Monthly Archives: March 2011

थोड़ा रुको, बुद्धि से विचारो !


भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज

ब्रह्मचारी इन्सान शेर जैसे हिंसक जानवर को भी कान से पकड़ लेते हैं। वीर्य की शक्ति द्वारा ही परशुरामजी ने कई बार क्षत्रियों का नाश किया था, ब्रह्मचर्य के बल पर ही हनुमानजी ने लंका पार करके माता सीता की जानकारी प्राप्त की थी। इस ब्रह्मचर्य के बल द्वारा ही भीष्म पितामह कई महीनों तक तीरों की सेज पर सो सके थे। इसी शक्ति द्वारा लक्ष्मण जी ने मेघनाद पर विजय प्राप्त की थी।

दुनिया में जो भी सुधारक, ऋषि मुनि, महात्मा, योगी हुए हैं उन सभी ने ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही लोगों के दिल जीते हैं। अतः वीर्यरक्षा ही जीवन और उसका नाश मृत्यु है।

आजकल युवा पीढ़ी की हालत देखकर हमें अफसोस होता है। सयोंग से कोई ऐसा नौजवान होगा जो वीर्यरक्षा का ध्यान रखते हुए सिर्फ संतानोत्पत्ति हेतु स्त्री से मिलन करता होगा। आजकल के नौजवान तो जोश में आकर स्वास्थ्य व शरीर की परवाह किये बिना विषय भोगने में अपनी बहादुरी समझते हैं। ऐसे नौजवानों को मैं नामर्द कहूँगा।

जो नौजवान अपनी वासना के वश में हो जाते हैं, वे दुनिया में जीने के योग्य नहीं हैं। वे सिर्फ थोड़े दिनों के मेहमान हैं। उनके खाने की ओर दृष्टि दौड़ायेंगे तो केक, विस्कुट, अंडे, आइसक्रीम आदि उनकी प्रिय वस्तुएँ हैं, जो वीर्य को कमजोर तथा रक्त को दूषित बनाती हैं।

आज से 20-25 वर्ष पहले छोटे-बड़े, नौजवान व बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी दूध, मक्खन व घी खाना पसन्द करते थे पर आजकल के नौजवान स्त्री-पुरुष दूध पीना पसंद नहीं करते। यह देखकर विचार होता है कि ऐसे लोग कैसे अच्छी संतान पैदा करके समाज को दे सकेंगे ! स्वस्थ माता-पिता से स्वस्थ संतान पैदा होती है।

अब थोड़ा रुको तथा बुद्धि से विचार करो कि ‘कैसे अपने स्वास्थ्य व शरीर की रक्षा हो सकेगी ?’ जिस इन्सान ने संसार में आकर ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत किया है, उसका इस संसार में आना ही व्यर्थ है।

मेरा नम्र निवेदन है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि इस दुनिया में आकर अपने बचपन के बाद अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने की कोशिस करे तथा शरीर को शुद्ध व मजबूत बनाने के लिए दूध, घी, मक्खन, मलाई, सादगीवाला भोजन प्राप्त करने का प्रयत्न करे, साथ ही प्रभु से प्रार्थना करे कि ‘हे प्रभु ! सादा भोजन खाकर शुद्ध बुद्धि व सही राह पर चलूँ।’

आध्यात्मिक व भविष्य की उन्नति की बुनियाद ब्रह्मचर्य ही है। वीर्य सेनापति की भाँति कार्य करता है तथा दूसरी धातुएँ सिपाहियों की भाँति अपना कर्तव्य पूरा करती हैं। देखो, जब सेनापति मारा जाता है तब दूसरे सिपाहियों की हालत खराब हो जाती है। इसी प्रकार वीर्य के नष्ट होने से शरीर तेजहीन हो जाता है। शास्त्रों ने शरीर में परमात्मा का निवास माना है। अतः उसे पवित्र रखना प्रत्येक स्त्री व पुरुष का कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य का पालन वही कर सकेगा, जिसने मन व इन्द्रियों को नियंत्रण में किया हो, फिर चाहे वह गृहस्थी हो अथवा त्यागी।

मैं जब अपनी बहनों को देखता हूँ, तब मेरा दिल दर्द से फट जाता है कि ‘कहाँ हैं वे पहलेवाली माताएँ ?’

