अनन्य निष्ठा का संदेश देते हैं हनुमानजी

अनन्य निष्ठा का संदेश देते हैं हनुमानजी


हनुमान जयंती

स्वयं प्रभु श्रीराम जिनके ऋणि बन गये, जिनके प्रेम के वशीभूत हो गये और सीताजी भी जिनसे उऋण न हो सकीं, उन अंजनिपुत्र हनुमानजी की रामभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता। लंकादाह के बाद वापस आने पर उनके लिए प्रभु श्रीराम को स्वयं कहना पड़ाः “हे हनुमान ! तुमने विदेहराजनंदिनी सीता का पता लगा के उनका दर्शन कर और उनका शुभ समाचार सुनाकर समस्त रघुवंश की तथा महाबली लक्ष्मण की और मेरी भी आज धर्मपूर्वक रक्षा कर ली। परंतु ऐसे प्यारे संवाद देने वाले हनुमानजी का इस कार्य के योग्य हम कुछ भी प्रिय नहीं कर सकते। यही बात हमारे अंतःकरण में खेद उत्पन्न कर रही है। जो हो, इस समय हमारा हृदय से आलिंगनपूर्वक मिलना ही सर्वस्वदान-स्वरूप महात्मा श्रीहनुमानजी का कार्य के योग्य पुरस्कार होवे।”

(बाल्मीकिक रामायणः 6.1.11.13)

श्रीराम-राज्यभिषेक के बाद जब जानकी जी ने हनुमान जी को एक दिव्य रत्नों का हार प्रसन्नतापूर्वक प्रदान किया तब वे उसमें राम-नाम को ढूँढने लगे। तब प्रभु श्रीराम ने हनुमानजी से पूछाः “हनुमान ! क्या तुमको हमसे भी हमारा नाम अधिक प्यारा है?” इस पर हनुमान जी ने तुरंत उत्तर दियाः “प्रभो ! आपसे तो आपका नाम बहुत ही श्रेष्ठ है, ऐसा मैं बुद्धि से निश्चयपूर्वक कहता हूँ। आपने तो अयोध्यावासियों को तारा है परंतु आपका नाम तो सदा-सर्वदा तीनों भुवनों को तारता ही रहता है।”

यह है ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमानजी की भगवन्नाम-निष्ठा ! हनुमानजी ने यहाँ दुःख, शोक, चिंता, संताप के सागर इस संसार से तरने के लिए सबसे सरल एवं सबसे सुगम साधन के रूप में भगवन्नाम का, भगवन्नामयुक्त इष्टमंत्र का स्मरण किया है, इष्टस्वरूप का ज्ञान और उसके साथ साक्षात्कार यह सार समझाया है।

श्री हनुमानजी का यह उपदेश सदैव स्मरण में रखने योग्य हैः ‘स्मरण रहे, लौकिक क्षुद्र कामना की पूर्ति के लिए सर्वदा मोक्षसाधक, परम कल्याणप्रदायक श्रीराम-मंत्र का आश्रय भूलकर भी नहीं लेना चाहिए। श्रीरामकृपा से मेरे द्वारा ही अभिवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी। कोई भी सांसारिक काम अटक जाय तो मुझ श्रीराम-सेवक का स्मरण करना चाहिए।’ (रामरहस्योपनिषदः 4.11)

हनुमान जी यह नहीं चाहते कि उनके रहते हुए उनके स्वामी को भक्तों का दुःख देखना पड़े। यदि कोई उनकी उपेक्षा कर श्रीरामचन्द्रजी को क्षुद्र कामना के लिए पुकारता है तो उन्हें बड़ी वेदना होती है।

एक बार भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से कहाः “हनुमान ! यदि तुम मुझसे कुछ माँगते तो मेरे मन को बहुत संतोष होता। आज तो हमसे कुछ अवश्य माँग लो।” तब हनुमान जी ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना कीःक

स्नेहो मे परमो राजंस्त्वयि तिष्ठतु नित्यदा।

भक्तिश्च नियता वीर भावो नान्यत्र गच्छतु।।

श्रीराजराजेन्द्र प्रभो ! मेरा परम स्नेह नित्य ही आपके श्रीपाद-पद्मों में प्रतिष्ठित रहे। हे श्रीरघुवीर ! आपमें ही मेरी अविचल भक्ति बनी रहे। आपके अतिरिक्त और कहीं मेरा आंतरिक अनुराग न हो। कृपया यही वरदान दें।” (बाल्मीकि रामायणः 7.40.16)

अपने परम कल्याण के इच्छुक हर भक्त को अपने इष्ट से प्रार्थना में ऐसा ही वरदान माँगना चाहिए। ऐसी अनन्य भक्ति रखने वाले के लिए फिर तीनों लोकों में क्या अप्राप्य रहेगा ! हनुमानजी के लिए ऋद्धि-सिद्धि, आत्मबोध – कौन सी बात अप्राप्य रही !

अपनी अनन्य निष्ठा को एक अन्य प्रसंग में हनुमान जी ने और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त किया हैः “श्रीराम-पादारविंदों को त्यागकर यदि मेरा मस्तक किसी अन्य के चरणों में झुके तो मेरे सिर पर प्रचण्ड कालदण्ड का तत्काल प्रहार हो। मेरी जीभ श्रीराम-नाम के अतिरिक्त यदि अन्य मंत्रों का जप करे तो दो जीभवाला काला भुजंग उसे डँस ले। मेरा हृदय श्रीराघवेन्द्र प्रभु को भूलकर यदि अन्य किसी का चिंतन करे तो भयंकर वज्र उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। मैं यह सत्य कहता हूँ अथवा यह औपचारिक चाटुकारितामात्र ही है, इस बात को सर्वान्तर्यामी आप तो पूर्णरूप से जानते ही हैं, अन्य कोई जाने अथवा न जाने।”

यह है श्री हनुमान जी की अनन्य श्रीराम-निष्ठा ! हर भक्त की, सदगुरू के शिष्ट की भी अपने इष्ट के प्रति ऐसी ही अनन्य निष्ठा होनी चाहिएक।

‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया’ होने के नाते आपने प्रभु से यह याचना कीः “हे रघुवीर ! जब तक श्रीरामकथा इस भूतल को पावन करती रहे, तब तक निस्संदेह (भगवत्कथा-श्रवण करने के लिए) मेरे प्राण इस शरीर में ही निवास करें।।”

(बाल्मीकि रामायणः 7.40.17)

इसी कारण जहाँ-जहाँ श्रीरामकथा होती है, वहाँ-वहाँ हनुमानजी नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे तथा ललाट से बद्धांजलि लगाये उपस्थित रहते हैं। हनुमानजी हमें भी यह संदेश देते हैं कि मनुष्य-जीवन में भगवत्प्रीति बढ़ाने वाली भगवदलीलाओं एवं भगवदज्ञान का श्रवण परमानंदप्राप्ति का मधुर साधन है। हम सभी इससे परितृप्त रहकर मनुष्य-जीवन का अमृत प्राप्त करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 220

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