भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान

भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान


(पं. मदनमोहन मालवीय जयंतीः 25 दिसम्बर 2011)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय जी हिन्दू धर्म व संस्कृति के अनन्य पुजारी थे । उन्होंने अपना सारा जीवन भारत माता की सेवा में अर्पित कर दिया था । वे जितने उदार, विनम्र, निभिमानी, परदुःखकातर एवं मृदु थे उतने ही संयमी, दृढ़, स्वाभिमानी व अविचल योद्धा भी थे । मालवीय जी के जीवन में हिन्दू धर्म व संस्कृति का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था ।

एक बार कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने मालवीय जी के कार्यकाल से प्रसन्न होकर उनको एक पत्र भेजा । उसे पढ़कर मालवीय जी असमंजस में पड़ते हुए धीमी आवाज में बोलेः “उन्होंने यह तो अजीब प्रस्ताव रखा है । क्या कहूँ, क्या लिखूँ ?”

पास बैठे एक मित्र ने पूछाः “पंडित जी ! ऐसी क्या अजीब बात लिखी है ?”

“कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय मेरी सनातन उपाधि छीनकर एक नयी उपाधि देना चाहते हैं । इस पत्र में लिखा है कि ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ आपको ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि से अलंकृत करके आपको गौरवान्वित करना चाहता है ।”

तभी एक अन्य सज्जन ने हाथ जोड़कर कहाः “प्रस्ताव तो उचित ही है । आप ना मत कर दीजियेगा । यह तो हम वाराणसीवासियों के लिए विशेष गर्व की बात होगी ।”

मालवीय जी बोलेः “अरे ! तुम तो बहुत ही भोले हो भैया ! इसमें वाराणसी के गौरव में वृद्धि नहीं होगी । यह तो वाराणसी के पांडित्य को जलील करने का प्रस्ताव है ।” और तुरन्त ही उन्होंने उस पत्र का उत्तर लिखाः ‘मान्य महोदय ! आपके प्रस्ताव के लिए धन्यवाद । मेरे उत्तर को अपने प्रस्ताव का अनादर न मानते हुए आप उस पर पुनर्विचार कीजियेगा । मुझे आपका यह प्रस्ताव अर्थहीन लग रहा है । मैं जन्म और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हूँ । जो भी ब्राह्मण धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप जीवन बिताता है, उसके लिए ‘पंडित’ से बढ़कर अन्य कोई भी उपाधि नहीं हो सकती । मैं ‘डॉक्टर मदनमोहन मालवीय’ कहलाने की अपेक्षा ‘पंडित मदनमोहन मालवीय कहलवाना अधिक पसंद करूँगा । आशा है आप इस ब्राह्मण के मन की भावना का आदर करते हुए इसे ‘पंडित’ ही बना रहने देंगे ।’

मालवीय जी की कार्य करने की शैली बड़ी मधुर और सरल थी । सहयोगी स्वभाव एवं अन्य सदगुणों के कारण आलोचक भी उनके कायल हो जाते थे । वृद्धावस्था में जब मालवीय जी तत्कालीन वायसराय की परिषद (काउंसिल) के वरिष्ठ पार्षद (काउंसलर) थे, तब उनकी गहन और तथ्यपूर्ण आलोचनाओं के बावजूद वाइसराय ने एक दिन कहाः “पंडित मालवीय ! हिज मेजेस्टी की सरकार आपको ‘सर’ की उपाधि से अलंकृत करना चाहती है ।”

मालवीय जी मुस्कराते हुए बोलेः “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप मुझे इस योग्य मानते हैं, किंतु वंश-परम्परा से प्राप्त अपनी सनातन उपाधि नहीं त्यागना चाहता । मुझे ‘पंडित’ की उपाधि ईश्वर ने प्रदान की है । मैं इसे त्यागकर उसके बंदे की दी गयी उपाधि को क्यों स्वीकार करूँ !”

वाइसराय यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया । थोड़ी देर बाद बोलाः “आपका निर्णय सुनकर हमें आपके पांडित्य पर जो मान था वह दुगना हो गया । आप वाकई सच्चे पंडित हैं जो उस उपाधि की गौरव-गरिमा की रक्षा के लिए कोई भी प्रलोभन त्याग सकते हैं ।”

इसी प्रकार एक बार काशी के पंडितों की एक सभा ने मालवीय जी का नागरिक अभिनंदन कर उन्हें ‘पंडितराज’ की उपाधि दिये जाने का प्रस्ताव रखा । यह सुनकर वे बोलेः “अरे पंडितो ! पांडित्य का मखौल क्यों बना रहे हो ? पंडित की उपाधि तो स्वतः ही विशेषणातीत है । इसलिए आप मुझको पंडित ही बना रहने दीजिये ।”

सभी का सिर नीचे झुक गया । इस प्रकार उनके जीवन में कई बार ऐसी घटनाएँ घटीं  परंतु वे न तो डॉक्टर बने, न सर हुए और न ही पंडितराज, बल्कि इन सबसे ऊपर स्वाभिमान के साथ जीवन भर अपनी संस्कृति से विरासत में मिले ‘पांडित्य’ का गौरव बढ़ाते रहे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011,  पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 228

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