दमयंती, सीता, गार्गी, लीलावती, विद्याधरी।

विद्योत्तमा, मदालसा थीं शास्त्र शिक्षा से भरी।।

ऐसी विदुषी स्त्रियाँ भारत की भूषण हो गयीं।

धर्म् व्रत छोड़ा नहीं चाहे जान अपनी खो गयी।।

कहाँ हैं ऐसी माताएँ जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी, लक्ष्मण, भीष्म पितामह तथा भगवान श्रीकृष्ण जैसे महान तथा प्रातः स्मरणीय पुरुषों को जन्म दिया था ?

व्यास मुनि, कपिल मुनि तथा पतंजली जैसे ऋषि कहाँ हैं, जिन्होंने हिमालय की गुफाओं में रह, कंदमूल खाकर वेदांत, तत्त्वज्ञान पर पुस्तकें लिख के या सिद्धान्त जोड़ के दुनिया को अचम्भे में डाल दिया ?

आजकल के नौजवानों की हालत देखकर अफसोस होता है। उन्होंने अपने महापुरुषों के नाम पर कलंक लगाया है। हम ऐसे आलसी व सुस्त हो गये हैं कि हमें एक या दो मील पैदल चलने में थकावट महसूस होती है। हम डरपोक तथा कायर हो गये हैं।

मुझे ऐसा लगता है कि भारत के वीरों को यह क्या हो गया है जो वे ऐसे कमजोर तथा कामचोर हो गये हैं ? वे ऐसे डरपोक कैसे हो गये हैं ? क्या हिमालय के वातावरण में ऐसी शक्ति नहीं रही है ? क्या भारत की मिट्टी में ऐसी शक्ति नहीं रही है कि वह अच्छा अनाज पैदा कर सके ? नहीं यह सब तो पहले जैसा है।

आखिर क्या कारण है जो हममें से शक्ति तथा शूरवीरता निकल गयी है कि अर्जुन व भीम जैसी मूर्तियाँ हम पैदा नहीं कर सकते ?

मैं मानता हूँ कि शक्ति, शूरवीरता, स्वास्थ्य व बहादुरी ये सब मौजूद हैं परंतु कुदरत ने जो नियम बनाये हैं हम उन पर अमल नहीं करते, हम उनका पालन नहीं करते। हम उनसे उलटा चलते हैं एवं हर समय भोग भोगने व शरीर के बाहरी सौंदर्य में मग्न रहते हैं और अपने स्वास्थ्य का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते।

अच्छे भोग भोगना यह प्रजापति का कार्य है। आप कौन-सी प्रजा पैदा करेंगे ? कवि ने कहा हैः

जननी जणे तो भक्त जण, कां दाता कां शूर।

नहि तो रहेजे वांझणी, मत गुमावीश नूर।।

आजकल के युग में मिलाप को भोग-विलास का साधन बना रखा है। वे मनुष्य कहलाने के लायक नहीं हैं। क्योंकि संयमी जीवन से ही दुनिया में महान, पुरुष, महात्मा, योगिराज, संत, पैगम्बर व ऋषि-मुनि अपना तेजस्वी चेहरा बना सके हैं। उन भूले भटकों को अपनी पवित्र वाणी द्वारा तथा प्रवचनों द्वारा सत्य का मार्ग दिखाया है। उनकी मेहरबानी व आशीर्वाद द्वारा कई लोगों के हृदय कुदरती प्रकाश से रोशन हुए हैं।

मनुष्य को चाहिए कि कुदरती कानून व सिद्धान्तों पर अमल करे, उनके अनुसार चले। सबमें समान दृष्टि रखते हुए जीवन व्यतीत करे। अंतःकरण में शुद्धता रखकर कार्य में चित्त लगाना चाहिए, इससे हमारा कार्य सफल होगा। मिलन के समय यदि विचार पवित्र होंगे तो आपकी संतान भी अच्छे विचारोंवाली होगी और संतान दुःख-सुख के समय आपको सहायता करेगी।

 

यदि आप दुनिया में सुख व शांति चाहते हो तो अपने अंतःकरण को पवित्र व शुद्ध रखकर दूसरों को ज्ञान दो। जो मनुष्य वीर्य की रक्षा करेंगे, वे ही सुख व आराम की जिंदगी जी सकेंगे और उन्हीं लोगों के नाम दुनिया में सूर्य की रोशनी की भाँति चमकेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 219

