Monthly Archives: May 2011

नश्वर लुटाया, शाश्वत पाया


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

स्वामी विवेकानंद जी के बाल्यकाल की बात है। तब उनका नाम नरेन्द्र था। जब भी कोई गरीब-गुरबा या भिखारी आकर उनसे कुछ माँगता तो अपने पुराने सँस्कार के कारण जो भी सामान मिलता वह दे डालते थे। घर में रूपया-पैसा या और कुछ नहीं मिलता तो बर्तन ही उठाकर दे देते। बर्तन हाथ न लगे तो किसी की भी कपड़ा उठाकर दे देते।

एक दिन कोई माँगने वाला आया तो उस समय इनके पास कुछ भी नहीं था। माँ को पता था कि ये भाई साहब किसी को कुछ भी उठाकर दे देंगे इसलिए सब संदूक नीचे के कमरे में बंद कर दिये थे। घर में और कुछ मिला नहीं तो नरेन्द्र ने क्या किया कि बाहर चले गये और माँगने वाले को अपने कपड़े उतारकर दे दिये। एकदम बबलू की तरह (नंगे होकर) आ गये, बबलू तो थे ही। माँ ने प्यार भरे गुस्से से डाँटते हुए कहाः “मेरा बेटा नंगा ! 9-10 साल का, इतना बड़ा बैल जैसा और नंगा होकर आया ! कपड़े कहाँ गये ?”

बोलेः “वह माँग रहा था….। बेचारे को पहनने को नहीं थे, उनके बच्चों के लिए दे दिये।”

माँ ने कहाः “चल।”  हाथ पकड़कर ले गयी, ऊपर के कमरे में बंद कर बाहर से ताला मार दिया और बोलीः ” तू सुधरेगा नहीं ! अब मैं तुझे खोलूँगी ही नहीं, तब पता चलेगा।”

माँ तो चली गयी। ये भाई साहब बैठे रहे। माँगने वाले ने देखा कि अपने दाता ऊपर हैं, दाता ने भी देख लिया माँगने वाला को।

“बालक दाता ! तुम्हारी जय हो ! कुछ मिल जाय।” दाता ने देखा कि अब तो कुछ है ही नहीं। इधर-उधर देखा तो माँ का संदूक पड़ा था। ‘माँ ताला लगाना भूल गयी है। वाह प्रभु ! तेरी कितनी कृपा है !’ संदूक खोला तो माँ की रेशमी साड़ियाँ पड़ी थीं। उठाकर खिड़की से माँगने वाले के फैले हाथों पर फेंक दीं। दाता आह्लादित हो गये और माँगने वाला निहाल हो गया। ‘प्रभु की जय हो ! दाता की जय हो !!’ माँ ने ‘जय हो, जय हो’ सुना तो सोचा, ‘इसने फिर क्या तूफान मचाया है !’ बाहर आकर देखा तो….

“अरे, किसने दी ये मेरी साड़ियाँ ?”

भिखारी बोलाः “आपके दाता बेटे ने ऊपर से फेंकी हैं।” माँ ने खिड़की की ओर देखा तो याद आया कि ‘ओहो ! संदूक खुला रह गया था।’ माँ को तो गुस्सा आना चाहिए था लेकिन धड़ाक-से दरवाजा खोला और प्यार करते हुए बोलीः “बेटा ! तू सब कुछ लुटाये बिना नहीं रहेगा, तू ऐसा। अब तुझे कौन समझाये ! तू तो ऐसा है मेरी बिटुआ !” जिसने सब लुटाया उसका सारा ब्रह्माण्ड अपना हो गया।

हमको भी कई बार ऐसा होता था और कई बार लुटाया भी। एक बार तो ऐसा लुटाया की चटाई तक दे डाली थी। धोती और कुर्ता भी दे दिया था, एक कच्छे में चल दिये। जो सब कुछ सर्वेश्वर का मानकर सर्वेश्वर के निमित्त बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय उसका सदुपयोग कर लेता है, उसके लिए सर्वेश्वर दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराये नहीं। इसका मतलब यह भी नहीं कि तुम किसी को गहने दे दो या कपड़े दे दो लेकिन उनमें ममता न रखो। ये चीजें पहले तुम्हारी नहीं थीं, बाद में नहीं रहेंगीं, इनका सदुपयोग कर लो, यथायोग्य अधिकारी के अनुसार देते चलो। शरीर को अपना न मानो, इसे ‘मै’ न मानो। जैसे दूसरे का शरीर हो, ऐसे ही अपने शरीर को सँभालो। व्यवहार चलाने के लिए खाओ-पियो, शरीर को ढको लेकिन मजा लेने के लिए नहीं। मजा लेना है तो परमात्मा-ज्ञान, परमात्म-शांति में गोता मरो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 21 अंक 221

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उद्यमः साहसं…..


