संसार मुसाफिरखाना

संसार मुसाफिरखाना


भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज

यह दुनिया सराय है। सराय में हर चीज से काम निकाला जाता है। वह किसी यात्री की निजी सम्पत्ति नहीं है।

प्रत्येक यात्री जैसे सराय में थोड़े समय के लिए सुख लेकर तत्पश्चात् अपने-अपने देश को जाता है, वैसे ही हम जो धन, माल, परिवार देखते हैं, वह सब थोड़े समय के लिए है। अतः उनमें आसक्त न होओ।

दुनिया रूपी सराय में रहते हुए भी उससे निर्लेप रहा करो। जैसे कमल का फूल पानी में रहता है परंतु पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं रहती, इस प्रकार संसार में रहो।

तुलसीदास जी कहते हैं-

तुलसी इस संसार में भाँति-भाँति के लोग।

हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।

नौका में कई चढ़ रहे हैं और उतर रहे हैं, परंतु कोई भी उसे अपने रहने का स्थान नहीं समझता, वैसे हम संसार में रहें।

घर को स्वर्ग बनाओ

माताओं और भाईयों को चाहिए कि घरों को स्वर्ग बनायें। बँगले में रहो अथवा सादी झोंपड़ी में, उसे सराय (मुसाफिरखाना) समझकर संतोष में रहो। चाहे बहुत मिले चाहे थोड़ा मिले, हर स्थिति में धैर्य, शांति और शुक्र में रहो।

जिस रंग में मालिक राखे,

उसी रंग में रहना, कभी कुछ न कहना।

स्वयं को कभी दुःखी मत समझो। बिना संतोष के मनुष्य बार-बार जलता रहता है। घर में लड़ाई-झगड़ा आग समान है। सबमें परमात्मा की ज्योति समझकर सबसे प्रेम का बर्ताव करो। आसक्ति न रखो। वह तुम्हें दुःख देगी। तुम सराय में जाते हो, वहाँ कई चीजें मिलती हैं तो क्या उनमें ममता रखते हो ? नहीं। वैसे यह मुसाफिरखाना है। यहाँ से चलना है। संसार एक सराय के समान है, ऐसे जानो। सब वस्तुओं से काम निकालो किंतु आसक्ति किसी भी में  न रखो। आसक्ति, अहंकार और वासनाओं को छोड़ दो, फिर तो आनंद ही आनंद है।

देह से भिन्न

यह शरीर न पहले था और न बाद में ही रहेगा, अपितु आत्मा-ही-आत्मा, आनंद ही आनंद, एक ब्रह्म ही व्यापक, अखण्ड, सबका साक्षी, सबमें एक समान है। यह देह पाँच तत्त्वों की बनी है, जो किराये पर खरीद करके आये हैं, परंतु हम अपने को देह समझ बैठे हैं। देह जिन पाँच तत्त्वों की बनी हुई है, हम वे तत्त्व नहीं, न हममें वे तत्त्व हैं।

जीवन का उद्देश्य

मनुष्य शरीर, जाति, वर्ग, आश्रम, धर्म आदि से अपनी एकता करके उनका अभिमान करने लगता है, उन्हें अपना समझता है और उनके अनुसार स्वयं को कई बंधनों में बाँधकर राग-द्वेष करने लगता है, तभी उसका मन अशुद्ध रहता है। अतः साधक को यही विश्वास और निश्चय करना चाहिए कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ। मुझे मनुष्य – शरीर भगवान की कृपा से साधना के लिए मिला है।’ यह निश्चय करके शरीर में सुख की भावना नहीं रखना चाहिए। जो प्राप्त हो उसका शुद्ध उपयोग करना चाहिए। सत्संग सदैव करते रहना चाहिए, जीवन के अंतिम समय तक। सत्संग से ही सत्य को समझा जा सकेगा। जहाँ सत्संग न होता हो वहाँ सत्शास्त्र का अभ्यास करना चाहिए। वह भी सत्संग है। संतों और सत्शास्त्रों के वचन ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार अंत तक करते रहना चाहिए। सदैव दृढ़ निश्चय से स्वयं को जानना चाहिए, उससे कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। चाहे कितने भी कष्ट एवं दुःख आयें किंतु लोहे जैसा दृढ़ होकर दृढ़ता से कार्य करते रहना चाहिए और आगे बढ़कर आनंद प्राप्त करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 16,19 अंक 224

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