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स्मृति जैसा मूल्यवान और कुछ नहीं पूज्य बापू जी


स्मृति ऐसी नहर है कि जहाँ चाहे इसको ले जा सकते हैं। इस स्मृति को चाहे संसार में ले जाओ – बेचैनी ले आओ, चाहे उसी से आनन्द ले आओ अथवा उसी से परमात्मा को प्रकट करो। जीवन में स्मृति जैसा मूल्यवान और कुछ नहीं है और स्मृति जैसा खतरनाक भी और कुछ नहीं है। स्मृति दुःख की करो तो दुःखद प्रसंग न होते हुए भी आदमी दुःखी हो जाता है। स्मृति विकार की करो तो स्त्री न होते हुए, विकारी चीज न होते हुए भी आदमी विकारों की चपेट में आ जाता है। गुलाब की शय्या बनी हो, इत्र छँटे हों, अप्सरा आ के कंठ लगे, कामदेव का सब वातावरण हो लेकिन हमारी स्मृति परमात्मा में लगी है तो विकार कुछ नहीं कर सकता।

हम भीड़ भड़ाके में हों, नगाड़े बजते हों लेकिन हमारी वृत्ति किसी और चिंतन में लगी है तो हमको उसका ख्याल नहीं होता। हम मंदिर में बैठे हैं, आरती हो रही है, अगरबत्ती जल रही है, धूप-दीप से भक्त लोग भगवान की आराधना कर रहे हैं लेकिन हमारी स्मृति किसी गंदी जगह पर है तो हम वही हैं, मंदिर में नहीं ! हम अच्छे, पवित्र वातावरण में हैं लेकिन स्मृति मन में द्वेष की हो रही है, राग की हो रही है, शंका की हो रही है तो वातावरण में शांति के स्पंदन होते हुए भी हम उसका अनुभव नहीं कर सकते हैं, उसकी गरिमा को नहीं छू सकते हैं। हमारी स्मृति अगर शंकाशील है, इधर-उधर की है अथवा हमारे मन में कोई सांसारिक समस्या है तो ‘हमको बाबाजी कब बुलायें, हमसे कब बात करें ?’ – ऐसी स्मृति बनी रहेगी और सत्संग ग्रहण नहीं हो पायेगा।

स्मृति में बड़ी शक्ति है। स्मृति एक ऐसी धारा है, जो रसोईघर में भी जाती है, पूजागृह में भी जाती है, स्नानागार में भी जाती है और शिवालय में, शिवाभिषेक में भी जाती है।

जीवन एक बाढ़ की धारा है। जीवन तो पसार हो रहा है लेकिन स्मृति के प्रवाह को खींचकर उचित जगह पर ले जायें। जैसे हिमालय से गंगाजल आता है, सागर की तरफ बहता है। जो पानी खारा होने को जा रहा है, नहरें बनाकर उससे ही गन्ना पैदा किया जाता है। वही पानी कई जगहों पर औषधियों के काम आता है और उसी की एक शाखा तीर्थों में जाती है और लोग ‘गंगे हर’ करके आनन्दित होते हैं, पूजा करते हैं। ऐसे ही हमारी स्मृतियाँ हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाती है, इसलिए स्मृति जैसी-तैसी बात में लगाना नहीं, जैसी तैसी बातों को स्मृति में भरकर बेचैन होना नहीं। कई लोग थोड़ा-सा दुःख होता है लेकिन उस दुःख का सुमिरन करके अपने को ज्यादा दुःखी बना लेते हैं।

सुमिरन कर-करके घबरा जाना, सुमिरन कर-करके दुःखी हो जाना यह भी सुमिरन के अधीन है और सुमिरन करके दुःखी न होन, सुमिरन करके उचित मार्ग निकाल के निश्चिंत होना यह भी सुमिरन के अधीन है। जहाँ से स्मरण होता है, उस परमात्म-स्वभाव को ‘मैं’ रूप में जानना, यह साक्षात्कार है।

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा ओठ।।

विश्रांति योग…..स्मरण करते-करते स्मरण के मूल में पहुँच गये। शिवोऽहम्….चैतन्योऽहम्…..विश्रान्ति….. यह भी एक अवस्था है। अवस्था स्थिर नहीं है। उस परमेश्वर में छोटी मोटी अवस्थाएँ और यह ऊँची अवस्था शिवोऽहम् वाली अध्यस्थ हैं। लेकिन परमात्म-तत्त्व तो सबका अधिष्ठान, आधार है, उसको ‘मैं’ रूप में जानने वाले कितने महान आत्मा, कितने परम पुरुष दिव्य हैं !

