Monthly Archives: May 2011

अदभुत है आत्मविद्या !


पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी

मानव जन्म बड़ा कीमती है। समस्त साधनों का धाम व मोक्ष का द्वार यह मनुष्य-शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। संत तुलसीदास जी कहते हैं-

बड़ें भाग मानुष तन पावा।

सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।

पाई न जेहिं परलोक सँवारा।। (श्री रामचरित. उ.कां. 42.4)

इस मनुष्य जीवन को यदि सही ढंग से सद्गुरुओं के मार्गदर्शन के अनुसार जिया जाय, उसी के अनुसार जप, ध्यान, साधनादि किये जायें तो केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं, वरन् भौतिक दृष्टि से भी हम पूर्णतया सफल हो सकते हैं। इतना ही नहीं, हम परब्रह्म परमात्मा का दीदार भी कर सकते हैं। जो बाह्य वस्तुएँ पाकर सुखी होना चाहता है, जो अपने जीवन में बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि का आदर करता है, उसके जीवन में खिन्नता, अशांति और बेचैनी व्याप्त हो जाती है। किंतु जो व्यक्ति सत्संग का, ऋषियों का, उनके बताये गये जीवन जीने के सिद्धान्तों का आदर करता है उसका जीवन प्रेम, आनंद, शांति और प्रसन्नता से परिपूर्ण हो जाता है। आप हजारों रूपये लेकर बाजार घूमो और प्रसन्नता देने वाले साधन-वस्तुएँ खरीदो। उनसे आपको इतना आनंद नहीं आयेगा जितना कि सत्शिष्य को सद्गुरुओं के दर्शन व सत्संग  से आता है।

सुकरात के प्रति सहानुभूति रखने वाले कई सेठ एक दिन सुकरात को लेकर बड़े-बड़े बाजारों, स्टोरों में दिन भर घूमे। ‘चाहे करोड़ों तक का सामान भी यदि सुकरात खरीदेंगे तो हम अभी ही उसका भुगतान कर देंगे’, यह सोचकर उन्होंने जवाहरात, फर्नीचर, खाद्य वस्तुओं आदि एक-से-एक मनलुभावनी चीजोंवाले स्टोर दिखाये। संध्या हो गयी। अभावग्रस्त जीवन जीने वाले सुकरात ने दिन भर घूमने के बाद भी कुछ नहीं खरीदा। सेठों को अत्यंत आश्चर्य हुआ। सुकरात ने सब स्टोरों में घूमने के बाद आश्चर्य को भी आश्चर्य में डाले ऐसा नृत्य किया। सेठों ने आश्चर्य से पूछाः “आपके पास न फर्नीचर है, न सुखी जीवन की कुछ सामग्री है। हमें कई दिनों से तरस आ रहा था इसलिए आपको स्टोरों में घुमाया और बार-बार हम कहते थे कि ‘कुछ भी खरीद लो ताकि हमें सेवा का कुछ मौका मिले।’ अब आप और हम घूम के थक गये। आपने खरीदा तो कुछ नहीं और अब मजे से नृत्य कर रहे हैं !”

भारतीय तत्त्वज्ञान के प्रसाद से प्रसन्न हुए उस तृप्तात्मा सुकरात ने कहाः “तुम्हारे पास ऐहिक सुख-साम्राज्य होने पर भी तुम उतने सुखी नहीं जितना बिना वस्तु, बिना व्यक्ति और बिना सुविधा के मैं सुखी हूँ, इस खुशी में मैं नाच रहा था।”

