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यह तो गुरु का अधिकार है !


ब्रह्मनिष्ठ पूज्य बापू जी की परम हितकारी अमृतवाणी

एक बड़ा भारी पण्डित था, वामन पंडित। वह दिग्विजय की मशाल लेकर घूमा। जो उससे शास्त्रार्थ करे, उसको परास्त कर देता। चलते-चलते थकान के कारण एक वृक्ष के नीचे बैठा। संध्या का समय था। उस वृक्ष पर एक ब्रह्मराक्षस रहता था। दूसरा ब्रह्मराक्षस बैठने को आया तो पहले वाला बोलाः “ऐ ! हट जा, हट जा।”

दूसरा बोलाः “बैठने की जगह तो है और तू भी ब्रह्मराक्षस, मैं भी ब्रह्मराक्षस, फिर मुझे क्यों हटाता है भैया ?”

“अरे, तेरे को पता नहीं है। यह पंडित मरकर इधर आयेगा, ब्रह्मराक्षस होकर यहाँ रहेगा। यह उसकी जगह है।”

“क्यों ?”

“वह शास्त्रार्थ करके दूसरों को नीचा दिखाता है, अपने अहं को पोसता है। शास्त्र तो अच्छे हैं लेकिन उसने अहं पोसने का रास्ता अपनाया है। अहं पोसने के लिए जो धर्म का उपयोग करता है, वह ब्रह्मराक्षस होने के ही काबिल है न ! उसका स्थान यही है।”

पंडित वृक्ष के नीचे संध्या कर रहा था। उसकी कुछ पुण्याई होगी, संध्या का कुछ प्रभाव होगा। इन दोनों का संवाद वामन पंडित ने सुन लिया। उसने सोचा, ‘बाप रे ! मैं इतना बड़ा भारी  पंडित, मेरे नाम से सारे विद्वान कन्नी काटते हैं, और मैं मरूँगा तो ब्रह्मराक्षस होऊँगा ! जिसको विद्या का गर्व होता है वही तो ब्रह्मराक्षस होता है ! क्या मेरा विद्या का गर्व मुझे  ब्रह्मराक्षस की योनि में ले जायेगा !’

इसीलिए भक्तिमार्ग में ‘मैं’ को झुकाने के लिए पत्थर की मूर्ति के आगे भी लेटकर प्रणाम करना होता है। इस ‘मैं’ को ही मिटाने की यह व्यवस्था है, नहीं तो मूर्ति को तुम्हारे सिर झुकाने से क्या लेना है !

संध्याकाल में सुषुम्ना नाड़ी खुली रहती है। संध्याकाल कल्याणकारी कालों में से है। चार संध्याकाल होते हैं। सुबह सूर्योदय नहीं हुआ हो पर होने वाला हो और चन्द्रमा दिखाई देने बंद हुए हों तब संधिकाल होता है, वह मंत्रसिद्धि का योग है। उस समय देवता तो सोते हैं, देवता माने इन्द्रियों का आकर्षण सोता है और मंत्र देवता जाग्रत होते हैं। वह आपका शुभ संकल्प फलने की अवस्था होती है। दूसरा दोपहर को 12 बजने के कुछ मिनट पहले और कुछ मिनट बाद संधिकाल होता है। तीसरा सूर्य अस्ताचल को नहीं गये लेकिन सूर्य का प्रकाश दिन जैसा नहीं रहा, कुछ लालिमा रही। सूर्य जब विदा हो रहे हों वह संधिकाल है। चौथा रात्रि को 12 बजे का संधिकाल होता है। इन संधिकालों को चतुर्मास में जो सँभाल ले और ध्यान-भजन करे, उसके ध्यान-भजन में विशेष सफलता, बरकत आदि की सम्भावना है।

अब उस पंडित के लिए चतुर्मास था कि कौन सा मास था लेकिन पंडित की वह वेला धनभागी वेला थी। जिस वेला में किसी के निमित्त आदमी का अहंकार विसर्जित हो, ममता विसर्जित हो, भगवान की प्रीति जगह, भगवान की शरण जाय,  वह धनभागी घड़ियाँ होती हैं।