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम।।

अवस्था का प्रकाशक सत्य है। सत्य की प्रकाशक अवस्था नहीं है।

‘मुझे घाव हो गया। अरे ! मैं मर गया। अब मेरा क्या होगा ? हाय रे ! घाव हो गया।’ – ऐसा सुमिरन करके मैं घाव के दुःख को सहयोग दूँ, यह भी स्मृति से होगा और उसी वृत्ति से सोचूँ कि ‘इसको रोगप्रतिकारक दवाओं से धो लेना चाहिए, कोई मलहम लगा देना चाहिये’, यह भी तो स्मृति से होता है। तो इस प्रकार स्मृति का उपयोग तो कर लिया लेकिन फिर इस स्मृति को और ऊँची बनायें कि ‘शरीर में घाव हुआ है, इस शरीर को रोगप्रतिकारक दवाएँ लग रही हैं लेकिन जिस वक्त शरीर में घाव हुआ था उस वक्त भी चेतना मेरे परमात्मा की ही थी, इस वक्त उसको देखने वाला भी वही है, रोग मिट जायेगा तब भी देखने वाला वही मेरा परमात्मा सत्य है। वही मैं हूँ। मेरी सत्ता से स्मृतियाँ होती हैं। हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति और स्मृति के बाप ! जिसकी सत्ता से स्मृतियाँ होती हैं, वही मैं साक्षी सत्य हूँ। हरि ॐ तत् सत्, और सब गपशप’ तो मैंने स्मृति का एकदम ऊँचा उपयोग किया।

समझो मैं दुकान पर गया, ऑफिस में गया दिलचस्पी से धंधा-व्यवहार किया, ऑफिस का काम किया लेकिन दिलचस्पी से काम करते समय भी अगर मेरी स्मृति परमात्मा के प्रति है तो मैं धंधा-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की भक्ति कर ली। समझ लो मैं महिला हूँ, घर की रसोई बनाती हूँ। रसोई बनाते-बनाते अगर मेरी स्मृति परमात्मा के प्रति है तो मैंने रोटी बनाते हुए भी परमात्मा की भक्ति कर ली। यदि मैं घंटी बजा रहा हूँ और मुझे स्मृति किसी विकार की हो तो मैंने पूजा नहीं की, मैंने विकार की स्मृति को महत्त्व दिया।

स्मृति का बहुत मूल्य है। तुम बाहर से क्या करते हो, उसकी कोई ज्यादा कीमत नहीं है। तुम्हारी स्मृति का तुम कैसा उपयोग करते हो, तुम्हारे चिंतन का तुम कैसा उपयोग करते हो, उसी पर तुम्हारा भविष्य बन जाता है। ऐसा नहीं कि कोई देवी-देवता कहीं बैठकर तुम्हारा भाग्य बना रहा है, तुम्हारी जैसी-जैसी स्मृतियाँ अंदर पड़ी हैं, जैसे-जैसे संस्कार पड़े हैं, जैसी-जैसी मान्यताएँ पड़ी हैं अथवा जैसी तुम बनाते हो, जिनको तुम महत्त्व देते हो ऐसा ही तुम्हारा भविष्य बनता है। जैसे कैसेट चलती है तो जहाँ जो टोन, जहाँ जो शब्द, उपदेश, तरंगे उसने रिकॉर्ड कर रखी है, वह जगह जब आती है तो वह ध्वनि हम सुनते हैं, ऐसे ही हमारी स्मृति है। उसमें अनन्त जन्मों के संस्कार पड़े हैं, वातावरण के संस्कार, माता-पिता, नाना-नानी, दादा-दादी के संस्कार ये सब स्मृति में जुड़ जाते हैं, फिर उसके अनुसार हम जगत को देखने लग जाते हैं। अब बहादुरी यह है कि इन सबको नगण्य मानकर नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्ध्या….. शरीर को ‘मैं’ संस्कारों को ‘मेरा’ और स्वयं को संस्कारों की कठपुतली न मानकर संस्कारों को नष्ट करके जैसे अर्जुन ने स्मृति जगायी, ऐसे ही अपने स्वरूप में जागो।

घर से निकले, आश्रम तक पहुँचे। आँखों ने तो बहुत लोग देखे होंगे लेकिन किसी की स्मृति नहीं, जिससे तुम्हारा परिचय था उसकी स्मृति रही कि ‘फलाना भाई मिला था’ और जिससे तुम्हारा द्वेष था वह भी स्मृति में रह गया कि ‘अरे ! अपशकुनी का मुँह देखा तो मजा नहीं आया।’ ये दोनों स्मृति में रह गये, बाकी के कोई गहरे नहीं रहे।

आपने 40 साल, 30 साल, 20 साल में जो कुछ कमाया उसे छोड़कर दरिद्र होना है तो एक क्षण में हो सकते हैं। ऐसे ही कई जन्मों की वृत्तियाँ, कई जन्मों की स्मृतियाँ, कई जन्मों के संस्कार आप सँभालकर रखेंगे तो कई जन्म और मिलेंगे। लेकिन मुक्त होना हो तो सब वृत्तियाँ परमात्मा को समर्पित करके जो परमात्मा वृत्तियों का उदगम्-स्थान, ‘साक्षी’ है, उस साक्षीभाव में आ जाओ… बेड़ा पार हो जाय। बड़ा आसान है। ईश्वर हमसे दूर होना चाहे, हमसे अलग होना चाहे तो उस के बस की बात नहीं है लेकिन हम लोगों का दुर्भाग्य है कि हमारी स्मृति संसार में फैल गयी। हमारी स्मृति की धारा देह और देह की अनुकूलता में चली गयी और जहाँ से स्मृति, वृत्ति प्रकट होती है, वहाँ हम अंतर्मुख नहीं होते इसीलिए हमको दुःख भोगने पड़ते हैं।

अगर हमारे पास परमात्मा के लिए थोड़ी भी तड़प है, जिज्ञासा है और संसार की नश्वरता का ज्ञान है तो हम उसी स्मृति को परमात्मा में लगाकर जीवन्मुक्त भी हो सकते हैं।

‘महाभारत’ में आता है कि

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।

विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवै प्रभविष्णवे।।

‘जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य आवागमनरूप बंधन से छूट जाता है, सबको उत्पन्न करने वाले उस परम प्रभु श्रीविष्णु (जो सबमें बस रहा है, सबरूप है) को बार बार नमस्कार है।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 219

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जीवन में हो सर्जन माधुर्य का – पूज्य बापू जी


(नूतन वर्षः 4 अप्रैल पर विशेष)

ॐ मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।

वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसंदृशः।।

‘हे मधुमय प्रभो ! आपकी प्रेरणा से सामने उपस्थित योगक्षेम संबंधी कर्तव्यों में मेरी प्रवृत्ति मधुमय हो अर्थात् उससे अपने को और दूसरों को सुख, शांति, आनंद और मधुरता मिले। मेरे दूरगामी कर्तव्य भी मधुमय हों। मैं वाणी से मधुमय ही बोलूँ। सभी लोग मुझे मधुमयी दृष्टि से प्रेमपूर्वक देखें। (अथर्ववेदः 1.34.3)

