गुरुवचन करते हैं रक्षण-पूज्य बापू जी

गुरुवचन करते हैं रक्षण-पूज्य बापू जी


‘राजवैभव में, घर-बार में काम, क्रोध, लोभ वासनाओं की बहुलता होती है और ईश्वर को पाना ही मनुष्य जीवन का सार है।’ – ऐसा सोचकर रघु राजा अपने पुत्र अज को राज्यवैभव देकर ब्रह्म-परमात्मा की प्राप्ति के लिए एकांत जंगल में चले गये।

एक दिन जब रघु राजा तप कर रहे थे तो एक विप्र (ब्राह्मण) के पीछे राक्षस पड़ा। राक्षस कह रहा थाः ‘तू मेरा प्रिय भोजन है। मैं भूखा हूँ और ब्रह्मा जी ने तुझे मेरे लिए ही भेजा है।’ विप्र को तो प्राण बचाने थे, वह खूब दौड़ा-खूब दौड़ा और राक्षस को भी प्राण बचाने थे क्योंकि भूख का मारा था। विप्र दौड़ते-दौड़ते राजा रघु के चरणों में आया, बोलाः “महाराज ! मैं आपकी शरण में हूँ।”

रघु राजा ने कहाः “क्या बात है ?”

“महाराज ! मुझे बड़ा डर लग रहा है।”

“निर्भय हो जाओ।”

सबसे बड़ा अभयदान है। सत्संग सुनने से अभयदान मिलता है। राजा ने उसे निर्भयता का दान दे दिया। अब जो शरण आया है और जिसे अभयदान दे दिया है, उसकी रक्षा तो अपने प्राणों की बाजी लगा के भी करना कर्तव्य हो जाता है, शरणागतवत्सलता का यह सिद्धान्त है। रघु राजा इस सिद्धान्त को जानते थे।

इतने में वह राक्षस ‘छोड़ो-छोड़ो’ कहता हुआ वहाँ आ पहुँचा। बोलाः “महाराज ! आप इसे छोड़ दो। मैं भूखा हूँ। यह आहार ब्रह्मा जी ने मेरे लिए तय कर रखा है।”

“यह मेरी शरण आया है। मैं इसका त्याग नहीं करूँगा।”

“मैं भूखा हूँ। आप इसको शरण देंगे तो मैं भूख से मर जाऊँगा। आप तपस्वी, प्राणिमात्र में भगवान को देने वाले, सबके लिए निर्वैरता रखने वाले हैं तो फिर मेरा शिकार छीनकर मेरे लिए वैरी जैसा व्यवहार क्यों करते हो राजन् ? आप इसको बचाओगे तो मुझे मारने का पाप आपको लगेगा।”

“मैं इसका त्याग नहीं करूँगा। तुम अपनी पसंद का कोई भी दूसरा आहार माँग लो।”

“मैं राक्षस हूँ। मांस मेरा प्रिय आहार है। आप तो शास्त्रज्ञ हैं, जानते हैं कि अपने कारण कोई भूख से पीड़ित होकर मरे तो पाप लगता है। इसको शरण दे बैठे हैं तो क्या आप मुझे मारने का पाप करेंगे ?”

रघु राजा असमंजस में पड़ गये कि ‘मेरा व्रत है निर्वैरः सर्वभूतेषु…… किसी से वैर न करना, किसी का बुरा न चाहना। अब ब्राह्मण की रक्षा करता हूँ तो यह बेचारा राक्षस भूखा मारता है और राक्षस की रक्षा करता हूँ तो ब्राह्मण की जान देनी पड़ती है। अब क्या करूँ ?’तब उन्हें गुरु वसिष्ठ जी का सत्संग याद आ गया कि ‘कठिनता के समय में हरिनाम-स्मरण ही एकमात्र रास्ता है।’

आप सत्संग सुनते हो उस समय ही आपका भला होता है ऐसी बात नहीं है। सत्संग के शब्द आपको बड़ी-बड़ी विपदाओं से बचायेंगे और बड़े-बड़े आकर्षणों से, मुसीबतों से भी बचायेंगे।

मनुष्य जब असमंजस में पड़े तो उसे क्या करना चाहिए ? भगवान का नाम लेकर शांत हो जाय… फिर भगवान का नाम ले और फिर शांत हो जाय।

रघु राजा ने निश्चल चित्त से श्रीहरि का ध्यान किया और कहाः “पातु मां भगवान विष्णुः। भगवान मुझे रास्ता बितायें। हरि ओऽऽ…म्। हरि ! हरि ! हे मार्गदर्शक ! हे दीनबन्धु ! दीनानाथ ! मेरी डोरी तेरे हाथ। हम हरि की शरण हैं। जो सबमें बसा है विष्णु, हम उसकी शरण हैं।”

भगवान की स्मृति करते ही देखते-देखते राक्षस को दिव्य आकृति प्राप्त हुई। भगवान की स्मृति ने उस राक्षस के कर्म काट दिये। वह कहता हैः “साधो ! साधो !! मैं पिछले जन्म में शतद्युम्न राजा था। यह राक्षस का रूप मुझे मेरे दुष्कर्मों की वजह से महर्षि वसिष्ठजी के श्राप से मिला था। राजन् ! तुमने हरि की शरण ली। तुम्हारे जैसे धर्मात्मा, तपस्वी के मुख से हरिनाम सुनकर मुझे मुक्ति मिल गयी। अब मुझे इस ब्राह्मण की हत्या करके पेट नहीं भरना है, मैं भी हरि की शरण हूँ।” राक्षस की सद्गति हुई, ब्राह्मण को अभयदान मिला और रघु राजा तृप्तात्मा हो गये। क्या भगवान का सुमिरन है ! क्या सत्संग का एक वचन है ! जो सत्संग का फायदा लेते हैं वे धनभागी हैं और जो दूसरों को सत्संग दिलाते हैं उनके भाग्य का तो कहना ही क्या !

धन्या माता पिता धन्यो….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 6 अंक 222

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