मन की समता

मन की समता


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मुद्गल नाम के ऋषि हो गये। वे बड़े पवित्रात्मा थे। उन्होंने व्रत ले रखा था। खेतों में पड़े हुए दाने बीन लेते थे। पन्द्रह दिन में करीब 32 सेर दाने बन जाते थे। तब यज्ञ करते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और यज्ञ से बचा हुआ प्रसाद ग्रहण करते थे। अमावस्या और पूनम को यज्ञ करते। पन्द्रह दिन परिश्रम करने से जो आजीविका मिलती थी, उसका जप-तप के साथ इन यज्ञों तथा अतिथि सत्कार में उपयोग करते थे और प्रसादरूप में खुद भी सेवन करते थे। मुद्गल की ऐसी कीर्ति सुनकर देवता लोग भी उनकी प्रशंसा करते थे। अपमान और भूख भले-भलों को उद्विग्न कर देते हैं लेकिन मुद्गल ऋषि बड़े शांत व प्रसन्न रहते थे। वे तो थे ही परंतु उनकी पत्नी भी उनके सत्कार्य में सहयोग देती थी। उनके बच्चों ने भी मुद्गल ऋषि के अनुसार अपना जीवन ढाल दिया था। मुद्गल ऋषि की सहनशक्ति, धैर्य, शांति, सरलता, उदारता व तपस्या उनकी आँखों में एक अनोखा ओज भर रही थी। किसी को वे प्रेमभरी दृष्टि से निहारते तो सामने वाले का दिल मुद्गल का हो जाता था। जैसे ज्ञानवानों की दृष्टि में आभा होती है, आकर्षण होता है, अद्भुत प्रेम और करुणा छुपी हुई होती है ऐसे ही मुद्गल करीब-करीब उस अवस्था को प्राप्त हो रहे थे। उनका यह प्रभाव व सद्गुण दुर्वासा जी के कानों तक पहुँच गया। ज्ञानवान दुर्वासा ऋषि हमेशा भक्तों के मनोबल, तपस्वियों के तपोबल, त्यागियों के त्यागबल की परीक्षा और उनको आगे बढ़ाने के लिए क्रोधी, परीक्षक, ऋषि, स्त्री या अर्धस्त्री का रूप बनाकर घूमते रहते थए। पता चला कि मुद्गल अच्छे हैं, श्रेष्ठ हैं तो चलो ! जो खूँटा गाड़ा जाता है, जिसके सहारे किसी को बाँधना है, उसे हिलाया जाता है कि वह मजबूत है कि नहीं ! अब एक लक्कड़ का टुकड़ा जिसके सहारे गाय, भैंस या बकरी बाँधनी है उसको बार-बार हिलाना पड़ता है तो जिसके सहारे समाज के लोगों का कल्याण करना है, दूसरों के जीवन में कुछ प्रकाश फैलाना है अथवा जिसके हृदय में ईश्वर को बाँधना है ऐसे साधक को सद्गुरु नहीं हिलायेंगे तो कौन हिलायेगा !

कटु, तिक्त वचन, पागलों सा देश…. इस वेशभूषा में मुद्गल ऋषि के पास आकर दुर्वासा ऋषि ने डाँटते-फटकारते हुए कहाः “ऐ मुद्गल ! तुझे पता होना चाहिए कि मैं भोजनप्राप्ति के हेतु ही तेरे पास आया हूँ।”

