नश्वर लुटाया, शाश्वत पाया

नश्वर लुटाया, शाश्वत पाया


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

स्वामी विवेकानंद जी के बाल्यकाल की बात है। तब उनका नाम नरेन्द्र था। जब भी कोई गरीब-गुरबा या भिखारी आकर उनसे कुछ माँगता तो अपने पुराने सँस्कार के कारण जो भी सामान मिलता वह दे डालते थे। घर में रूपया-पैसा या और कुछ नहीं मिलता तो बर्तन ही उठाकर दे देते। बर्तन हाथ न लगे तो किसी की भी कपड़ा उठाकर दे देते।

एक दिन कोई माँगने वाला आया तो उस समय इनके पास कुछ भी नहीं था। माँ को पता था कि ये भाई साहब किसी को कुछ भी उठाकर दे देंगे इसलिए सब संदूक नीचे के कमरे में बंद कर दिये थे। घर में और कुछ मिला नहीं तो नरेन्द्र ने क्या किया कि बाहर चले गये और माँगने वाले को अपने कपड़े उतारकर दे दिये। एकदम बबलू की तरह (नंगे होकर) आ गये, बबलू तो थे ही। माँ ने प्यार भरे गुस्से से डाँटते हुए कहाः “मेरा बेटा नंगा ! 9-10 साल का, इतना बड़ा बैल जैसा और नंगा होकर आया ! कपड़े कहाँ गये ?”

बोलेः “वह माँग रहा था….। बेचारे को पहनने को नहीं थे, उनके बच्चों के लिए दे दिये।”

माँ ने कहाः “चल।”  हाथ पकड़कर ले गयी, ऊपर के कमरे में बंद कर बाहर से ताला मार दिया और बोलीः ” तू सुधरेगा नहीं ! अब मैं तुझे खोलूँगी ही नहीं, तब पता चलेगा।”

माँ तो चली गयी। ये भाई साहब बैठे रहे। माँगने वाले ने देखा कि अपने दाता ऊपर हैं, दाता ने भी देख लिया माँगने वाला को।

“बालक दाता ! तुम्हारी जय हो ! कुछ मिल जाय।” दाता ने देखा कि अब तो कुछ है ही नहीं। इधर-उधर देखा तो माँ का संदूक पड़ा था। ‘माँ ताला लगाना भूल गयी है। वाह प्रभु ! तेरी कितनी कृपा है !’ संदूक खोला तो माँ की रेशमी साड़ियाँ पड़ी थीं। उठाकर खिड़की से माँगने वाले के फैले हाथों पर फेंक दीं। दाता आह्लादित हो गये और माँगने वाला निहाल हो गया। ‘प्रभु की जय हो ! दाता की जय हो !!’ माँ ने ‘जय हो, जय हो’ सुना तो सोचा, ‘इसने फिर क्या तूफान मचाया है !’ बाहर आकर देखा तो….

“अरे, किसने दी ये मेरी साड़ियाँ ?”

भिखारी बोलाः “आपके दाता बेटे ने ऊपर से फेंकी हैं।” माँ ने खिड़की की ओर देखा तो याद आया कि ‘ओहो ! संदूक खुला रह गया था।’ माँ को तो गुस्सा आना चाहिए था लेकिन धड़ाक-से दरवाजा खोला और प्यार करते हुए बोलीः “बेटा ! तू सब कुछ लुटाये बिना नहीं रहेगा, तू ऐसा। अब तुझे कौन समझाये ! तू तो ऐसा है मेरी बिटुआ !” जिसने सब लुटाया उसका सारा ब्रह्माण्ड अपना हो गया।

हमको भी कई बार ऐसा होता था और कई बार लुटाया भी। एक बार तो ऐसा लुटाया की चटाई तक दे डाली थी। धोती और कुर्ता भी दे दिया था, एक कच्छे में चल दिये। जो सब कुछ सर्वेश्वर का मानकर सर्वेश्वर के निमित्त बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय उसका सदुपयोग कर लेता है, उसके लिए सर्वेश्वर दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराये नहीं। इसका मतलब यह भी नहीं कि तुम किसी को गहने दे दो या कपड़े दे दो लेकिन उनमें ममता न रखो। ये चीजें पहले तुम्हारी नहीं थीं, बाद में नहीं रहेंगीं, इनका सदुपयोग कर लो, यथायोग्य अधिकारी के अनुसार देते चलो। शरीर को अपना न मानो, इसे ‘मै’ न मानो। जैसे दूसरे का शरीर हो, ऐसे ही अपने शरीर को सँभालो। व्यवहार चलाने के लिए खाओ-पियो, शरीर को ढको लेकिन मजा लेने के लिए नहीं। मजा लेना है तो परमात्मा-ज्ञान, परमात्म-शांति में गोता मरो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 21 अंक 221

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