हे मधुमय प्रभु ! हे मेरे प्यारे ! मेरे चित्त में तुम्हारे मधुर स्वभाव, मधुर ज्ञान का प्राकटय हो। मधुमय, दूरगामी मेरे निर्णय हों। क्योंकि आप मधुमय हो, सुखमय हो, आनंदमय हो, ज्ञानमय हो, सबके परम सुहृद हो और मैं आपका बालक हूँ। मैंने अपनी युक्ति, चालाकी से सुखी रहने का ज्यों-ज्यों यत्न किया, त्यों-त्यों विकारों ने, कपट ने, चालाकियों ने मुझे कई जन्मों तक भटकाया। अब सत्यं शरणं गच्छामि। मैं सत्यस्वरूप ईश्वर की शरण जा रहा हूँ। मधु शरणं गच्छामि। मधुमय ईश्वर ! मैं तुम्हारी शरण आ रहा हूँ। हम युक्ति चालाकी से सुखी रहें, यह भ्रम हमारा टूटा है। आनंद और माधुर्य, परम सुख और परम सम्पदा युक्ति से, चालाकी से नहीं मिलती, अपितु तुम्हारा बनने से ये चीजें सहज में मिलती हैं। जैसे पुत्र पिता का होकर रहता है तो पिता का उत्तराधिकार पुत्र के हिस्से में आता है, ऐसे ही जीव ईश्वर का होकर कुछ करता है तो ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर की मधुमयता, ईश्वर का सदभाव, सत्प्रेरणा और साथ उसे मिलता रहता है। सामान्य व्यक्ति और महापुरुषों में यही फर्क है। सामान्य व्यक्ति अपनी पढ़ाई-लिखाई से, चतुराई-चालाकी से दुःख मिटाकर सुखी रहने का व्यर्थ प्रयास करता है। फिर व्यसनों में और कपटपूर्ण कामों में, न जाने किस-किसमें बेचारा फँस जाता है ! लेकिन महापुरुष जानते हैं कि

पुरुषस्य अर्थ इति पुरुषार्थः।

परमात्मा ही पुरूष है। उस परमात्मा (पुरूष के अर्थ जो प्रयत्न करते हैं, वे वास्तविक पुरुषार्थ करते हैं। जिनका वास्तविक पुरूषार्थ है, उन्हें वह वास्तविक ज्ञान मिलता है, जिस सुख से बड़ा कोई सुख नहीं, जिस ज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नहीं, जिस लाभ से बड़ा कोई लाभ नहीं। ‘गीता’ में भगवान ने कहा

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। (6.22)

जिस लाभ से बड़ा कोई लाभ उसके मानने में नहीं आता, जिसके आगे इन्द्रपद का लाभ भी बहुत बौना हो जाता है, छोटा हो जाता है उस लाभ को पाने के लिए मनुष्य जीवन की यह मति-गति है।

अंदर की चतुराई, चालाकी से आनंद को, प्रभु को पाया नहीं जा सकता। इनसे जो मिलेगा वह समय पाकर चला जायेगा। क्रिया से जो मिलेगा, प्रयत्न से जो मिलेगा, चालाकी से जो मिलेगा, वह माया के अन्तर्गत होगा और परमात्मा के साथ-सहयोग सेक जो मिलेगा वह माया के पार का होगा-यह कभी न भूलें। कोई भी लोग कितनी भी चालाकी करें सब दुःखों से पार नहीं हुए हैं, नहीं हो सकते हैं। लेकिन शबरी की नाईं, संत तुकाराम, संत रविदास की नाईं, नानकजी, कबीरजी और तैलंग स्वामी की नाईं अपना प्रयत्न करें और उसमें ईश्वर का सत्ता-सामर्थ्य मिला दें तो सरलता से सब दुःखों से पार हो सकते हैं।

आलसी न हो जायें, भगवान के भरोसे पुरुषार्थ न छोड़ दें। पुरुषार्थ तो करें लेकिन पुरूषार्थ करने की सत्ता जहाँ से आती है और पुरूषार्थ उचित है कि अनुचित है उसकी शुद्ध प्रेरणा भी जहाँ से मिलती है, उस परमात्मा की शरण जायें। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय अर्जुन को कहाः

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।क

‘हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा शाश्वत परम धाम को प्राप्त होगा।’ (भगवदगीताः 18.62)

अपनी चालाकी, युक्ति, मेहनत से नश्वर स्थान मिलेंगे। आप शाश्वत हैं और आपको जो मिला वह नश्वर है तो आपकी मेहनत-मजदूरी बन-बन के खेल बिगाड़ने में ही लगती रहती है। आप नित्य हैं, शरीर अनित्य है और शरीर-संबंधी सुविधाएँ भी अनित्य हैं। नित्य को अनित्य कितना भी दो-

बिन रघुवीर पद जिय की जरनि न जाई।

जीवात्मा की जलन, तपन भगवत्प्रसाद के बिना नहीं जायेगी। वास्तव में ‘भगवत्प्रसाद’ मतलब भगवान का अनुभव जीवात्मा का अनुभव होना चाहिए। पिता की समझ, पिता का सामर्थ्य बेटे में आना चाहिए, यह प्रसाद है। लोगों ने क्या किया कि प्रसाद बनाया, व्यंजन बनाये, यह किया, वह किया…. चलो, इसके लिए हम इन्कार नहीं करते लेकिन इन बाह्य प्रसादों में रुको नहीं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसाद वह जिससे सारे दुःख मिट जायें। मनमुख थोड़ी देर जीभ का रसास्वाद लेते हैं, उनकी अपेक्षा भक्त भगवान को भोग लगाकर लेते हैं। यह अच्छा है, ठीक है लेकिन वह प्रसाद, तुम्हारी जिह्वा का प्रसाद वास्तविक प्रसाद नहीं है। भगवान और संत चाहते हैं कि तुम्हें वास्तविक प्रसाद मिल जाये।

कई जिह्वाएँ तुमको मिलीं और चली गयीं, जल गयीं, तुम ज्यों-के-त्यों ! तुम शाश्वत हो, परमात्मा शाश्वत हैं।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

‘इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है।’ (गीताः 15.7)

भगवान जो कह रहे हैं, वह तुम मान लो।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

‘हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ।’ (गीताः10.20)

सब भूत-प्राणियों में मैं आत्मा चैतन्य ब्रह्म हूँ। जो सब भूत-प्राणियों में है…. मच्छर में भी अक्ल कैसी कि बड़े-बड़े डी.जी.पी. को, ब्रिगेडियरों को, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को, तुमको-हमको चकमा दे देता है ! यह कला उसमें कहाँ से आती है ? मकड़ा जाला कैसे बुनता है ? उसमें कहाँ से अक्ल आती है ? वह अक्ल जड़ से नहीं आती, चेतन से आती है।

तो मानना पड़ेगा कि उनमें चेतना भी है और ज्ञान भी है। भगवान चैतन्यस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, प्राणिमात्र के सुहृद हैं, उनकी बात मान लो बस ! नूतन वर्ष का यह संदेश है। भगवान कहते हैं-

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

मैं ही आत्मा ब्रह्म हूँ। सब भूत-प्राणियों में हूँ। जल में रस-स्वाद मेरा है। पृथ्वी में गंध गुण मेरा है। चन्द्रमा और सूर्य में जीवन देने की शक्ति मेरी है।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।

प्रणवः सर्ववेदुषु शब्दः खे पौरूषं नृषु।।

‘हे अर्जुन ! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।’ (गीताः 7.8)

आप भगवान की यह बात मान लो न ! भगवान की बात मान लेने से क्या होगा ? भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। मन की बात मान लेने से क्या होगा कि मन भटका-भटका के न जाने कितनी बार चौरासी लाख योनियों के चक्कर में ले जायेगा। जन्मों-जन्मों से हम-आप अपने को सताते-सताते आये हैं। यह नूतन वर्ष आपको नूतन संदेश देता है कि अब अपने को सताने से बचाना हो, नश्वर आकर्षणों से बचाना हो तो आप शाश्वत रस ले लीजिये। शाश्वत रस, सामर्थ्य की ओर देखिये।

‘भगवान सर्वत्र हैं।’ यह कहते हैं तो आपके हृदय में हैं न ! स्वीकार कर लो।

काहे रे बन खोजन जाई !

अपने हृदयेश्वर की उपासना में लगो। हृदय मधुमय रहेगा। कम-से-कम व्यक्तिगत खर्च, कम-से-कम व्यक्तिगत श्रृंगार, बाहरी सुख के गुलाम बनिये नहीं और दूसरों को बनाइये मत। कम-से-कम आवश्यकताओं से गुजारा कर लीजिये और अधिक-से-अधिक अंतर रस पीजियेक। जिनको हृदयेश्वर की उपासना से वह (परमात्मा) मिला है, ऐसे महापुरुषों के वचनों को स्वीकार करके आप तुरंत शोकरहित हो जाओ, द्वंद्वरहित हो जाओ, भयरहित हो जाओ, वैर व राग-द्वेष रहित हो जाओ। नित्य सुख में आप तुरंत जग जाओगे, आप महान हो जाओगे। उस हृदयेश्वर के मिलने में देर नहीं, वह दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 12,13,14 अंक 219

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