आदि से पग-पग पर परमात्म-सहायता और आनंद का अनुभव करो

धैर्यशील व्यक्ति का मस्तिष्क सदा शांत रहता है। उसकी बुद्धि सदा ठिकाने पर रहती है। उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम इन दैवी गुणों से युक्त व्यक्ति आपदाओं और विफलताओं से भय नहीं खाता। अपने को मजबूत बनाने के लिए वह अनेकों उपाय खोज निकालता है।

उपरोक्त छः गुण सात्विक गुण है। जब तक इनका सम्पादन न कर लिया जाय, तब तक लौकिक या पारमार्थिक सफलता नहीं मिल सकती। इन गुणों का सम्पादन कर लेने पर संकल्पशक्ति का उपार्जन किया जा सकता है। पग-पग पर कठिनाइयाँ आ उपस्थित होती हैं किंतु धैर्यपूर्वक उनका सामना कर उद्योग में लगे रहना चाहिए। महात्मा गाँधी की सफलता का मूल मंत्र यही था। यही कारण था कि वे अपने ध्येय में सफलता प्राप्त कर सके। वे कभी हताश नहीं होते थे। संसार के महापुरुष इन गुणों के बल पर ही अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर पाये। तुम्हें भी इन गुणों का सम्पादन करना होगा।

एकाग्रता (धारणा) के अभ्यास में सफलता प्राप्त करने के लिए धैर्य की महान आवश्यकता है। ॐकार का दीर्घ गुँजन और भगवान या सदगुरु के श्रीचित्र को एकटक निहारना आरोग्य, धैर्य और संकल्पशक्ति विकसित करने का अनुपम साधन है। विद्युत-कुचालक आसन अवश्य बिछायें। 10-15 मिनट से आरम्भ करके थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते जायें। बाहर की व्यर्थ चेष्टाओं में, व्यर्थ चिंतन में दुर्लभ समय व्यर्थ न होने पाये। बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जो कुछ कठिनाइयों के आ जाने से काम छोड़ देते हैं, उनमें धैर्य और उद्योगशील स्वभाव की कमी है। ऐसा नहीं होना चाहिए। जरा-जरा बात में काम छोड़ देना उचित नहीं है।

चींटियाँ कितनी उद्यमी होती हैं ! चीनी और चावल के दाने भर-भर के अपने गोदामों में जमा कर रखती हैं। कितने धैर्य और उद्यम की आवश्यकता है एक-एक कर चावल के दानों और चीनी को ले जा के जमा करने के लिए !

मधुमक्खियाँ भी प्रत्येक फूल से शहद एकत्र कर छत्ते में जमा करती हैं, कितना धैर्य और उद्यमी स्वभाव चाहिए इसके लिए ! बड़ी-बड़ी नदियों पर बाँधों का निर्माण कराने वाले, पुल बाँधने वाले इंजीनियरों के धैर्य की प्रशंसा क्यों न की जाय ! कितना धैर्यशील और उद्यमपरायण होगा वह वैज्ञानिक जिसने हीरे के सही रूप (आण्विक संरचना) को पहचाना !

धैर्यशील व्यक्ति अपने क्रोध को सिर नहीं उठाने देता। अपने क्रोधी स्वभाव पर विजय पाने के लिए धैर्य एक समर्थ और सबल शस्त्र है। धैर्य के अभ्यास से व्यक्ति को आंतरिक शक्ति का अनुभव होता है। अपने दिन भर के कार्यों को धैर्यपूर्वक करने से आनंद, शांति और संतोष का अनुभव होता है। धीरे-धीरे इस गुण को अपने अंदर विकसित करो। इस गुण के विकास के लिए सदा उत्कण्ठित रहो। मन में सदा धैर्य की मानसिक मूर्ति बसी हुई रहनी चाहिए। मन में निरंतर विचार रहा तो समय आने पर धैर्य स्वयं ही प्रत्यक्ष होने लग जायेगा। नित्यप्रति प्रातःकाल उठते ही उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम इन दैवी गुणों का विकास करने का संकल्प करो। प्रतिदिन इस क्रम को दुहराते जाओगे तो असफलता के बावजदू भी एक-न-एक दिन सफल होओगे। पग-पग पर परमात्मसत्ता, चेतना तुम्हारे स्वभाव में सहज में प्रकट होने लगेगी। सच्चे महापुरुषों के सदगुण तुम्हारे अंदर खिलने लगेंगे। इन गुणों के सिवाय और चालबाजी करके सत्ता व सम्पदा हासिल कर भी ली तो पाकिस्तान के भूतपूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ और मिश्र के राष्ट्रपति मुबारक की गति जगजाहिर है। मृत्यु के बाद किन-किन योनियों की परेशानियाँ भुगतनी पड़ेंगी उसका अंदाज लगाया नहीं जा सकता। अतः शास्त्रों के द्वारा बताये गये उद्यम, साहस, धैर्य आदि सदगुणों को विकसित करो। पग-पग पर परमात्मसत्ता की स्फुरणा, सहायता और एकत्व के आनंद का एहसास करो। सच्ची उन्नति आत्मवेत्ता जानते हैं, उसको जानो और आकर्षणों से बचो।

