अमूल्य औषधि

अमूल्य औषधि


भगवन्नाम की महिमा का वर्णन करते हुए संत विनोबाजी भावे कहते हैं- “मेरी तो यह धारणा है कि सभी रोगों और कष्टों की अचूक दवा ईश्वर में श्रद्धा रखकर भक्तिभाव से उपासना में तल्लीन रहना ही है। यदि आसपास भगवद्भक्ति का वातावरण रहे, भगवान के भक्तों द्वारा भजन होता रहे, तब कुछ पूछना ही नहीं है। इससे रोगी को परम शांति मिलेगी और उसके जीवन की बीमारी भी दूर हो जायेगी।

दो दिन मुझे बुखार आया पर सुबह-शाम की प्रार्थना ज्यों-की-त्यों चलती रही। मेरी धारणा है कि बीमार मनुष्य के आसपास भगवान के भक्तों, संतों महात्माओं के द्वारा लिखित भजनों का, भगवन्नाम का मधुर स्वर में गान करने से बेहतर न तो कोई दवा हो सकती है और न तो कोई सेवा। जो शांति और आराम नामस्मरण से प्राप्त होता वह वह अन्यत्र दुर्लभ है। और जहाँ अनेक भक्त मिलकर सामूहिक प्रार्थना करते हों, भजन गाते हों, वहाँ का तो पूछना ही क्या है !

परंतु लोग श्रद्धारूपी अचूक दवा के रहते हुए भी नाना प्रकार की, नाना रूप की कृत्रिम दवाएँ लेते देते हैं। सूर्य, पानी और आकाश आदि प्राकृतिक चीजों का उपयोग न करके महँगे गलत इलाज करते हैं।

एक ऋषि ने सोमदेव से औषधि के लिए पूछा तो सोमदेव ने ऋषि को उत्तर दिया कि ‘पानी में सभी औषधियाँ निहित हैं। पानी का सेवन और परमेश्वर का स्मरण करो। सारे रोग दुर होंगे।’ ऐसा ऋग्वेद में लिखा है। पानी के साथ हवा और आकाश की मदद रोग से बचने के लिए लेनी चाहिए।

भगवान यह नहीं देखते कि भक्त बैठकर भजन कर रहा है या सो करके, खाकर अथवा स्नान करके। वे तो सिर्फ हृदयपूर्वक की हुई भक्ति चाहते हैं। (बीमारी के कारण) दो दिनों तक मैं पड़ा-पड़ा प्रार्थना सुनता था पर तीसरे दिन बैठने की इच्छा हुई। भगवान बड़े दयालु हैं। वे इन सब बातों पर ध्यान नहीं देते। वे तो हृदय की भक्ति देखकर ही प्रसन्न होते हैं।

भक्तों द्वारा जहाँ प्रेम से भजन गाये जाते हैं, वहाँ भगवान निश्चित रूप से रहते हैं और जहाँ सामूहिक भजन श्रद्धावान भक्तों द्वारा हो, वहाँ तो ईश्वर का रहना लाजिमी ही है ऐसा भगवान का कहना है।

नाहं वसामि  वैकुण्ठे योगिनां हृदय न वै।

मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।

‘हे नारद ! मैं कभी वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ, परन्तु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं, वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ।’ (पद्म पुराणः 94.23)

इसलिए सभी लोगों से मेरा नम्र निवेदन है कि आप लोग निरंतर भगवान के नाम के जप में, प्रार्थना में श्रद्धा के साथ अपने समय को लगाओ। कुछ दिनों के बाद अपने-आप ही भक्तिरस का अनुभव होने लगेगा और सभी प्रकार के रोगों से आप मुक्त हो जायेंगे, फिर रोग चाहे जैसे हों – शारीरिक अथवा मानसिक।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 8, अंक 225

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