वामन पंडित सभी विजयपत्र फाड़ दिये, सारे शास्त्र वहीं विसर्जित कर दिये और हिमालय को चला गया। मैं वामन पंडित को खूब-खूब धन्यवाद दूँगा। ब्रह्मराक्षसों की बात सुनकर सर्वस्व त्यागने का कैसा सामर्थ्य था ! मनुष्य के पास यह बहुत बड़ी ईश्वरीय देन है – सर्वत्याग का सामर्थ्य। मौत तो सर्वत्याग करा देगी, जीते जी सर्वस्व त्याग का सामर्थ्य बना रहे तो सर्व जिसका है, वह सर्वेश्वर आपका आत्मादेव है, वह प्रकट हो जायेगा।

त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्। (गीताः 12.12)

वामन पंडित ने वर्षों तपस्या की लेकिन भगवान प्रकट नहीं हुए और न तत्त्वरूप से ही अनुभव हुआ। तो उन्होंने सोचा कि ‘इतना-इतना किया, कुछ नहीं हो रहा है तो अब जीकर क्या करेंगे ! इस अहंकारी शरीर को जिलाकर क्या करना !’ ऐसा सोचकर पहाड़ की चोटी पर चढ़े और ‘जय श्री हरि’ करके नीचे कूदने को गये। हरि तो हरि हैं। मेरे गुरु भी हरि हैं, हरि गुरु हैं। सर्वदेवमयो गुरुः। ‘गु’, ‘र’, ‘उ’… ‘गु’ माने सिद्धिदायक बीज, ‘रू’ माने अज्ञान हटाने वाले, उर में प्रकट होने वाले। भगवान का एक नाम ‘गुरु’ भी है। गुरु  प्रकट हुए, हरि प्रकट हुए। हरि, गुरु – ये सब एक ही सद्वस्तु के भिन्न-भिन्न नाम हैं। ईश्वर तो अंतरात्मा है, बाहर प्रकट होकर हाथों में ले  लिया और वामन पंडित को रोक दिया। अपना बायाँ हाथ सिर पर रखकर बोलेः “वामन पंडित ! तेरा मंगल हो।”

“भगवान ! आप इतनी तपस्या और इतनी कसौटी के बाद मिले लेकिन फिर भी… शास्त्र ने तो कहा है कि दायाँ हाथ सिर पर रखते हैं, आपने बायाँ क्यों रखा ?”

“अरे वामन ! तू इतना विद्वान होकर यह नहीं जानता कि सिर पर दायाँ हाथ रखना गुरु का अधिकार है, भगवान का नहीं। जब तक सिर पर गुरु का दायाँ हाथ नहीं आता, तब यात्रा पूरी नहीं होती।”

अब जरूरी नहीं कि गुरु अपना दायाँ हाथ ऐसे ही रखें, मानसिक रूप से भी रख सकते हैं, दृष्टि से भी होता है, वह तो गुरु जानते हैं।

“भगवान ! आपने गुरु के अधिकार की सुरक्षा करने के लिए मेरे सिर पर अपना दायाँ हाथ न रखकर बायाँ हाथ रखा ?”

“हाँ।”

“तो क्या गुरु का अधिकार आपसे भी बड़ा है ?”

“बड़ा है, मैं अवतार लेकर भी गुरु के शरणागत होता हूँ। गुरु तो गुरु ही हैं। वामन पंडित ! जब तक गुरु का ज्ञान नहीं मिलता, तब तक मेरा मायावी रूप दिखता है। वह बुलाने पर प्रकट होता है और बाद में अंतर्धान हो जाता है। कभी किसी निमित्त प्रकट हुआ थोड़ी देर के लिए, फिर अदृश्य हो जाता है लेकिन गुरु तो….।”

“दायाँ हाथ सिर पर रखने वाले गुरु मुझे कहाँ मिलेंगे ?”

“वामन ! सज्जनगढ़ में मिलेंगे।”

“अच्छा, समर्थ रामदास !”

प्रभु को प्रणाम किया। प्रभु तो अंतर्धान हो गये और ये भाई साहब पहुँचे महाराष्ट्र के सज्जनगढ़ में। समर्थ रामदास जी की स्तुति की। रामदास प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना दायाँ हाथ पीठ पर रखा और बोलेः “वाह-वाह ! आ गये, अपने घर आ गये, ठीक ! अपना अहंकार छोड़ने के लिए तपस्या की और भगवान ने तुम्हें दर्शन दिया, फिर इधर भेजा है, शाबाश !”

पंडित बोलाः “गुरुदेव ! आपने दायाँ हाथ तो रखा है लेकिन सिर पर क्यों नहीं रखते ?”

