Monthly Archives: January 2011

ओजवान-तेजवान बनने का प्रयोग


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

जितने तुलसी के बीज हों उससे साढ़े तीन गुना गुड़ ले लो। मान लो सौ ग्राम तुलसी के बीज हैं तो साढ़े तीन सौ ग्राम गुड़ ले लो।

तुलसी के बीजों को मिक्सी में पीस लो और फिर उस पाउडर में गुड़ की चाशनी मिलाकर मटर के दानों के बराबर गोलियाँ बना लो। बड़े लोगों के लिए बड़ी गोली, छोटे बच्चों के लिए छोटी गोली। 2-2 गोली सुबह शाम लेने वाले विद्यार्थी की यादशक्ति तो बढ़ेगी साथ ही साथ वह वीर्यवान, ओजवान, तेजवान एवं बुद्धिमान बनेगा। डरपोक में भी बल आ जायेगा। इसके प्रयोग से कई बीमारीयाँ भाग जाती हैं, जैसे पानी पड़ना, स्वप्नदोष, कमजोरी, चमड़ी के रोग. पेट की खराबियाँ, गैस एसिडिटी, घुटनों के दर्द, ट्यूमर, कैंसर आदि। इससे बहुत फायदा होता है। तुलसी में 800 बीमारियों को दूर करने की शक्ति है, उसके बीज तो और भी शक्तिशाली होते हैं।

शास्त्रों में यहाँ तक लिखा है कि ये गोलियाँ यदि कोई नपुंसकता से ग्रस्त व्यक्ति भी खाये तो उसमें भी मर्दानगी आ जायेगी, तो पुरुषों और महिलाओं की तो बात ही क्या ! तुलसी के बीज सभी के लिए लाभप्रद हैं। गर्मियों में यह प्रयोग बंद कर देना या कम कर देना। ये गोलियाँ पानी से भी ले सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 28, अंक 217

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गैस मिटाये ताकत लायेः काजू

अगर पेट में गैस बनती हो तो काजू को तल दो और उसमें काली मिर्च तथा नमक मिलाकर रख दो। 2-4 काजू चबाकर खाने से गैस की तकलीफ में आराम मिलेगा।

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भूषणानां भूषणं क्षमा


एक साधक ने अपने दामाद को तीन लाख रूपये व्यापार के लिये दिये। उसका व्यापार बहुत अच्छा जम गया लेकिन उसने रूपये ससुरजी को नहीं लौटाये। आखिर दोनों में झगड़ा हो गया। झगड़ा इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों का एक दूसरे के यहाँ आना जाना बिल्कुल बंद हो गया। घृणा व द्वेष का आंतरिक संबंध अत्यंत गहरा हो गया। साधक हर समय हर संबंधी के सामने अपने दामाद की निंदा, निरादर व आलोचना करने लगे। उनकी साधना लड़खड़ाने लगी। भजन पूजन के समय भी उन्हें दामाद का चिंतन होने लगा। मानसिक व्यथा का प्रभाव तन पर भी पड़ने लगा। बेचैनी बढ़ गयी। समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर वे एक संत के पास गये और अपनी व्यथा कह सुनायी।

संत श्री ने कहाः ‘बेटा ! तू चिंता मत कर। ईश्वरकृपा से सब ठीक हो जायेगा। तुम कुछ फल व मिठाइयाँ लेकर दामाद के यहाँ जाना और मिलते ही उससे केवल इतना कहना, बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा कर दो।’

साधक ने कहाः “महाराज ! मैंने ही उसकी मदद की है और क्षमा भी मैं ही माँगू !”

संत श्री ने उत्तर दियाः “परिवार में ऐसा कोई भी संघर्ष नहीं हो सकता, जिसमें दोनों पक्षों की गलती न हो। चाहे एक पक्ष की भूल एक प्रतिशत हो दूसरे पक्ष की निन्यानवे प्रतिशत, पर भूल दोनों तरफ से होगी।”

साधक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने कहाः “महाराज ! मुझसे क्या भूल हुई ?”

“बेटा ! तुमने मन ही मन अपने दामाद को बुरा सामाझ – यह है तुम्हारी भूल। तुमने उसकी निंदा, आलोचना व तिरस्कार किया – यह है तुम्हारी दूसरी भूल। क्रोध पूर्ण आँखों से उसके दोषों को देखा – यह है तुम्हारी तीसरी भूल। अपने कानों से उसकी निंदा सुनी – यह है तुम्हारी चौथी भूल। तुम्हारे हृदय में दामाद के प्रति क्रोध व घृणा है – यह है तुम्हारी आखिरी भूल। अपनी इन भूलों से तुमने अपने दामाद को दुःख दिया है। तुम्हारा दिया दुःख ही कई गुना हो तुम्हारे पास लौटा है। जाओ, अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगो। नहीं तो तुम न चैन से जी सकोगे, न चैन से मर सकोगे। क्षमा माँगना बहुत बड़ी साधना है।”

साधक की आँखें खुल गयीं। संत श्री को प्रणाम करके वे दामाद के घर पहुँचे। सब लोग भोजन की तैयारी में थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उनके दोहते ने खोला। सामने नाना जी को देखकर वह अवाक् सा रह गया और खुशी से झूमकर जोर जोर से चिल्लाने लगाः “मम्मी ! पापा !! देखो तो नाना जी आये हैं, नाना जी आये हैं….।”

माता पिता ने दरवाजे की तरफ देखा। सोचा, ‘कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे !’ बेटी हर्ष से पुलकित हो उठी, ‘अहा ! पन्द्रह वर्ष के बाद आज पिता जी आये हैं।’ प्रेम से गला रूँध गया, कुछ बोल न सकी। साधक ने फल व मिठाइयाँ टेबल पर रखीं और दोनों हाथ जोड़कर दामाद को कहाः “बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा करो।”

“क्षमा” शब्द निकलते ही उनके हृदय का प्रेम अश्रु बनकर बहने लगा। दामाद उनके चरणों में गिर गये और अपनी भूल के लिए रो-रोकर क्षमा याचना करने लगे। ससुरजी के प्रेमाश्रु दामाद की पीठ पर और दामाद के पश्चाताप व प्रेममिश्रित अश्रु ससुरजी के चरणों में गिरने लगे। पिता पुत्री से और पुत्री अपने वृद्ध पिता से क्षमा माँगने लगी। क्षमा व प्रेम का अथाह सागर फूट पड़ा। सब शांत, चुप ! सबकी आँखों सके अविरल अश्रुधारा बहने लगी। दामाद उठे और रूपये लाकर ससुर जी के सामने रख दिये। ससुरजी कहने लगेः “बेटा ! आज मैं इन कौड़ियों को लेने के लिए नहीं आया हूँ। मैं अपनी भूल मिटाने, अपनी साधना को सजीव बनाने और द्वेष का नाश करके प्रेम की गंगा बहाने आया हूँ। मेरा आना सफल हो गया, मेरा दुःख मिट गया। अब मुझे आनंद का एहसास हो रहा है।”

दामाद ने कहाः “पिताजी ! जब तक आप ये रूपये नहीं लेंगे तब तक मेरे हृदय की तपन नहीं मिटेगी। कृपा करके आप ये रूपये ले लें।”

साधक ने दामाद से रूपये लिये और अपनी इच्छानुसार बेटी व नातियों में  बाँट दिये। सब कार में बैठे, घर पहुँचे। पन्द्रह वर्ष बाद उस अर्धरात्रि में जब माँ-बेटी, भाई-बहन, ननद-भाभी व बालकों का मिलन हुआ तो ऐसा लग रहा था कि मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये वहाँ पहुँच गया हो। सारा परिवार प्रेम के अथाह सागर में मस्त हो रहा था। क्षमा माँगने के बाद उस साधक के दुःख, चिंता, तनाव, भय, निराशारूपी मानसिक रोग जड़ से ही मिट गये और साधना सजीव हो उठी।

क्षमा वीरों का भूषण है, साधकों की उच्चतम साधना है। अपनी भूल के लिए क्षमा माँग लेना और भूल करने वाले को क्षमा कर देना मानव का सुंदरतम आभूषण है। क्षमा अपने व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन को सरसतम बनाने की अनुपम विद्या है।

नरस्य भूषणं रूपं रूपस्य भूषणं गुणम्।

गुणस्य भूषणं ज्ञानं ज्ञानस्य भूषणं क्षमा।।

किसी के पास प्रकृतिप्रदत्त सुंदर रूप हो तो लौकिक दृष्टि से एक गुण माना जा सकता है। सुंदर रूप तो हो पर सदगुणविहीन हो तो ऐसा रूप भी किस काम का ! अतः रूप की शोभा गुणों से है। उत्तम गुणों से सम्पन्न होने पर भी यदि ज्ञान न हो तो व्यक्ति के सारे दुःख नहीं मिटेंगे।

यहाँ ज्ञान का तात्पर्य लौकिक ज्ञान से नहीं बल्कि आध्यात्मिक ज्ञान से है। यह भगवद्ज्ञान ही समस्त सदगुणों का धाम है और इसका आभूषण है ‘क्षमा’। जैसे वृक्ष फलयुक्त होकर झुक जाते हैं, वैसे ही ज्ञान से व्यक्ति क्षमाशील व नम्र हो जाता है। लौकिक ज्ञान तो स्कूल कालेजों में मिल जाता है पर भगवद्ज्ञान तो संतों के संग से ही मिलता है। वासुदेवः सर्वम्…. की सुंदर सीख तो संतों के पावन सान्निध्य से ही मिलती है। व्यक्ति के जीवन में यदि इस प्रकार के आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वय न हो तो उसके सारे सदगुण उसके अहंकार को पुष्ट करके उसे पतन की खाई में धकेल देते हैं। यह अध्यात्म-ज्ञान जब जीवन में आता है तब क्षमाशीलता बुलानी नहीं पड़ती, स्वतः आ जाती है। क्षमा तो आभूषणों का भी आभूषण है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 22, अंक 217

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भगवान की प्रीति पाने का मासः माघ मास


(माघ मास व्रतः 19 जनवरी से 18 फरवरी)

‘पद्म पुराण’ के उत्तर खण्ड में माघ मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्रत, दान व तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी माघ मास में ब्राह्ममुहूर्त में उठकर स्नानमात्र से होती है।

व्रतैर्दानस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरिः।

माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशवः।।

अतः सभी पापों से मुक्ति व भगवान की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ-स्नान व्रत करना चाहिए। इसका प्रारम्भ पौष की पूर्णिमा से होता है।

माघ मास की ऐसी विशेषता है कि इसमें जहाँ कहीं भी जल हो, वह गंगाजल के समान होता है। इस मास की प्रत्येक तिथि पर्व हैं। कदाचित् अशक्तावस्था में पूरे मास का नियम न ले सकें तो शास्त्रों ने यह भी व्यवस्था की है तीन दिन अथवा एक दिन अवश्य माघ-स्नान व्रत का पालन करें। इस मास में स्नान, दान, उपवास और भगवत्पूजा अत्यन्त फलदायी है।

माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी ‘षटतिला एकादशी’ के नाम से जानी जाती है। इस दिन (29 जनवरी) काले तिल तथा काली गाय के दान का भी बड़ा माहात्म्य है। तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल से हवन, तिलमिश्रित जल का पान व तर्पण, तिलमिश्रित भोजन, तिल का दान – ये छः कर्म पाप का नाश करने वाले हैं।

माघ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या ‘मौनी अमावस्या’ के रूप में प्रसिद्ध है। इस पवित्र तिथि पर (2 फरवरी) मौन रहकर अथवा मुनियों के समान आचरणपूर्वक स्नान दान करने का विशेष महत्त्व है। अमावस्या के दिन सोमवार का योग होने पर उस दिन देवताओं को भी दुर्लभ हो ऐसा पुण्यकाल होता है, क्योंकि गंगा, पुष्कर एवं दिव्य अंतरिक्ष और भूमि के जो सब तीर्थ हैं, वे ‘सोमवती (दर्श) अमावस्या’ के दिन के जप, ध्यान, पूजन करने पर विशेष धर्मलाभ प्रदान करते हैं।

मंगलवारी चतुर्थी, रविवारी सप्तमी, बुधवारी अष्टमी (12 व 26 जनवरी), सोमवती अमावस्या (3 जनवरी) – ये चार तिथियाँ सूर्यग्रहण के बराबर कही गयी हैं। इनमें किया गया स्नान, दान व श्राद्ध अक्षय होता है।

माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् ‘वसंत पंचमी’ को माँ सरस्वती का आविर्भाव-दिवस माना जाता है। इस दिन (8 फरवरी) प्रातः सरस्वती-पूजन करना चाहिए। पुस्तक और लेखनी (कलम) में भी देवी सरस्वती का निवास स्थान माना जाता है, अतः उनकी भी पूजा की जाती है।

शुक्ल पक्ष की सप्तमी को ‘अचला सप्तमी’ कहते हैं। षष्ठी के दिन एक बार भोजन करके सप्तमी (10 फऱवरी) को सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से पापनाश, रूप, सुख-सौभाग्य और सदगति प्राप्त होती है।

ऐसे तो माघ की प्रत्येक तिथि पुण्यपर्व है, तथापि उनमें भी माघी पूर्णिमा का धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। इस दिन (18 फरवरी) स्नानादि से निवृत्त होकर भगवत्पूजन, श्राद्ध तथा दान करने का विशेष फल है। जो इस दिन भगवान शिव की विधिपूर्वक पूजा करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर भगवान विष्णु के लोक में प्रतिष्ठित होता है।

माघी पूर्णिमा के दिन तिल, सूती कपड़े, कम्बल, रत्न, पगड़ी, जूते आदि का अपने वैभव के अनुसार दान करके मनुष्य स्वर्गलोक में सुखी होता है। ‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार इस दिन जो व्यक्ति ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ का दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 15, 23 अंक 217

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