अभावग्रस्त परिस्थिति और कुरुप शरीर में सुकरात इतने सुखी और सुरूप तत्त्व में पहुँचे थे कि कई सुखी व सुरूप उनके चरणों के चाकर होने से अपने को भाग्यशाली मानते थे। अद्भुत है आत्मविद्या ! काली काया, ठिंगना कद, शरीर में आठ-आठ वक्रताएँ…. ऐसे कुरुप शरीर में भी अष्टावक्र जी परमात्मस्वरूप की मस्ती से अंदर से इतने सुरुप हुए कि विशाल काया व विशाल राज्य के धनी जनक उनके शिष्य कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। सुकरात का शिष्य होने से प्लेटो भी गौरव का अनुभव करता था। क्या तुम अपने उस आत्मा के सौंदर्य को पाना चाहते हो ? प्रेमरस प्यालियाँ पीना चाहते हो ? जन्म-जन्म की कंगालियत मिटाना चाहते हो ?…. तो उस आत्मधन परमेश्वर-प्रसाद को पाये हुए महापुरुषों को खोजो। प्लेटो की नाईं सुकरात को, जनक की नाईं अष्टावक्र को, नरेन्द्र की नाईं रामकृष्ण को, सलूका-मलूका की नाईं कबीर को, बाला-मरदाना की नाईं नानकजी को खोजो। अटूट श्रद्धा, दृढ़ पुरुषार्थ, पवित्र और निःस्वार्थ प्रेम से उन महापुरुषों के साथ जुड़ जाओ, फिर देखो मजा ! कोहिनूर देने वालों से कंकड़-पत्थर माँगकर अपने अहं के पोषक नहीं, राग-द्वेष के शिकार नहीं, सच्चे तलबगार….

आप जिसके हितैषी है, उसकी उन्नति देखकर आपके हृदय में प्रसन्नता होती है और उसका पतन देखकर आपके हृदय को ठेस पहुँचती है। किंतु गुरुजन, संतजन तो किसी एक दो के नहीं, वरन् मानवमात्र के हितैषी होते हैं। सद्गुरुओं के मार्गदर्शन में जीवन जीने से मनुष्य समस्त आपदाओं से पार हो जाता है। तब काल भी अपना सिर कूटता है गुरुओं के प्रसाद को देखकर। वह सोचता है कि ‘मैंने कई बार इस जीवन को मारा था किंतु अब गुरुओं के, संतों के प्रसाद को पाकर यह जीव जीवन-मरण के पाश से मुक्त हो जायेगा। मेरा शिकार चला गया….।’ संत कबीर जी कहते हैं-

मन कि मनसा मिट गयी, अहं गया सब छूट।

गगन मण्डल में घर किया, काल रहा सिर कूट।।

सदगुरुओं के सान्निध्य से जीव को जन्म-जन्मांतरों का जो भ्रम था कि ‘मैं देह हूँ…. जगत सच्चा है’ वह दूर हो जाता है। अपने शरीर को सदा टिकाये रखने की वासना निवृत्त हो जाती ह। क्योंकि जीव को पता चल जाता है कि ‘मैं सदा हूँ, अमर हूँ, मेरे वास्तविक स्वरूप का कभी नाश नहीं होता और शरीर किसी का भी होकर सदा नहीं टिकता।

मैं आनंदस्वरूप हूँ। आनंद किसी बाह्य वस्तु में नहीं है वरन् मेरा अपना आपा ही आनंदस्वरूप है। आज तक मैं जो सोच रहा था कि वस्तुओं में सुख है, पद-प्रतिष्ठा में सुख है, विदेशों के, विलासी देशों के वातावरण में सुख है। वह सुख न था, मेरी ही भ्रांति थी। ऋषिकृपा से, गुरुकृपा से मेरी वह भ्रांति दूर हो गयी और अब पता चला कि सब पदों का जो बाप है वह आत्मपद मैं ही हूँ। सब सुख जहाँ से प्रगट होते हैं वह सुखस्वरूप, वह आनंदस्वरूप आत्मा मैं ही हूँ।

जब गुरुओं का प्रसाद मिलता है, भीतरी रस जब मिलने लगता है, अंतर्यामी परमात्मा का स्वभाव जब प्रगट होने लगता है तब इस जीव की ‘मैं’ पने की समस्त भ्राँतियाँ, वासनाएँ मिट जाती हैं और वह चिदाकाशरूपी गगनमण्डल में अपना घर कर लेता है अर्थात् अपने आपको अपने घर में ही पा लेता है। अभी तक तो वह अपने को हाड़-मांस के घर में मान रहा था। जबकि हाड़-मांस का घर ईंट-चूने के घर के सहारे और ईंट-चूने का घर पृथ्वी के सहारे था। पृथ्वी जल पर, जल तेज पर, तेज वायु पर और वायु आकाश के सहारे थी। आकाश भी महत्तत्त्व के सहारे, महत्तत्त्व प्रकृति के सहारे था और हम प्रकृति से प्रेरित होकर जन्म-मरण के चक्र में जी रहे थे, किंतु गुरुओं की कृपा से अब हमें पता चला है कि प्रकृति चल रही है, हम अचल हैं। ऐसे निजस्वरूप में जगाने वाले सदगुरुओं के चरणों में हमारे कोटि-कोटि प्रणाम हैं….।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 221

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दूसरों के मंगल में हमारा मंगल


जून का महीना था। भयंकर गर्मी पड़ रही थी। एक तीक्ष्ण बुद्धि सम्पन्न, मिलनसार एवं व्यवहारकुशल पढ़े-लिखे युवक को खूब भटकने पर भी नौकरी नहीं मिल रही थी। तपती धूप में वह नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। भटकते-भटकते वह एक ऐसे मैदान से गुजरा जहाँ अपने में मस्त, बड़ा निश्चिंत एक वृद्ध घसियारा प्रभु के भजन गाता हुआ घास काट रहा था। वह युवक उस घसियारे के समीप गया और बोलाः “बाबा ! इस मामूली घास को बेचकर तुम अपने परिवार का निर्वाह कैसे करते होगे ?”

घसियारा थोड़ी देर चुप रहा और फिर मुस्कराते हुए बोलाः “बेटा ! भले मैं निर्धन हूँ लेकिन बड़ी इच्छा नहीं पालता। जो मिलता है उसी में संतोष कर लेता हूँ।”

“बाबा ! तुम्हें अपनी गरीबी का क्षोभ नहीं होता ?”

“बेटा ! यदि मैं पढ़-लिखकर ऊँची आकांक्षावाला व्यक्ति होता तो सम्भवतः क्षुब्ध ही रहता। तुम तो काफी पढ़े-लिखे लगते हो, फिर भला मैं तुम्हें क्यों समझाऊँ ! हाँ, इतना अवश्य कहूँगा कि धन ही सब कुछ नहीं होता। संतोष धन से बढ़कर कोई धन नहीं है।”

वृद्ध घसियारा देखने में तो साधारण लगता था पर उसके उत्तर ने युवक के हृदय को झकझोर दिया। वह युवक कुछ देर तो अवाक्-सा उस घसियारे की ओर देखता रहा, फिर बोला, “बाबा ! धन के अभाव में इच्छा होते हुए भी तुम कभी परोपकार कर सकोगे क्या ?” वह वृद्ध घसियारा तपाक-से बोलाः “बेटा ! अच्छे एवं सच्चे व्यक्ति को परोपकार के लिए धन का अभाव कभी नहीं खटकता। मैं भीख माँगकर भी कुआँ खुदवाना चाहता हूँ। तपती दोपहरी में जब लोग ठंडा पानी पीकर तृप्त होंगे तो मेरे हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहेगा। मैं इस गरीबी में भी बहुत ही मजे में हूँ।”

यह सुनकर उस पढ़े-लिखे युवक का सिर श्रद्धा से झुक गया। वह विचारों में गहरा डूब गया और सोचने लगा, ‘जिनका कहीं अंत नहीं, जिसमें कहीं तृप्ति नहीं, विश्रांति नहीं, ऐसी इच्छाओं-लालसाओं की आग में मैं बाहर-भीतर दोनों ओर से तप रहा हूँ और यह घसियारा रूखी रोटी खाकर भी मस्त है। अपनी पढ़ाई का अहंकाल लेकर इस तपती दोपहरी में मैं द्वार-द्वार की धूल फाँक रहा हूँ और यह वृद्ध घसियारा अनपढ़ होकर भी मुझ पढ़े को जीवन निर्माण का पाठ दे रहा है। पढ़-लिखकर मैं तो अपने में ही सिमट गया। मैंने कभी दूसरों की भलाई की चिंता ही नहीं की। मुझसे तो यह अनपढ़ घसियारा ही अच्छा है।’ उस वृद्ध घसियारे के चंद वचनों ने उस युवक के जीवन का कायाकल्प कर दिया। उसने नौकरी का विचार त्यागकर अनपढ़ लोगों को पढ़ाना शुरु किया। छात्रों से मिली गुरुदक्षिणा से उसका जीवन चलता रहा और उसी में उसे बड़ा आनंद आता था। आगे चलकर उसने नेपाली भाषा में ‘रामायण’ की रचना की, जो आज भी नेपाल में श्रद्धा से पढ़ी जाती है। अपनी कृति से वह युवक अमर हो गया उसका नाम था – भानु भक्त।