मुद्गल जीः “महाराज ! बड़ी कृपा हुई, धन्यभाग हमारे। विराजो।यज्ञ करके तो गये थे। यज्ञ से बचा हुआ जो प्रसाद अपने बच्चे, पत्नी व अपने लिए था, उससे मुद्गल ऋषि ने दुर्वासा जी को बड़े आदर व श्रद्धा से भोजन कराया। उस भोजन से दुर्वासा ऋषि को बड़ा स्वाद आया, बड़ा रस आया क्योंकि एक तो पसीने का अन्न था, दूसरा यज्ञ-याग करने के बाद बचा था और तीसरा उसमें श्रद्धा थी, चौथा उसमें शांति थी, पाँचवाँ उसमें प्रेम भरा हुआ था। खाते-खाते महाराज ने सब भोजन सफा कर दिया, थोड़ा सा बचा वह अपने अंगों को मल दिया। मुद्गल जी को देखा तो उनके चेहरे पर कोई रोष नहीं, आश्चर्य नहीं, कोई अशांति नहीं, कोई खिन्नता नहीं।

जिसे वो देना चाहता है, उसी को आजमाता है।

खजाने रहमत के, इसी बहाने लुटाता है।।

महाराज ! हम अपने चित्त को जरा देखें, हमने चौदह दिन भोजन न किया हो, पन्द्रहवें दिन होम-हवन करके अतिथियों, साधुओं को खिलाकर बाकी का बचा प्रसाद पाने को बैठें और जायें अतिथि। उनको हम खिलायें और वे हमारे सारे कुटुम्ब का भोजन खा जायें, जरा सा बचा हो, वह अपने शरीर को चुपड़ने लग जायें तो हम डंडा लें कि थप्पड़ मारें, वह  हमारे दिल की बात हम ही जानें उस समय।

मुद्गल ऋषि को कोई क्षोभ, शोक या आश्चर्य नहीं हुआ। सोचा, ‘ठीक है, ऋषि की, साधु की मौज ! दुर्वासा ऋषि ने देखा कि ये कुछ बोलते नहीं ! भोजन करके बोलेः “अच्छा मैं जाता हूँ। फिर कब बनता है ?”

“महाराज ! मेरा नियम है कि पूर्णिमा और अमावस्या को हवन होम करके यज्ञ का प्रसाद लेते हैं।”

“चिंता न करो, मैं आ जाऊँगा।”

इस दुर्वासा ऋषि छः बार आये। पन्द्रह दिन में एक बार आये तो छः बार के हुए तीन महीने। तीन महीने उस परिवार को बिना भोजन के रहना पड़ा, फिर भी उनके चित्त में क्षोभ नहीं। जरूरी नहीं कि अन्न से ही आपका शरीर पुष्ट रहता है। आपके अंदर पुष्ट रहने की, तंदुरुस्त रहने की, प्रसन्न रहने की कुंजी है तो प्रतिकूलता में भी आप सुखी रह सकते है। आपका मन जैसी धारणा बना लेता है वैसा ही आपके तन पर असर होता है। निष्काम सेवा से उनके चित्त में भूख और प्यास निवृत्त करने की एक रसायनी शक्ति उत्पन्न होने लगी। दुर्वासा जी प्रसन्न हो गये और बोल उठेः “क्या चाहिए वत्स ! बोलो।”

मुद्गल बोलेः “महाराज ! आपकी प्रसन्नता ही हमारे लिए सब कुछ है।”

इतनी सेवा करने के पश्चात भई महर्षि मुद्ग ने कुछ माँगा नहीं ! विचार कीजिये कि उनके विशुद्ध अंतःकरण में कितनी निष्कामता रही होगी ! दुर्वासा की प्रसन्नता से देवता और भी संतुष्ट हुए। स्वर्ग से देवदूत विमान लेकर आया और बोलाः “हे ऋषिवर ! आपका पुण्य इतना बढ़ गया है कि आप सशरीर स्वर्ग में पधारें। यज्ञ-याग करने वालों को मरने के बाद तो स्वर्ग मिलता ही है लेकिन आपका धैर्य, समता, सहनशक्ति व संतोषी जीवन इतना है कि अब आप सशरीर स्वर्ग में पधारें।

मुद्गल जी पूछते हैं- “स्वर्ग में क्या है ?”