“अरे पगले ! सिर पर तो नारायण ने अपना बायाँ हाथ रख दिया न !”

“फिर आप दायाँ हाथ क्यों नहीं रखते ?”

“अरे, नारायण का बायाँ भी नारायण का है दायाँ भी नारायण का है। जब नारायण ने रक दिया तो यहाँ भी तो नारायण है। सब नारायण ही नारायण है। नारायण में से समर्थ रामदास हैं।” दो वचन सुना दिये। वामन पंडित अहंकार रहित हो गये, आत्मजागृति हो गयी, ब्राह्मी स्थिति हो गयी। क्या महापुरुषों की कृपा और क्या सामर्थ्य है ! वामन पंडित गद्गद हो गये कि ‘मेरे सारे शास्त्र और सारी तपस्या गुरुकृपा के आगे बहुत छोटी हो गयी।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 224

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खुशी का मूल किसमें ? – पूज्य बापू जी


शरणानंद जी महाराज भिक्षा के लिए किसी द्वार पर गये तो उस घर के लोगों को उन्होंने बड़ा खुश देखा।

महाराज ने पूछाः “अरे ! किसी बात की खुशी है बेटे-बेटियाँ ?”

“महाराज ! क्या बतायें, आज तो बहुत मजा आ रहा है। बहुत खुशी हो रही है।”

शरणानंद जीः “अरे भाई ! कुछ तो बताओ, आखिर बात क्या है ?”

“भैया बी.ए. में पास हो गया है, समाचार आया है, इसलिए खुश हैं।”

सारे के सारे लोग खुश थे। लेकिन संत जब मिलते हैं और बात करते हैं तो आपकी खुशी स्थायी हो और खुशी के मूल में यात्रा हो, उस नजरिये से बात करते हैं। आप मौत के सिर पर पैर रखकर जीवनदाता को मिलो, उस नजरिये से आपके बीच आते हैं। सच्चे संतों को आपसे कुछ लेना नहीं है, आपको देना ही देना है।

शरणानंद जीः “अभी जो आपको इतनी खुशी हो रही है, कल तक ऐसी की ऐसी खुशी को आप टिका सकते हो क्या ? अब वह नापास तो होगा नहीं ! पास है तो पास ही रहेगा। कल भी पास रहेगा, परसों भी पास रहेगा। लेकिन उसके पास होने की खुशी अभी जो हो रही है वह कल भी ऐसी टिकेगी क्या ? सबकी इच्छा थी वह पास हो जाय और वह पास हो  गया, समाचार आ गया। तुम्हारी इच्छा पूरी हो गयी। वह इच्छा निकल गयी उस वक्त की खुशी है। खुशी तो आत्मदेव की है !” सब चुप हो गये।

“तुम्हारी इच्छा पूरी हुई उसकी खुशी है कि कोई और खुशी है ? तुम्हारी एक इच्छा निवृत्त हुई, उसका सुख है तुम्हें। भाई की सफलता की खुशी है कि आपकी इच्छा निवृत्त हुई उसकी खुशी है ?

अच्छा, कौन सी श्रेणी से पास हुआ है ? प्रथम श्रेणी से पास हुआ है कि दूसरी, तीसरी श्रेणी से ? एम. ए. हो सकेगा ? नौकरी पा सकेगा ? अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा ?”

अब वे लोग चुप !

आपकी कोई मनचाही बात हो जाती है और आप जितने खुश होते हैं, वैसी खुशी दूसरे दिन तक रहती है क्या ? नहीं। आपकी मनचाही बात हुई तो इच्छा हट गयी। आप इच्छा रहित पलों में आ गये। तुम्हारी यह इच्छारहित दशा ही अंदर का सुख लाती है। जिसकी एक इच्छा हट जाती है, वह इतना सुखी होता ह तो जिसकी सारी इच्छाएँ हट गयीं, उसके सुख का क्या तुम वर्णन कर सकते हो ? एक इच्छा निवृत्त होने से लोग इतने खुश होते हैं तो जिनकी अपने सुख की सारी इच्छाएँ निवृत्त हो गयीं, उनके पास कितना सुख होगा ! उन महापुरुष ने सबको सात्त्विक बुद्धि में प्रवेश करने के लिए मजबूर कर दिया।

जिसकी सुखी होने की कामनाएँ मिट गयीं, वह कितना सुखी है ! जिसकी बाह्य सफलताओं की कामनाएँ मिट गयीं, वह कितना सफल है ! बाह्य आकर्षण के बिना ही वह स्वयं आकर्षण का केन्द्र बन गया। कितना सफल है ! इन्द्रदेव ऐसे महापुरुष का पूजन करके भाग्य बना लेते हैं। देवता ऐसे ब्रह्मज्ञानी का दीदार करके अपना पुण्य बढ़ा लेते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 5, अंक 224

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अपनी समझ बढ़ाओ – पूज्य बापू जी


यह अलौकिक अर्थात् अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् इस संसार से तर जाते हैं।’

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मामायमेतां तरन्ति ते।। (गीताः 7.14)

हे अर्जुन ! मुझ अंतर्यामी आत्मदेव की माया दुस्तर है, पर जो मेरे को प्रपन्न (शरणागत) होते हैं उनके लिए मेरी माया गोपद जैसी है, गाय के पग के खुर जैसी है। जिनको जगत सच्चा लगता है उनके लिए मेरी माया दुस्तर है।

जय-विजय ने सनकादि ऋषियों का अपमान किया। उन सेवकों को सनकादि ऋषियों का श्राप मिला। वे रावण और कुम्भकर्ण हुए। भगवान अंतर्यामी हैं तो भी क्या हो गया ! सेवकों के अपने कर्म, अपनी इच्छा, अपने प्रारब्ध हैं। कोई कहे, भगवान अंतर्यामी हैं तो यह क्यों होने दिया ? अरे, तेरी बुद्धि में खबर नहीं पड़ती भाई ! अंतर्यामी-अंतर्यामी मतलब क्या ? मतलब जगत के व्यवहार को जगत की रीति से नहीं चलने देगा, इसका नाम अंतर्यामी है ? गुरु अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों ? भगवान अंतर्यामी  हैं तो ऐसा क्यों ?…. ऐसे कुतर्क से पुण्याई और शांति सब खो जाती है।

कबीरा निंद न मिलो पापी मिलो हजार।

एक  निंदक के माथ पर लाख पापिन को भार।।

निंदक अपने दिमाग में कुतर्क भर के रखता है इसलिए उसकी शांति चली जाती है, उसका कर्मयोग भाग जाता है, भक्तियोग भाग जाता है और फिर खदबदाता रहता है।

भगवान अंतर्यामी हैं तो ऐसा क्यों हुआ ? भगवान सर्वसमर्थ हैं और जिनके घर आने वाले हैं ऐसे वसुदेव-देवकी को जेल भोगना पड़े, ऐसा क्यों ? पैर में जंजीरें, हाथ में जंजीरें ऐसा क्यों ? राम जी अंतर्यामी हैं तो मंथरा के भड़काने को तो जानते थे, मंथरा को पहले  ही निकाल देते नौकरी से…. कैकेयी को मंथरा के प्रभाव से बाहर कर देते…. ! विधि की लीलाओं को समझने के लिए गहरी नज़र चाहिए। तर्क-कुतर्क करना है तो कदम-कदम पर होगा लेकिन श्रद्धा की नज़र से देखो तो यह भगवान की माया है। जो भगवान की शरण जाता है उसके लिए यह गोपद की नाईं नन्हीं हो जाती है और जो अश्रद्धा  और कुतर्क की शरण जाता है उसके लिए माया विशाल, गम्भीर संसार-सागर हो जाती है। कई डूब जाते हैं उसमें।

गुरु अंतर्यामी हैं तो हमारे से कभी-कभी ऐसा गुरुजी पूछते थे कि लगे हमारे गुरु अंतर्यामी हैं, कैसे ? लेकिन हमारे मन में ऐसा कभी नहीं आया। अंतर्यामी माने क्या ? जिन्होंने अंतरात्मा में विश्राम पाया है। जब मौज आयी तो अंतर्यामीपने की लीला कर देते हैं, नहीं आयी तो साधारण मनुष्य की नाईं जीने में उनको क्या घाटा है ! भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी नारदजी से पूछते  हैं। भगवान अंतर्यामी हैं फिर भी सीता जी के लिए दर-दर पूछते हैं तो उनकी ऐसी लीला है ! उनके अंतर्यामीपने की व्याख्या तुमको क्या पता चले ! पूरे ब्रह्माण्ड में चाहे उथल-पुथल हो जाय लेकिन व्यक्ति का मन न हिले ऐसी श्रद्धा हो, फिर साधक को कुछ नहीं करना पड़ता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 4 अंक 224

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