, सम्पत्ति जुटाने के या दोनों के चिंतन में व्यतीत होता है, तब ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त पर प्रहार होता है। जब ब्रह्मचर्य की उपेक्षा की जाती है, तब मनुष्य की आत्मशक्ति क्षीण होती है और उसकी सत्ता और सम्पत्ति शक्तिहीन बनती है। कारण कुछ भी हो – चाहे अश्लील साहित्य हो, चलचित्र हों या और कुछ, जिम्मेदार कोई भी हो – कलाकार हो या इन सब कामों का नेता, प्रकृति तो अपना काम करती है। जब राष्ट्र के युवक युवतियाँ ब्रह्मचर्य को छोड़ देते हैं और अपने को काम वासना में खो देते हैं, शिक्षा को सम्पत्ति व काम-वासना के पीछे अपनी बुद्धिमत्ता और ओजस्विता को लुटा देते हैं, तब राष्ट्र अस्त्र-शस्त्रों से कितना भी सुसज्जित हो पर अपना प्रभाव कायम नहीं रख सकता। उसके सारे क्रियाकलाप भ्रांतिमात्र साबित होते हैं। मजबूत आधार के बिना बनाया हुआ किला बालू का किला साबित होता है।

यह समस्या सभी राष्ट्रों के सामने है। लोगों की आत्मशक्ति पुनरूज्जीवित करनी होगी। अन्यथा कितनी भी शस्त्र-सामग्री उधार ली जाय या कर्जा लेकर खड़े किये गये कारखानों के द्वारा तैयार की जाय, सब बेकार साबित होगी। मनुष्य के आत्मबल की जरूरत केवल धर्मयुद्ध में नहीं बल्कि सभी प्रकार के न्यायोचित शौर्य में भी है। सम्पत्ति और सत्ता की नहीं, ब्रह्मचर्य और उससे विकसित मनोबल की विजय होती है।

ब्रह्मचर्य को छोड़ना यानी मानव-सभ्यता से पशु जीवन की ओर मुड़ना। संयम के पालन से मस्तिष्क और हृदय शक्तिशाली बनते हैं। विषय-सेवन से बौद्धिक शक्ति और आत्मशक्ति नष्ट हो जाती।

केवल दैहिक भोग का संयम पर्याप्त नहीं है। जब मन में भोग का चिंतन चलता है, जब वासना की आग अंदर से जलाती है, तब चित्तशक्ति क्षीण होती जाती है। विषय-सेवन और वासना का त्याग यानी ब्रह्मचर्य।

इसके लिए ‘गीता’ उपाय सुझाती हैः

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते।।

‘इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है।’ (गीताः 2.59)

इसी प्रकार तमिल ग्रंथ तिरूक्कुरल में लिखा हैः ‘बहुतेरी आसक्तियों से बचने के लिए उस एक पुरुषोत्तम की आसक्ति का आलम्बन करो।’

शास्त्रों के सिद्धान्तों को अमल में लाने के लिए हम जागृत हो जायें और संतपुरुषों के अनुग्रह के लिए प्रार्थना करें, ताकि हमें पर्याप्त बल मिले।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 12, अंक 217

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