स्मृति जैसा मूल्यवान और कुछ नहीं पूज्य बापू जी

स्मृति जैसा मूल्यवान और कुछ नहीं पूज्य बापू जी


स्मृति ऐसी नहर है कि जहाँ चाहे इसको ले जा सकते हैं। इस स्मृति को चाहे संसार में ले जाओ – बेचैनी ले आओ, चाहे उसी से आनन्द ले आओ अथवा उसी से परमात्मा को प्रकट करो। जीवन में स्मृति जैसा मूल्यवान और कुछ नहीं है और स्मृति जैसा खतरनाक भी और कुछ नहीं है। स्मृति दुःख की करो तो दुःखद प्रसंग न होते हुए भी आदमी दुःखी हो जाता है। स्मृति विकार की करो तो स्त्री न होते हुए, विकारी चीज न होते हुए भी आदमी विकारों की चपेट में आ जाता है। गुलाब की शय्या बनी हो, इत्र छँटे हों, अप्सरा आ के कंठ लगे, कामदेव का सब वातावरण हो लेकिन हमारी स्मृति परमात्मा में लगी है तो विकार कुछ नहीं कर सकता।

हम भीड़ भड़ाके में हों, नगाड़े बजते हों लेकिन हमारी वृत्ति किसी और चिंतन में लगी है तो हमको उसका ख्याल नहीं होता। हम मंदिर में बैठे हैं, आरती हो रही है, अगरबत्ती जल रही है, धूप-दीप से भक्त लोग भगवान की आराधना कर रहे हैं लेकिन हमारी स्मृति किसी गंदी जगह पर है तो हम वही हैं, मंदिर में नहीं ! हम अच्छे, पवित्र वातावरण में हैं लेकिन स्मृति मन में द्वेष की हो रही है, राग की हो रही है, शंका की हो रही है तो वातावरण में शांति के स्पंदन होते हुए भी हम उसका अनुभव नहीं कर सकते हैं, उसकी गरिमा को नहीं छू सकते हैं। हमारी स्मृति अगर शंकाशील है, इधर-उधर की है अथवा हमारे मन में कोई सांसारिक समस्या है तो ‘हमको बाबाजी कब बुलायें, हमसे कब बात करें ?’ – ऐसी स्मृति बनी रहेगी और सत्संग ग्रहण नहीं हो पायेगा।

स्मृति में बड़ी शक्ति है। स्मृति एक ऐसी धारा है, जो रसोईघर में भी जाती है, पूजागृह में भी जाती है, स्नानागार में भी जाती है और शिवालय में, शिवाभिषेक में भी जाती है।

जीवन एक बाढ़ की धारा है। जीवन तो पसार हो रहा है लेकिन स्मृति के प्रवाह को खींचकर उचित जगह पर ले जायें। जैसे हिमालय से गंगाजल आता है, सागर की तरफ बहता है। जो पानी खारा होने को जा रहा है, नहरें बनाकर उससे ही गन्ना पैदा किया जाता है। वही पानी कई जगहों पर औषधियों के काम आता है और उसी की एक शाखा तीर्थों में जाती है और लोग ‘गंगे हर’ करके आनन्दित होते हैं, पूजा करते हैं। ऐसे ही हमारी स्मृतियाँ हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाती है, इसलिए स्मृति जैसी-तैसी बात में लगाना नहीं, जैसी तैसी बातों को स्मृति में भरकर बेचैन होना नहीं। कई लोग थोड़ा-सा दुःख होता है लेकिन उस दुःख का सुमिरन करके अपने को ज्यादा दुःखी बना लेते हैं।

सुमिरन कर-करके घबरा जाना, सुमिरन कर-करके दुःखी हो जाना यह भी सुमिरन के अधीन है और सुमिरन करके दुःखी न होन, सुमिरन करके उचित मार्ग निकाल के निश्चिंत होना यह भी सुमिरन के अधीन है। जहाँ से स्मरण होता है, उस परमात्म-स्वभाव को ‘मैं’ रूप में जानना, यह साक्षात्कार है।

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा ओठ।।

विश्रांति योग…..स्मरण करते-करते स्मरण के मूल में पहुँच गये। शिवोऽहम्….चैतन्योऽहम्…..विश्रान्ति….. यह भी एक अवस्था है। अवस्था स्थिर नहीं है। उस परमेश्वर में छोटी मोटी अवस्थाएँ और यह ऊँची अवस्था शिवोऽहम् वाली अध्यस्थ हैं। लेकिन परमात्म-तत्त्व तो सबका अधिष्ठान, आधार है, उसको ‘मैं’ रूप में जानने वाले कितने महान आत्मा, कितने परम पुरुष दिव्य हैं !

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम।।

अवस्था का प्रकाशक सत्य है। सत्य की प्रकाशक अवस्था नहीं है।

‘मुझे घाव हो गया। अरे ! मैं मर गया। अब मेरा क्या होगा ? हाय रे ! घाव हो गया।’ – ऐसा सुमिरन करके मैं घाव के दुःख को सहयोग दूँ, यह भी स्मृति से होगा और उसी वृत्ति से सोचूँ कि ‘इसको रोगप्रतिकारक दवाओं से धो लेना चाहिए, कोई मलहम लगा देना चाहिये’, यह भी तो स्मृति से होता है। तो इस प्रकार स्मृति का उपयोग तो कर लिया लेकिन फिर इस स्मृति को और ऊँची बनायें कि ‘शरीर में घाव हुआ है, इस शरीर को रोगप्रतिकारक दवाएँ लग रही हैं लेकिन जिस वक्त शरीर में घाव हुआ था उस वक्त भी चेतना मेरे परमात्मा की ही थी, इस वक्त उसको देखने वाला भी वही है, रोग मिट जायेगा तब भी देखने वाला वही मेरा परमात्मा सत्य है। वही मैं हूँ। मेरी सत्ता से स्मृतियाँ होती हैं। हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति और स्मृति के बाप ! जिसकी सत्ता से स्मृतियाँ होती हैं, वही मैं साक्षी सत्य हूँ। हरि ॐ तत् सत्, और सब गपशप’ तो मैंने स्मृति का एकदम ऊँचा उपयोग किया।