किसी भी बात की शिकायत नहीं करनी चाहिए। मन को चिड़चिड़ेपन से मुक्त रखना चाहिए।  सोचो कि इन गुणों को कारण से क्या-क्या लाभ होंगे और तुम किन-किन व्यवसायों में इन गुणों का सहारा लोगे। इनका सहारा लेकर परम सफलता को वरण करने का संकल्प करो। ॐ उद्यम…. ॐ साहस…. ॐआरोग्य…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 18, अंक 337

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सफल जीवन किसका ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

जीवन सफल उसी का है जो बिना विकारों, बिना बेईमानी, बिना लूट-खसोट के सहज में सुखी रह सकता है, औरों को सुखी कर सकता है।

एक बार हरि बाबा बदायूँ जिले (उ.प्र.) के गाँव के पास गंगातट पर पहुँचे। उस समय गंगा जी में बाढ़ आयी हुई थी। गंगा जी का पानी इतना फैला हुआ था कि समुद्र की खबर दे रहा था। लोग बेघर हो गये थे। उन्हें दुःखी देख बाबा ने बाँध बँधवाकर उनकी विपत्ति दूर करने का निश्चय किया। उन्होंने अंग्रेज सरकार को कहाः “बाँध बनवाओ।”

बदमाश अंग्रेजों ने कहाः “हमारे पास पैसा नहीं है, फंड नहीं है।”

हरि बाबा ने कहाः “कोई बात नहीं।”

सरकार अपना कर्तव्य भूल गयी तो सफल जीवन वाले ने उठाया फावड़ा, गेंती (कुदाल) और टोकरी। मिट्टी भरी, बोलेः “बाँध हम बनायेंगे।” सैंकड़ों नहीं, हजारों लोग फावड़े और टोकरियाँ लेकर बाबा के साथ बाँध बाँधने में लग गये। कई मजबूत तो कई लूले-लँगड़े भी लगे। कई गरीब, मोहताज और कई किसान लगे। पाँच पचीस बड़े घराने के लोग भी जुट गये। गरीब गुरबों की गरीबी मिटी, मोहताजों की मोहताजी मिटी, व्यसनियों के व्यसन मिटे, पापियों के पाप मिटे….. ‘हरि ॐ, हरि ॐ… हरि बोल, हरि बोल’ के सामूहिक जयघोष ने आसपास के सभी गाँवों को हरिमय कर डाला। बारिश होने के पहले बाँध तैयार हो गया।

‘हरि बाबा का बाँध’ के नाम से आज भी वह दिखाई देगा। यह है सफल जीवन ! रोटी तो माँगकर खा ली और समाज को बाँध बनाकर दे दिया। समाज की तकलीफें दूर कर दीं।

बाँध निर्मित हो जाने के बाद बाबा ने वहाँ विशाल संकीर्तन-भवन, मंदिर तथा संतों के लिए कुटीरों का निर्माण कराया। कथा-कीर्तन एवं सत्संग-सत्रों का आयोजन कराया। प्रतिदिन लोग दूर-दूर से आकर कथा-कीर्तन तथा संत-दर्शन से लाभान्वित होने लगे।

सफल जीवनवाला एक व्यक्ति भी जहाँ होता है, वहाँ चारों तरफ सुखद माहौल बनाने में सक्षम होती है उनकी ज्ञानमयी दृष्टि ! अनासक्ति से भरा हुआ आत्मस्वरूप सफल जीवन नहीं तो क्या है ! सफल जीवन जीना है तो जहाँ भी मौका मिले, तन से भववत्प्रीति के निमित्त सेवा कर लो। ढिंढोरा मत पीटो। बाबा ने आसपास के सैंकड़ों गाँवों को हरा-भरा करने में सफलता पायी लेकिन मैंने बाँध बनवाया है, यह अहंकार नहीं आया। यह सफल जीवन है।

मन से सुखी आदमी को देखकर प्रसन्न हो जाओ, दुःखी आदमी को देखकर द्रवीभूत हो जाओ। बुराई रहित होने का प्रयत्न करो। सफल जीवन आपके कदमों में आ जायेगा। भलाई करो लेकिन अभिमान छोड़ो, सफल जीवन की यात्रा ईमानदारी से होगी। गुरु ने जो मंत्र दिया है उस मंत्र को अर्थसहित जपो और विश्रांतियोग में जाओ। इससे सफल जीवन के द्वार पर पहुँच जाओगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 10 अंक 221

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