तुम दूसरों के लिए सोचते हो तो ईश्वर स्वयं तुम्हारी सहायता करता है। इसलिए मनुष्य को ऊँची आकांक्षाओं के मोह में न पड़कर जो मिले उसी में संतोष करते हुए परोपकार में लगे रहना चाहिए। पूज्य बापू जी कहते हैं-

“आप दूसरे का मंगल करोगे तो आपका तो मंगल हो ही जायेगा क्योंकि जिसका आप मंगल करते हो उसके हृदय में बैठा हुआ दाता लुटाये बिना नहीं रहता।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 27 अंक 221

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मन की समता


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मुद्गल नाम के ऋषि हो गये। वे बड़े पवित्रात्मा थे। उन्होंने व्रत ले रखा था। खेतों में पड़े हुए दाने बीन लेते थे। पन्द्रह दिन में करीब 32 सेर दाने बन जाते थे। तब यज्ञ करते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और यज्ञ से बचा हुआ प्रसाद ग्रहण करते थे। अमावस्या और पूनम को यज्ञ करते। पन्द्रह दिन परिश्रम करने से जो आजीविका मिलती थी, उसका जप-तप के साथ इन यज्ञों तथा अतिथि सत्कार में उपयोग करते थे और प्रसादरूप में खुद भी सेवन करते थे। मुद्गल की ऐसी कीर्ति सुनकर देवता लोग भी उनकी प्रशंसा करते थे। अपमान और भूख भले-भलों को उद्विग्न कर देते हैं लेकिन मुद्गल ऋषि बड़े शांत व प्रसन्न रहते थे। वे तो थे ही परंतु उनकी पत्नी भी उनके सत्कार्य में सहयोग देती थी। उनके बच्चों ने भी मुद्गल ऋषि के अनुसार अपना जीवन ढाल दिया था। मुद्गल ऋषि की सहनशक्ति, धैर्य, शांति, सरलता, उदारता व तपस्या उनकी आँखों में एक अनोखा ओज भर रही थी। किसी को वे प्रेमभरी दृष्टि से निहारते तो सामने वाले का दिल मुद्गल का हो जाता था। जैसे ज्ञानवानों की दृष्टि में आभा होती है, आकर्षण होता है, अद्भुत प्रेम और करुणा छुपी हुई होती है ऐसे ही मुद्गल करीब-करीब उस अवस्था को प्राप्त हो रहे थे। उनका यह प्रभाव व सद्गुण दुर्वासा जी के कानों तक पहुँच गया। ज्ञानवान दुर्वासा ऋषि हमेशा भक्तों के मनोबल, तपस्वियों के तपोबल, त्यागियों के त्यागबल की परीक्षा और उनको आगे बढ़ाने के लिए क्रोधी, परीक्षक, ऋषि, स्त्री या अर्धस्त्री का रूप बनाकर घूमते रहते थए। पता चला कि मुद्गल अच्छे हैं, श्रेष्ठ हैं तो चलो ! जो खूँटा गाड़ा जाता है, जिसके सहारे किसी को बाँधना है, उसे हिलाया जाता है कि वह मजबूत है कि नहीं ! अब एक लक्कड़ का टुकड़ा जिसके सहारे गाय, भैंस या बकरी बाँधनी है उसको बार-बार हिलाना पड़ता है तो जिसके सहारे समाज के लोगों का कल्याण करना है, दूसरों के जीवन में कुछ प्रकाश फैलाना है अथवा जिसके हृदय में ईश्वर को बाँधना है ऐसे साधक को सद्गुरु नहीं हिलायेंगे तो कौन हिलायेगा !

कटु, तिक्त वचन, पागलों सा देश…. इस वेशभूषा में मुद्गल ऋषि के पास आकर दुर्वासा ऋषि ने डाँटते-फटकारते हुए कहाः “ऐ मुद्गल ! तुझे पता होना चाहिए कि मैं भोजनप्राप्ति के हेतु ही तेरे पास आया हूँ।”

मुद्गल जीः “महाराज ! बड़ी कृपा हुई, धन्यभाग हमारे। विराजो।यज्ञ करके तो गये थे। यज्ञ से बचा हुआ जो प्रसाद अपने बच्चे, पत्नी व अपने लिए था, उससे मुद्गल ऋषि ने दुर्वासा जी को बड़े आदर व श्रद्धा से भोजन कराया। उस भोजन से दुर्वासा ऋषि को बड़ा स्वाद आया, बड़ा रस आया क्योंकि एक तो पसीने का अन्न था, दूसरा यज्ञ-याग करने के बाद बचा था और तीसरा उसमें श्रद्धा थी, चौथा उसमें शांति थी, पाँचवाँ उसमें प्रेम भरा हुआ था। खाते-खाते महाराज ने सब भोजन सफा कर दिया, थोड़ा सा बचा वह अपने अंगों को मल दिया। मुद्गल जी को देखा तो उनके चेहरे पर कोई रोष नहीं, आश्चर्य नहीं, कोई अशांति नहीं, कोई खिन्नता नहीं।

जिसे वो देना चाहता है, उसी को आजमाता है।

खजाने रहमत के, इसी बहाने लुटाता है।।

महाराज ! हम अपने चित्त को जरा देखें, हमने चौदह दिन भोजन न किया हो, पन्द्रहवें दिन होम-हवन करके अतिथियों, साधुओं को खिलाकर बाकी का बचा प्रसाद पाने को बैठें और जायें अतिथि। उनको हम खिलायें और वे हमारे सारे कुटुम्ब का भोजन खा जायें, जरा सा बचा हो, वह अपने शरीर को चुपड़ने लग जायें तो हम डंडा लें कि थप्पड़ मारें, वह  हमारे दिल की बात हम ही जानें उस समय।

मुद्गल ऋषि को कोई क्षोभ, शोक या आश्चर्य नहीं हुआ। सोचा, ‘ठीक है, ऋषि की, साधु की मौज ! दुर्वासा ऋषि ने देखा कि ये कुछ बोलते नहीं ! भोजन करके बोलेः “अच्छा मैं जाता हूँ। फिर कब बनता है ?”

“महाराज ! मेरा नियम है कि पूर्णिमा और अमावस्या को हवन होम करके यज्ञ का प्रसाद लेते हैं।”

“चिंता न करो, मैं आ जाऊँगा।”

इस दुर्वासा ऋषि छः बार आये। पन्द्रह दिन में एक बार आये तो छः बार के हुए तीन महीने। तीन महीने उस परिवार को बिना भोजन के रहना पड़ा, फिर भी उनके चित्त में क्षोभ नहीं। जरूरी नहीं कि अन्न से ही आपका शरीर पुष्ट रहता है। आपके अंदर पुष्ट रहने की, तंदुरुस्त रहने की, प्रसन्न रहने की कुंजी है तो प्रतिकूलता में भी आप सुखी रह सकते है। आपका मन जैसी धारणा बना लेता है वैसा ही आपके तन पर असर होता है। निष्काम सेवा से उनके चित्त में भूख और प्यास निवृत्त करने की एक रसायनी शक्ति उत्पन्न होने लगी। दुर्वासा जी प्रसन्न हो गये और बोल उठेः “क्या चाहिए वत्स ! बोलो।”

मुद्गल बोलेः “महाराज ! आपकी प्रसन्नता ही हमारे लिए सब कुछ है।”

इतनी सेवा करने के पश्चात भई महर्षि मुद्ग ने कुछ माँगा नहीं ! विचार कीजिये कि उनके विशुद्ध अंतःकरण में कितनी निष्कामता रही होगी ! दुर्वासा की प्रसन्नता से देवता और भी संतुष्ट हुए। स्वर्ग से देवदूत विमान लेकर आया और बोलाः “हे ऋषिवर ! आपका पुण्य इतना बढ़ गया है कि आप सशरीर स्वर्ग में पधारें। यज्ञ-याग करने वालों को मरने के बाद तो स्वर्ग मिलता ही है लेकिन आपका धैर्य, समता, सहनशक्ति व संतोषी जीवन इतना है कि अब आप सशरीर स्वर्ग में पधारें।

मुद्गल जी पूछते हैं- “स्वर्ग में क्या है ?”

“स्वर्ग में घूमने के लिए बाग़-बगीचे हैं, अप्सराएँ हैं, पीने के लिए अमृत है, नाना प्रकार के व्यंजन हैं, भोग हैं, बस स्वर्ग तो स्वर्ग है !” इस प्रकार देवदूत ने स्वर्ग की प्रशंसा की।

“जहाँ गुण होते हैं वहाँ दोष भी होते हैं, जहाँ सुख होता है वहाँ दुःख भी होता है, जहाँ अच्छा होता है वहाँ बुरा भी होता है। तो अच्छाई-बुराई दोनों का वर्णन करो।”

देवदूत ने कहाः “ऐश्वर्य तो बता दिये, अब बुराई सुनिये कि वहाँ आपस में राग-द्वेष रहता है। अपने से बड़ों को देखकर भय, बराबरी वालों से ईर्ष्या-टक्कर और छोटेवालों से घृणा होती है और अंत में स्वर्ग तो क्या ब्रह्मलोक तक के भी जो भोग हैं, उन्हें भोगकर भी गिरना पड़ता है। वापस यहीं आना पड़ता है।”

तब मुद्गल ऋषि कहते हैं-

“यत्र गत्वा न शोचन्ति न व्यथन्ति चलन्ति वा।

तदहं स्थानमन्यन्तं मार्गयिष्यामि केवलम्।। (महाभारत वनपर्वः 261.44)

मैं उस विनाशरहित परम धाम को ही प्राप्त करूँगा, जिसे प्राप्त कर लेने पर शोक, व्यथा, दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति हो जाती है।

मुझे स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक या वैकुण्ठलोक में नहीं जाना है, मुझे तो अपने स्वरूप में आना है। जो कहीं जाने से मिले ऐसे पद को मुझे नहीं पाना है और जिसको पाने के बाद फिर गिराया जाय ऐसे सुख को मुझे नहीं पाना है। मैं तो उस सुख में डुबकी मारूँगा-

दिले तस्वीर है यार !

जब भी गर्दन झुका ली और मुलाकात कर ली।

शोक की आत्यांतिक निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति ! न स पुनरावर्तते…. जहाँ से फिर पुनरागमन नहीं होता ऐसे आत्मपद में मुझे विश्रान्ति पाने दो। आप आये हैं, मुझे इन्द्रदेव ने आदर से बुलावा भेजा है, सबको धन्यवाद ! लेकिन मैं अपनी सेवा का पुरस्कार स्वर्ग नहीं चाहता। आप जहाँ से आये हो, कृप्या वहाँ जा सकते हैं।” और महर्षि ने देवदूत को सम्मानसहित विदाई दी।

महर्षि मुद्गल ने स्वर्ग का त्याग किया पर उसका अहंकार तक उनके मन में नहीं जगा। ऐसे ही भगवान के जो सच्चे भक्त होते हैं, वे दुःख सहते हैं, कष्ट सहते हैं लेकिन मन में कभी फरियाद नहीं करते, क्योंकि अंतर में निष्कामता जितनी अधिक होगी उतना ही परिशुद्ध आत्मरस उनमें प्रकट होता रहता है। अतः मन में दृढ़ निश्चय एवं सदभावना भरते चलो कि ‘भगवत्सेवार्थ ही आज से सारे कर्तव्य-कर्म करूँगा, वाहवाही के लिए नहीं। किसी को हलका (नीचा) दिखाने के लिए नहीं, कोई नश्वर चीज पाने के लिए नहीं, जो भी करूँगा परमात्मा के प्रसाद का अधिकारी होने के लिए, परमात्मा को प्रेम करने के लिए, परमात्मा के दैवी कार्य सम्पन्न करने के लिए ही करूँगा। इस प्रकार परमात्मा और ईश्वर-सम्प्राप्त महापुरुषों के दैवी कार्यों में अपने-आपको सहभागी बनाकर उस परम देव के प्रसाद से अपने-आपको पावन बनाता रहूँगा।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 26 अंक 221

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