अपने भाग्य के विधाता आप !

अपने भाग्य के विधाता आप !


परिचिन्मर्तो द्रविणं ममन्यादृतस्य पथा नमसा विवासेत्।

उत स्वेन क्रतुना सं वदेत श्रेयांस दक्षं मनसा जगृभ्यात्।।

‘मनुष्य बल और धन को प्राप्त करना चाहे तो वह सत्य के मार्ग से नमन के साथ पूजा करे और अपने ही अंतरात्मा से अनुकूलता स्थापित करे। श्रेयस्कर, सबल, त्वरित निर्णय को मन से ग्रहण करे।’ (ऋग्दवेदः 10.31.2)

मनुष्य बल को प्राप्त करे परंतु वह बल कैसा हो ? निश्चय ही वह बल ऐसा हो जो  निर्बल की रक्षा में काम आये। मनुष्य अपने शारीरिक, मानसिक, आत्मिक बल का विकास करे। शारीरिक बल को समाज की सेवा में लगाये। उसका बल निर्दोष, निःसहाय को पीड़ा देने वाला न हो, बल्कि उनकी रक्षा करने वाला हो।

मानसिक बल का विकास कर हताशा-निराशा को दूर भगाओ और आत्मिक बल का विकास कर इसी जीवन में अंतरात्मा-परमात्मा का अनुभव कर लो। अपने को कभी दीन-हीन, निर्बल न मानो। निर्बल शररी हो सकता है, तुम नहीं। प्रतिकूल परिस्थितियाँ हो सकती हैं। दुम खुद अपने-आपमें प्रतिकूलता को स्थान मत दो। तुम ऐसी जगह पर अडिग अटल रहो।

जो तुम्हारे घट में है वह बाहर है। जो परमात्मा तुम्हारी साँसों को चलाता है, वही हर पुतली को नाच नचाता है। प्राणिमात्र में विराजमान उस प्राणेश्वर को सबमें देखते हुए उसका सर्वात्मभाव से नमनपूर्वक पूजन करो। भगवान श्रीराम के गुरु महर्षि वसिष्ठजी कहते हैं-

येन केन प्रकारेण यस्य कस्यापि देहिनः।

संतोषं जनयेत् राम तदेवेशअवरपूजनम्।।

किसी भी प्रकार से जिस किसी भी देहधारी को संतोष प्रदान करना यह परमात्मा का पूजन है। किसी के भी दिल को ठेस पहुँचे ऐसी रूक्ष, कठोर वाणी का प्रयोग न करो। अपनी वाणी, वर्तन, व्यवहार से किसी को दुःख न पहुँचे इसका ख्याल करो।

अपने अंतःस्थ परमात्मा की आवाज की अवहेलना कभी हो। परमात्मा अंतर्यामी साक्षीस्वरूप से सबके दिल में बैठा है। तुम्हारे निर्णय, कार्य, भावना के साथ वह सम्मति और असम्मति का स्वर देता है। उसके उस स्वर को समझो और उसके मुताबिक कार्य करो। ईशकोप या प्रारब्ध को दोष देने की आदत निकाल दो। तुम खुद अपने भाग्य के विधाता हो। तुम चाहो तो अपने दुःखद प्रारब्ध को बदल सकते हो। तुममें अगर कम बल है, कम बुद्धि है तो बल के सागर, बुद्धि के पुंज परमात्मा और परमात्म-स्वरूप संत, सद्गुरु की शरण में जाओ। उनकी बुद्धि से, उनके दिल से अपना दिल मिलाओ। उनके अनुभव से तुम्हारा अनुभव मिलेगा तभी सच्ची, शाश्वत शांति मिलेगी। उनके कल्याणकारी वचनों को तत्परता से ग्रहण करो।

कर्तव्यपरायणता की राह पर आगे बढ़ो, विषय-विलास, विकारों से दूर रहकर जीवन-पथ पर उत्साह, उमंग से कदम बढ़ाओ। जप ध्यान करो। सद्गुरु के सहयोग से सुषुप्त शक्तियों को जगाओ। कब तक दीन-हीन, अशांत होकर तनावग्रस्त होते रहोगे ! बल, धन और मुक्ति को सच्चाई और पुरुषार्थ से अवश्य प्राप्त करो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011,  पृष्ठ संख्या 11 अंक 226

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