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आठ गुणों का विकास, जीवन में लाये ज्ञान-प्रकाश


(पूज्य बापू जी की बोधमयी अमृतवाणी)

अगर आपको अपना व्यक्तित्व निखारना है, अपना प्रभाव विकसित करना है तो जीवन में आठ सदगुण ले आईये। ये आठ सदगुण और नौवीं आरोग्यप्रद ‘स्थलबस्ति’ आपके प्रभाव में चार चाँद लगायेंगे। कितना भी साधारण आदमी हो, तुच्छ हो तो भी वह बड़ा प्रभावशाली हो जायेगा।

कला प्रभावोत्पादक मानवीय व्यवहारः पशु जैसा व्यवहार नहीं, कूड़ कपट, बेईमानी नहीं, मानी जैसा व्यवहार नहीं, मनुष्य को शोभा दे ऐसा व्यवहार करें। कर्मों की गति गहन है, इसलिए ऐसे कर्म करो जिससे भगवान की प्रीति जगे। ऐसा चिंतन करो कि अपना आत्मा परमात्मा, जो अपने साथ, अपने पास है, उसको जानने की ललक जगे।

दूसरों के महत्त्व को भी स्वीकार करें। दूसरों के अंदर भी गुण है। अपने द्वारा उनका विकास हो तो अच्छा है, नहीं तो उनका अंदर से मंगल चाहें। डाँटें तो भी मंगल की भावना से।

आनंदित रहें, प्रसन्न रहें, मित्र भावना से सम्पन्न रहें। आनन्दित और प्रसन्न रहने के लिए बैठे-बैठे या लेटे-लेटे दोनों नथुनों से खूब श्वास लें, पेट भर लें, फिर ‘अशांति, खिन्नता और रोग के कण बाहर निकल रहे हैं।’ ऐसी भावना करते हुए मुँह से छोड़ें। इससे निरोगता भी बढ़ेगी और प्रसन्नता भी बढ़ेगी। रोज सुबह 10 से 12 बार ऐसा करें।

आत्मसंयमः जो नहीं खाना चाहिए, जो नहीं करना चाहिए, बस उससे अपने को बचायें तो जो करना चाहिए वह अपने-आप होने लगेगा।

अपना उद्देश्य निश्चित करें कि मुझे अपने आत्मा-परमात्मा को पाना हैः जिसको पाना सहज है, अभागा मन, अभागी बुद्धि तू उधर क्यों नहीं चलती ! जिसको पाये बिना दुर्भाग्य का अंत नहीं होता और जिसको पाने से कोई कमी नहीं रहती, तू उसको पा ले न !’ – ऐसा अपने मन को समझायें।

‘यह बना लिया, वह बना लिया….’ जैसे हाथी दलदल में एक बार चला गया तो ज्यों निकलने की कोशिश करता है, त्यों फँसता जाता है। वैसे ही ‘जरा यह कर लूँ… जरा वह कर लूँ…. जरा मिल्कियत इकट्ठी कर लूँ… जरा यह ठीक कर लूँ…..’ ऐसा करते-करते जीव संसार की दलदल में और फंसता जाता है।

अपने को बेठीक करके तेरा क्या ठीक हुआ ? मृत्यु का एक झटका आयेगा तो सब बेठीक हो जायेगा। मरने वाले अपने शरीर को कितना भी ठीक करोगे, मौत सब मिट्टी में मिला देगी। मौत सब मिट्टी में मिला के बेठीक करे इसके पहले जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस अपने अमर स्वभाव को नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा…. कर लो न, अमर स्वभाव की स्मृति, अनुभव कर लो, फिर शोक नहीं रहेगा, दुःख नहीं रहेगा, मोह नहीं रहेगा, भय नहीं रहेगा, चिंता नहीं रहेगी। आप आनंदित-आह्लादित, मधुमय होंगे, परम सुख में रहेंगे और अपनी दृष्टि और वचन से दूसरों का भी सच्चा सर्वांगीण विकास करने में सक्षम होते जायेंगे। ऐसा आत्मसुख, आत्मलाभ, आत्मज्ञान पा लो भैया ! ‘जो छोड़ के मरना है उसके पीछे कब तक मरता रहेगा और जो कभी नहीं मरता उसका अभाव कब तक मानेगा, उसका अनादर कब तक करेगा ?’ – अपनि मन को ऐसे समझायें तो पतनोन्मुखी विचार दूर हो जायेंगे। जहाँ आपको पहुँचना है उसी प्रकार के विचार करें।

दूसरों के लिए हित की भावना और अपने लिए मितव्ययः अपने लिए ज्यादा ऐश नहीं। अपने लिए ज्यादा खर्च न करें और लोगों के हित का व्यवहार करें। हित, मित और प्रिय वाणी आपके हृदय को उन्नत बना देगी।

संतुलित मनोरंजनः मनोरंजन हो, विनोद हो लेकिन वह भी संतुलित हो, नियंत्रित हो। मनोरंजन की सीमा हो।

आत्मसाक्षात्कार के लिए अमिट उत्साहः जब तक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब तक आत्मा परमात्मा को पाने का उत्साह बना रहे। ‘अभी क्यों नहीं हो रहा है ? कैसे पाऊँ प्रभु को ?’ इस तरह उत्साह से लगे रहें।

ये आठ सदगुण अपने हृदय में भर लें तो आपका प्रभाव खूब ही हो जायेगा। जिसके जीवन में ये सदगुण आ गये वह तो धन्य हो गया, उसका कुटुम्ब भी धन्य हो गया और उससे मिलने वाले भी धनभागी हो जाते हैं। राजे महाराजे आपके आगे मत्था टेककर अपना भाग्य बना लेंगे, ऐसी शक्ति आपके अंदर पड़ी है। आप चले जायेंगे फिर भी खूब लोग आपके नाम की मनौतियाँ मानेंगे, जैसे – नानकजी, लीलाशाह बापू जी आदि संतों को नाम की मनौतियाँ मानते हैं। ये आठ सदगुण आ गये तो आपको तो ईश्वर मिल जायेंगे, साथ ही आपके पदचिह्नों पर हजारों लाखों लोग चलेंगे। और इन सब सदगुणों को साकार करने में स्थलबस्ति, जो आपको दीक्षा के समय सिखायी जाती है, वह चार चाँद लगायेगी और आसान कर देगी। आरोग्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व में, निर्विकारता में और ईश्वरप्राप्ति में बेजोड़ सहयोग कर देगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 28, अंक 217

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