“स्वर्ग में घूमने के लिए बाग़-बगीचे हैं, अप्सराएँ हैं, पीने के लिए अमृत है, नाना प्रकार के व्यंजन हैं, भोग हैं, बस स्वर्ग तो स्वर्ग है !” इस प्रकार देवदूत ने स्वर्ग की प्रशंसा की।

“जहाँ गुण होते हैं वहाँ दोष भी होते हैं, जहाँ सुख होता है वहाँ दुःख भी होता है, जहाँ अच्छा होता है वहाँ बुरा भी होता है। तो अच्छाई-बुराई दोनों का वर्णन करो।”

देवदूत ने कहाः “ऐश्वर्य तो बता दिये, अब बुराई सुनिये कि वहाँ आपस में राग-द्वेष रहता है। अपने से बड़ों को देखकर भय, बराबरी वालों से ईर्ष्या-टक्कर और छोटेवालों से घृणा होती है और अंत में स्वर्ग तो क्या ब्रह्मलोक तक के भी जो भोग हैं, उन्हें भोगकर भी गिरना पड़ता है। वापस यहीं आना पड़ता है।”

तब मुद्गल ऋषि कहते हैं-

“यत्र गत्वा न शोचन्ति न व्यथन्ति चलन्ति वा।

तदहं स्थानमन्यन्तं मार्गयिष्यामि केवलम्।। (महाभारत वनपर्वः 261.44)

मैं उस विनाशरहित परम धाम को ही प्राप्त करूँगा, जिसे प्राप्त कर लेने पर शोक, व्यथा, दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति हो जाती है।

मुझे स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक या वैकुण्ठलोक में नहीं जाना है, मुझे तो अपने स्वरूप में आना है। जो कहीं जाने से मिले ऐसे पद को मुझे नहीं पाना है और जिसको पाने के बाद फिर गिराया जाय ऐसे सुख को मुझे नहीं पाना है। मैं तो उस सुख में डुबकी मारूँगा-

दिले तस्वीर है यार !

जब भी गर्दन झुका ली और मुलाकात कर ली।

शोक की आत्यांतिक निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति ! न स पुनरावर्तते…. जहाँ से फिर पुनरागमन नहीं होता ऐसे आत्मपद में मुझे विश्रान्ति पाने दो। आप आये हैं, मुझे इन्द्रदेव ने आदर से बुलावा भेजा है, सबको धन्यवाद ! लेकिन मैं अपनी सेवा का पुरस्कार स्वर्ग नहीं चाहता। आप जहाँ से आये हो, कृप्या वहाँ जा सकते हैं।” और महर्षि ने देवदूत को सम्मानसहित विदाई दी।

महर्षि मुद्गल ने स्वर्ग का त्याग किया पर उसका अहंकार तक उनके मन में नहीं जगा। ऐसे ही भगवान के जो सच्चे भक्त होते हैं, वे दुःख सहते हैं, कष्ट सहते हैं लेकिन मन में कभी फरियाद नहीं करते, क्योंकि अंतर में निष्कामता जितनी अधिक होगी उतना ही परिशुद्ध आत्मरस उनमें प्रकट होता रहता है। अतः मन में दृढ़ निश्चय एवं सदभावना भरते चलो कि ‘भगवत्सेवार्थ ही आज से सारे कर्तव्य-कर्म करूँगा, वाहवाही के लिए नहीं। किसी को हलका (नीचा) दिखाने के लिए नहीं, कोई नश्वर चीज पाने के लिए नहीं, जो भी करूँगा परमात्मा के प्रसाद का अधिकारी होने के लिए, परमात्मा को प्रेम करने के लिए, परमात्मा के दैवी कार्य सम्पन्न करने के लिए ही करूँगा। इस प्रकार परमात्मा और ईश्वर-सम्प्राप्त महापुरुषों के दैवी कार्यों में अपने-आपको सहभागी बनाकर उस परम देव के प्रसाद से अपने-आपको पावन बनाता रहूँगा।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 26 अंक 221

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