देवत्व जागरण की चाह

देवत्व जागरण की चाह


(नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जयंतीः 23 जनवरी)

कटक नगर में एक बालकर शिबू अक्सर अपनी माँ प्रभावती के साथ मंदिरों में देव-दर्शन के लिए जाता था। एक दिन वे शिवरात्रि को दर्शन करने गये। खूब सर्दी पड़ रही थी। मंदिर में भगवान आशुतोष की भव्य मूर्ति देखकर शिबू ने माँ से पूछाः “अम्मा ! क्या भगवान शंकर को सर्दी नहीं लगती, जो ऐसी ठंड में भी नंगे बदन बैठे हैं ?”

माँ बोलीः “नहीं बेटा ! उन्हें सर्दी नहीं लगती। वे तो सदा कैलास पर्वत पर निवास करते हैं। वे तो भोले नाथ हैं, भक्तों के दुःख दूर करते हैं।”

“अम्मा ! वहाँ तो इससे भी ज्यादा ठंड होती है, फिर ये इतनी ठंड कैसे सहन कर लेते हैं ?”

“हाँ बेटे ! ठंड तो वहाँ इससे बहुत अधिक होती है किंतु भगवान शंकर तपस्या करते हैं इसलिए उन्हें सर्दी नहीं लगती। तपस्या से उनका देवत्व जाग उठा है, अतः वे लोगों के कष्ट दूर करने में भी पूरी तरह समर्थ हैं।”

“तो अम्मा ! आपका प्यारा बेटा शिबू भी तपस्या करके अपना देवत्व जागृत करने की कोशिश में आज से ही लग जायेगा।”

“ठीक है, जो तुम चाहो वही करना लेकिन अभी तो भगवान के दर्शन करो और उनकी स्तुति करो।” माँ ने बात टाल दी।

एक दिन माँ उसे संतों-महापुरुषों की कहानियाँ सुना रही थी कि कैसे हमारे महापुरुषों ने समाज-सेवा में ही अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इसी कारण आज वे संसार में श्रद्धा, प्रेम व सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं।

उन कहानियों से उत्साहित होकर शिबू बोलाः “तो अम्मा ! आपका प्यारा बेटा शिबू भी सेवा करने में किसी से पीछे नहीं रहेगा। मैं भी जरूरतमंद लोगों की सेवा करूँगा।”

देवीस्वरूपा उस माँ ने अपने लाडले को और भी प्रोत्साहित कियाः “हाँ बेटे ! अच्छे बालक सदैव अपना कुछ समय बचाकर सेवाकार्यों में लगाते हैं।”

अब तो शिबू की दिनचर्या विलक्षण ही हो गयी। ठंड में भी कभी वह कम-से-कम कपड़े पहन कर पूजा-अर्चना करने का अभ्यास करता। कभी जेब-खर्च से दवाई, फल आदि खरीद कर अस्पताल के रोगियों में बाँटता। किसी मोहल्ले में गंदगी देखता तो अपने हम उम्र साथियों को बुलाकर सफाई करने में जुट जाता। यह बात उसके पिता जानकीनाथ तक पहुँची। वे चिंता में पड़ गये। एक दिन उन्होंने शिबू को प्यार से समझायाः “बेटा शिबू ! तुम्हारी उम्र अभी पढ़ने की है। तुम्हें सिर्फ पढ़ने और खेलने से ही सरोकार होना चाहिए। तुम अभी से सेवा की आड़ में आवारागर्दी करने लगे हो, यह बात ठीक नहीं है।”

शिबू ने साहस एवं विनम्रतापूर्वक जवाब दियाः “नहीं पिता जी ! मैं जरा भी आवारागर्दी नहीं कर रहा हूँ। हाँ, जहाँ तक पढ़ने का ताल्लुक है, मैं पढ़ने के समय पढ़ता हूँ, खेलने के समय खेलता हूँ और इनसे समय बचाकर कुछ समाज-सेवा भी कर लेता हूँ। जिस समाज से मैंने शिक्षा और आपने इज्जत पायी, उसकी सेवा करना हमारा फर्ज है न पिता जी !”

जानकीनाथ कुछ क्षण अपने लाल की ओर अपलक नेत्रों से निहारते ही रहे। फिर पूछाः “और कभी सर्दी में कपड़े उतारकर तुम कौन सी साधना करते हो ?”

“पिता जी ! मैं हर परिस्थिति में सम रहने की आदत का विकास करना चाहता हूँ। जब हमारे महापुरुष, हमारे देवता कठोर जीवन अपनाकर, सेवा करके अपने देवत्व की मनोवृत्ति को विकसित कर सकते हैं तो मैं क्यों पीछे रहूँ ! पिताजी ! मैं अपने भीतर देवत्व की गरिमा, देवत्व के आदर्शों को विकसित करने का प्रयत्न करूँगा। मैं अभी से उसी अभ्यास में जुट गया हूँ।”

यही दृढ़निश्चयी बालक शिबू आगे चलकर नेता जी सुभाषचन्द्र बोस कहलाया, जिन्होंने युवकों को जागृत कर देश के लिए एक समर्पित पीढ़ी तैयार की।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 229

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