मन का चिंतन ऊँचा करो-पूज्य बापू जी

मन का चिंतन ऊँचा करो-पूज्य बापू जी


एक होती है ‘आधि’, दूसरी होती है ‘व्याधि’ । मन के दुःखों को आधि बोलते हैं, शरीर के दुःखों को व्याधि बोलते हैं । जो आधि-व्याधि को सत्य मानता है और उनको अपने में थोपता है तो समझो वह अभी संसार का खिलौना है । मन में दुःख आये, चिंता आये तो बोलेः “मैं दुःखी हूँ, मैं चिंतित हूँ ।’ शरीर में रोग आये तो बोलेः ‘मैं रोगी हूँ । मेरे को यह है, मेरे को वह है ।’ अरे ! मन का चिंतन ऊँचा करो ।

‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ में आता है कि ‘अंध कुएँ में गिरे हुए दीर्घतपा नाम के ऋषि को मानसिक यज्ञों से स्वर्ग प्राप्त हुआ । ऋषि दीर्घतपा अकस्मात किसी अंधे कुएँ में गिर पड़े । वहाँ मन से ही उन्होंने यज्ञ किया । उससे इन्द्र प्रसन्न हुए । उन्हें कुएँ से निकालकर अपने लोक को ले गये । मनुष्य होते हुए भी इन्दु के पुत्रों ने पुरुषोद्योग से ध्यान द्वारा ब्रह्मा का पद प्राप्त किया । इस संसार में सावधान मन वाला कोई भी पुरुष स्वप्न में अथवा जाग्रत में कभी भी दोषों से जरा भी जड़ीभूत नहीं हुआ । इसलिए पुरुष इस संसार में पुरुष-प्रयत्न के साथ मन से ही मन को, अपने से ही अपे को पवित्र मार्ग में लगाये ।’

आप अपने मन से क्या सोचते हैं ? अपने को पंजाबी मानते हैं तो पंजाबी लगते हैं । हम अपने को जैसा मानते हैं वैसे लगते हैं । ‘मैं दुःखी हूँ, मैं सुखी हूँ, मेरी यह जाति है…..’ वास्तव में तो ये भी मान्यताएँ ही हैं । अपने को ब्रह्मस्वरूप माने तो ब्रह्म हो जायेगा । ‘मैं शुद्ध-बुद्ध, शांत, चेतन आत्मा हूँ । सत् हूँ, चेतन हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ ।’ जो असली है उसको माने तो असली स्वरूप प्रकट हो जायेगा ।

संकर सहज सरूपु सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ।।

शिवजी कहते हैं कि ‘सती जाती है तो जाय । उसके मन की करे ।’ मन के अनुकूल होता है तो सुख होता है और मन के प्रतिकूल होता है तो दुःख होता है । दुःखी-सुखी क्यों होना !

मन की मूढ़ता से ही जगत भासता है । रागबुद्धि, द्वेषबुद्धि जीव को संसार में भटकाती है और ब्रह्मबुद्धि जीव को अपने ब्रह्मस्वभाव में जगा देती है ।

‘बेटा नहीं है, बेटा नहीं है ।’ बेटे की इच्छा करके दुःखी होना है तो दुःखी हो ! ऐसी भी कई माइयाँ हैं, कहती है कि ‘अच्छा है जो हम संसार के झंझट में नहीं पड़ीं । हमको संतान ही नहीं ! संतानवालों को अपनी संतानों को सँभालना पड़ता है, अपन तो ऐसे ही भले’, तो उनको दुःख नहीं होता ।

जैसे केसरी सिंह बल करके पिंजरे से निकल आता है, ऐसे ही बल करके मन की दुःखद और सुखद वासनाओं, कल्पनाओं से बाहर निकल जाओ । ॐ का जप करो फिर शांत हो जाओ । जितनी देर जप करो उतनी देर शांत हो जाओ ।

वसिष्ठ जी कहते हैं- ‘हे राम जी ! मूढ़ जीव पशुवत विषयरूपी कीच में फँसे हैं और उससे बड़ी आपदा को प्राप्त होते हैं । उन मूढ़ों को आपदा में देख के पाषाण भी रूदन करते हैं ।’

जो कीट बने हैं, पतंग बने हैं, कृमि बने हैं वे भी कभी मनुष्य थे और जो इन्द्र बने हैं, देवताओं से सम्मानित होते हैं, वे भी कभी मनुष्य थे । उन्होंने इन्द्र बनने की भावना से यज्ञ-याग, संयम किया तो इन्द्र बन गये और जो आये वह खाये, मन में आये वैसा करने लगे तो नीच से नीच गति को चले जाते हैं । इसलिए शास्त्र, महापुरुषों व धर्म के अनुरूप मन को ऊर्ध्वगामी किया जाता है । मन में जो आये ऐसा करने लग गये तो मन अधोगामी हो जाता है । ऐसों को देखकर, ऐसों के संग से भी बड़ा बुरा हाल होता है, उनके वचनरूपी वायु से राख उड़ती है जो आँखों को धूमिल कर देती है । वैराग्य-बुद्धि को नष्ट कर देती है । विवेक को नष्ट कर देती है ।

‘यह चाहिए, वह चाहिए…’ अपने अंतरात्मा के सुख में आना है कि ‘यह चाहिए, वह चाहिए….’ यह देखूँ, वह करूँ, यह पढ़ूँ, यह प्रमाणपत्र ले लूँ…’ तो फिर भटको संसार में ! संत कबीर जी ने कहाः

भलो भयो गँवार, जाहि न व्यापि जग की माया ।

अच्छा है अनपढ़ है, ईश्वर में प्रीति तो है, जगत की माया से तो बच गया ! पढ़-पढ़ के भी संसार की ही वासना हुई तो और जन्मेगा-मरेगा । कितना भी देखे, कितना भी घूमे, कितने भी प्रमाणपत्र ले ले, क्या करेगा ? आखिर तो मौत ठिकाना है ।

कब सुमिरोगे भगवान को ? भगवत्सुख कब लोगे ? भगवत्-आनंद कब लोगे ? भगवन्माधुर्य कब लोगे ? ‘मन की चाल को देखने वाला मैं साक्षी हूँ’ – ऐसा ज्ञान कब लोगे ? ऐसे तो कीट-पतंग, सुअर भी खाते-पीते हैं, मजा करते रहते हैं । दिखता है मजा पर देखो कि सुअर की क्या जिंदगी है ! बाल-बच्चे तो उसको भी हैं, बकरे को भी हैं । कुत्ते को भी कुतिया है तो क्या हो गया ! आयुष्य तो नष्ट हो रहा है ।

आत्मा चैतन्य है, ज्ञानस्वरूप है, अमर है, सुखस्वरूप है । दुःख आया तो मन के साथ जुड़ो नहीं । दुःख आया है तो मन में आया है । काहे को दुःखी होना ! भूतकाल को याद करके काहे को तप मरना ! भविष्य की चिंताएँ कर-करके काहे को परेशान होना ! वर्तमान में भगवदाकार, ब्रह्माकार भाव में मस्त रहें ।

वसिष्ठ जी कहते हैं- ‘हे राम जी ! जैसे पिता बालक को अनुग्रह करके समझाता है, वैसे ही मैं भी तुमको समझाता हूँ ।’

जैसे पिता बच्चे को समझाता है, वैसे ही गुरु अनुग्रह करके शिष्य को समझाते हैं । गुरु के अनुभव से अपना मन मिलाना चाहिए । नहीं तो मूढ़ों के सम्पर्क में आओगे तो पाषाण भी रुदन करते हैं । वासना तो सबके मन में होती है, यदि वासना के अनुसार मिल जाता है तो फिर दूसरी वासना, तीसरी वासना बढ़ती है । वासना के अनुसार नहीं होता है तो दुःख होता है । तो अब वासना कैसे मिटे ?

वासना के पेट में भगवान की माँग डाल दो । भगवान की माँग होगी तो वासना का पेट फाड़कर भगवान का सुख प्रकट हो जायेगा । वासना के पेट में भगवत्प्राप्ति का भाव डाल दो । कभी वासना उठे कि ‘यह चाहिए, वह चाहिए’ तो बोलोः ‘नहीं, पहले मुझे ईश्वर चाहिए ।’

बोलेः ‘मैं पढ़ लूँ ?’

‘ठीक है, बेशक पढ़ना लेकिन पहले ईश्वरप्राप्ति कर लो ।’

‘मैं यह कर लूँ, मैं वह कर लूँ ?’

‘सब करना लेकिन पहले ईश्वरप्राप्ति कर लो, फिर यह सब आसानी से हो जायेगा ।’ सोचे, और सब कर लूँ, फिर भगवान को पाऊँगा, तो भटकेगा, कुछ नहीं मिलेगा । यह भी जायेगा, वह भी जायेगा ।

अतो भ्रष्टः ततो भ्रष्टः ।

इसलिए पहले भगवत्प्राप्ति करो ।

श्रीराम जी हैं- ‘हे मुनीश्वर ! जैसे आकाश में वन होना आश्चर्य है, वैसे ही युवावस्था में वैराग्य, विचार, शांति और संतोष होना भी बड़ा आश्चर्य है ।’

जवानी में काम-विकार से बचना, संसार की इच्छा-वासना से बचना ही भगवान की कृपा है । ॐ आनंद ॐ…. कोई भी इच्छा आये तो कह दो, ‘पहले ईश्वरप्राप्ति हो जाये फिर । पहले ईश्वर से, अपने आत्मदेव से मिल लें फिर देखा जायेगा ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 228

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