समझो मैं दुकान पर गया, ऑफिस में गया दिलचस्पी से धंधा-व्यवहार किया, ऑफिस का काम किया लेकिन दिलचस्पी से काम करते समय भी अगर मेरी स्मृति परमात्मा के प्रति है तो मैं धंधा-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की भक्ति कर ली। समझ लो मैं महिला हूँ, घर की रसोई बनाती हूँ। रसोई बनाते-बनाते अगर मेरी स्मृति परमात्मा के प्रति है तो मैंने रोटी बनाते हुए भी परमात्मा की भक्ति कर ली। यदि मैं घंटी बजा रहा हूँ और मुझे स्मृति किसी विकार की हो तो मैंने पूजा नहीं की, मैंने विकार की स्मृति को महत्त्व दिया।

स्मृति का बहुत मूल्य है। तुम बाहर से क्या करते हो, उसकी कोई ज्यादा कीमत नहीं है। तुम्हारी स्मृति का तुम कैसा उपयोग करते हो, तुम्हारे चिंतन का तुम कैसा उपयोग करते हो, उसी पर तुम्हारा भविष्य बन जाता है। ऐसा नहीं कि कोई देवी-देवता कहीं बैठकर तुम्हारा भाग्य बना रहा है, तुम्हारी जैसी-जैसी स्मृतियाँ अंदर पड़ी हैं, जैसे-जैसे संस्कार पड़े हैं, जैसी-जैसी मान्यताएँ पड़ी हैं अथवा जैसी तुम बनाते हो, जिनको तुम महत्त्व देते हो ऐसा ही तुम्हारा भविष्य बनता है। जैसे कैसेट चलती है तो जहाँ जो टोन, जहाँ जो शब्द, उपदेश, तरंगे उसने रिकॉर्ड कर रखी है, वह जगह जब आती है तो वह ध्वनि हम सुनते हैं, ऐसे ही हमारी स्मृति है। उसमें अनन्त जन्मों के संस्कार पड़े हैं, वातावरण के संस्कार, माता-पिता, नाना-नानी, दादा-दादी के संस्कार ये सब स्मृति में जुड़ जाते हैं, फिर उसके अनुसार हम जगत को देखने लग जाते हैं। अब बहादुरी यह है कि इन सबको नगण्य मानकर नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्ध्या….. शरीर को ‘मैं’ संस्कारों को ‘मेरा’ और स्वयं को संस्कारों की कठपुतली न मानकर संस्कारों को नष्ट करके जैसे अर्जुन ने स्मृति जगायी, ऐसे ही अपने स्वरूप में जागो।

घर से निकले, आश्रम तक पहुँचे। आँखों ने तो बहुत लोग देखे होंगे लेकिन किसी की स्मृति नहीं, जिससे तुम्हारा परिचय था उसकी स्मृति रही कि ‘फलाना भाई मिला था’ और जिससे तुम्हारा द्वेष था वह भी स्मृति में रह गया कि ‘अरे ! अपशकुनी का मुँह देखा तो मजा नहीं आया।’ ये दोनों स्मृति में रह गये, बाकी के कोई गहरे नहीं रहे।

आपने 40 साल, 30 साल, 20 साल में जो कुछ कमाया उसे छोड़कर दरिद्र होना है तो एक क्षण में हो सकते हैं। ऐसे ही कई जन्मों की वृत्तियाँ, कई जन्मों की स्मृतियाँ, कई जन्मों के संस्कार आप सँभालकर रखेंगे तो कई जन्म और मिलेंगे। लेकिन मुक्त होना हो तो सब वृत्तियाँ परमात्मा को समर्पित करके जो परमात्मा वृत्तियों का उदगम्-स्थान, ‘साक्षी’ है, उस साक्षीभाव में आ जाओ… बेड़ा पार हो जाय। बड़ा आसान है। ईश्वर हमसे दूर होना चाहे, हमसे अलग होना चाहे तो उस के बस की बात नहीं है लेकिन हम लोगों का दुर्भाग्य है कि हमारी स्मृति संसार में फैल गयी। हमारी स्मृति की धारा देह और देह की अनुकूलता में चली गयी और जहाँ से स्मृति, वृत्ति प्रकट होती है, वहाँ हम अंतर्मुख नहीं होते इसीलिए हमको दुःख भोगने पड़ते हैं।

अगर हमारे पास परमात्मा के लिए थोड़ी भी तड़प है, जिज्ञासा है और संसार की नश्वरता का ज्ञान है तो हम उसी स्मृति को परमात्मा में लगाकर जीवन्मुक्त भी हो सकते हैं।

‘महाभारत’ में आता है कि

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।

विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवै प्रभविष्णवे।।

‘जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य आवागमनरूप बंधन से छूट जाता है, सबको उत्पन्न करने वाले उस परम प्रभु श्रीविष्णु (जो सबमें बस रहा है, सबरूप है) को बार बार नमस्कार है।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 219

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *