विश्व को नंदनवन बनाने के लिए…

विश्व को नंदनवन बनाने के लिए…


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

सनातन धर्म की सोलह कलाएँ हैं। आत्मदेव के, परमेश्वर के सत्स्वभाव की चार कलाएँ हैं- स्वयं रहें और दूसरों को रहने दें, मरने से डरें नहीं और दूसरों को डरायें नहीं। चित् की चार कलाएँ हैं – आप ज्ञान, स्वभाव में रहें और दूसरों ज्ञान-सम्पन्न करें, आप अज्ञानी नहीं बनें और दूसरों को अज्ञानी बनायें नहीं।

आप  हैं तो दूसरों को भी होने दो क्योंकि सत्, सत्, सत् अनेक नहीं हैं, आकृतियाँ अनेक हैं। सागर एक है लहरे अनेक हैं, मिट्टी एक है उसके बर्तन अनेक हैं – ऐसे ही जो सत् यहाँ है, वही सर्वत्र है। जिस सत् की सत्ता से मेरी आँखें देखती हैं, उसी सत् की सत्ता से आपकी देखती हैं। आँखें छोटी-बड़ी हो सकती हैं, शरीर की आकृतियाँ अलग-अलग हो सकती हैं किंतु जिस चैतन्य से मेरे हृदय की धड़कनें चलती हैं, उसी से  आपकी चलती हैं। इससे हम आप एक ही हैं। ऐसे ही मेरे दिमाग में जहाँ से ज्ञान से आता है, कीड़ी के दिमाग में बी उसी सत्ता से ज्ञान आता है। कीड़ी किसी स्कूल कॉलेज में सीखने पढ़ने नहीं जाती लेकिन वह हवाओं से परिस्थितियाँ जानकर अपने अण्डे लेकर सुरक्षित जगह पर चली जाती है। शक्कर, नमक को पहचानने का ज्ञान कीड़ी में भी है। नमक छिटक दो, राख छिटक दो तो कीड़ी भाग जायेगी और शक्कर या गुड़ का बूरा छिटक दो तो वह चिपक जायेगी, तो कीड़ी को भी तो ज्ञान है !

तो सत्स्वरूप, चेतनस्वरूप, ज्ञानस्वरूप सत्ता वही की वही है, अब किससे वैर करोगे ? कीड़ी से वैर करोगे कि पड़ोसी से वैर करोगे ? सासु से वैर करोगी कि देवरानी से वैर करोगी ? वैर ऊपर से आता है। राग, द्वेष, भय, लोभ – ये विकार आते हैं, चले जाते हैं। तुम सदा क्रोधी नहीं रह सकते, सदा कामी नहीं रह सकते, सदा लोभी नहीं रह सकते, सदा चिंतित नहीं रह सकते, लेकिन तुम अपने को एक पल भी छोड़ नहीं सकते। तुम सदा हो, ये विकार सदा नहीं हैं।

बचपन बदल गया, जवानी बदल गयी, दुःख बदल गये, सुख बदल गये, काम बदल गया, क्रोध बदल गया, लोभ बदल गया, भय बदल गया, चिंता बदल गयी, पदोन्नति (प्रमोशन) का लालच बदल गया, बुढ़ापे की चिंता बदल गयी अथवा गरीबी बदल गयी, अमीरी बदल गयी लेकिन उनको देखने वाला आप नहीं बदले। तो आप सत् हैं, चेतनस्वरूप परमेश्वर है, अल्लाह है, गॉड है।

आनंद की चार कलाएँ हैं – आप आनंद में रहें और दूसरों को आनंद दें, आप दुःखी न रहें और दूसरों को दुःखी न करें।

आपका मिलना व्यर्थ न जाय, जिससे मिलें उसको कुछ-न-कुछ आनंद की किरणें दें, आनंद, ज्ञान, सत्संग की प्रसादी बाँटें। अपना असली स्वभाव जागृत करें। काम, क्रोध ये नाम-रूप के हैं, नकली हैं। नकली में आप उलझें नहीं और दूसरे को उलझाये नहीं। असली में आप जाग जायें और दूसरों को उसमें जागृत होने में मदद करें।

‘ऐसा हो जायेगा, वैसा हो जायेगा…..’ जिन विचारों से अपने मन में दुःख पैदा होता है, उनको झाड़कर फेंक दो और जिन कर्मों व विचारों से दूसरों को दुःख होता है, उनको भी हटा दो। यह आपके असली स्वभाव को जागृत करने की विशेष कुंजी है।

और चौथी है अभेद दृष्टि की कलाएँ। आप मेल-मिलाप से रहें और मेल-मिलाप करायें, स्वयं फूटे नहीं और दूसरों में फूट न डालें क्योंकि शरीर भिन्न-भिन्न हैं, मन भिन्न-भिन्न हैं, बुद्धियाँ भिन्न-भिन्न हैं किंतु सत्स्वभाव सबका वही है।

ये बातें आज के किसी नेता के जीवन में आ जायें तो बस, भविष्य का इंतजार करने की जरूरत नहीं है, अभी से सतयुग शुरु हो जायेगा, अभी से भारत विश्वगुरु बनने लग जायेगा। ये विचार आकाश में जायेंगे, देर-सवेर ये विचार ही वातावरण में बदलाहट भी लायेंगे। जैसे निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी न करें।…. – इन विचारों ने कई घरों में सुख-शांति और मधुरता ला दी, ऐसी ही ये सत्संग के विचार भी दूर-दूर तक जायेंगे और वातावरण में बदलाव लायेंगे। इसलिए अगर आप इतने लोग मिल के 10 मिनट बैठकर यह चिंतन करो कि ‘मैं सत् हूँ, शरीर पैदा होकर बदल जाता है पर मैं नहीं बदलता। मैं चेतन हूँ, आनंद हूँ और मेरा अस्तित्व है। ऐसे ही सभी में मेरे आत्मा का अस्तित्व है।

पक्षियों की आकृति बदलती है परंतु पक्षी भी ईश्वरस्वरूप हैं, पशु भी ईश्वरस्वरूप हैं, पेड़-पौधे भी सत्स्वरूप हैं, चेतनस्वरूप हैं, आनंदस्वरूप हैं, सभी परमात्मा हैं। जैसे रात्रि के स्वप्न में हमारा ही सच्चिदानंद अनेक पेड़-पौधे, भिन्न-भिन्न आकृतिवाले व्यक्ति, माइयाँ, भाई, बाल-बच्चे बन जाता है, ऐसी ही यह जाग्रत में मेरा विभु परमेश्वर ही परमेश्वर है। सब दूर, सब रूपों में वह ईश्वर ही ईश्वर है। हे पेड़-पौधो ! तुम भी ईश्वर हो, हे जीव-जंतुओ ! तुम भी ईश्वर हो, हे माई-भाइयो ! तुम भी ईश्वर हो, सभी ईश्वर का ही रूप हैं। ईश्वर सर्वव्यापक हैं, किसी को अपने से अलग नहीं कर सकते। अगर आप पाँच दस मिनट यह चिंतन करोगे तो वातावरण में स्वर्गीय सुख और शांति आ जायेगी और ये स्वर्गीय सुख-शांति आ जायेगी और ये स्वर्गीय सुख शांति के आंदोलन लाखों-करोड़ों आत्माओं को पवित्र कर देंगे। द्वेष, चिंता, भय, कठिनाइयाँ ऐसे चली जायेंगी जैसे सूरज उगते ही अँधेरा गायब हो जाता है।

एक तो सब वासुदेव है और दूसरा यह आत्मा ही वासुदेव ब्रह्म है और तीसरा जो भी काम करो तत्परता से करो, लापरवाही को दूर रखो। अपने को और दूसरों को इन सोलह संस्कारों में सहायक बनाने के लिए तत्पर हो जाओ। फिर भगवान तो यूँ मिलते हैं ! बिछड़े ही नहीं तो अब मिलने के लिए देर कहाँ है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 226

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *