आत्मतेज ही सबसे बड़ा ऐश्वर्य

आत्मतेज ही सबसे बड़ा ऐश्वर्य


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

सं वर्चसा पयसा सं तनूभिरगन्महि मनसा सँ शिवेन।

त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायोनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम्।।

ʹहे त्वष्टादेव ! हम दुग्धादि (गायों का), पुत्रादि और कल्याणप्रयुक्त मन एवं तेजस्विता से संगत हों। उत्तम प्रदाता त्वष्टादेव हमें धन दें और हमारे शरीर में जो कमी हो उसे पूरी करें।ʹ

(यजुर्वेदः 2.24)

हमें अपना सर्वांगीण विकास करना है। हमारा तन तंदरूस्त हो, मन कल्याणचिंतक हो, सत्त्वशीलता हमारे जीवन में प्रविष्ट हो व हम ब्रह्मतेज से प्रदीप्त हों। सोलह कलाओं से खिले चाँद की धवल चाँदनी-सा शुभ्र एवं तेजस्वी जीवन हम जियें।

महर्षि विश्वामित्रजी ने कहा था कि ब्रह्मतेजो बलं बलम्। वास्वत में ब्रह्मतेज ही परम बल है।

आत्मबल ही वास्तविक बल है। हममें ब्रह्मवर्चस, आत्मतेज का प्रकाश हो। आत्मबल से युक्त क्षुद्र कायावाला व्यक्ति बड़े-बड़े महारथियों को भी झुका देता है।

राजे-महाराजे, धनी-निर्धन, मूर्ख व विद्वान सभी आत्मबल से सम्पन्न ब्रह्मविद् के चरणों में गौरवपूर्वक नतमस्तक होकर अपने को भाग्यशाली मानते हैं। हमें अब ऐसा पुरुषार्थ करना है कि हम ब्रह्मतेज से युक्त होकर प्रकाशित हों।

हमें पयस भी प्राप्त हो। तन की तंदरूस्ती के लिए दूध उत्तम पेय है। यदि शरीर बलिष्ठ रखना हो तो हमारा आहार शुद्ध, आरोग्यप्रद और अप्रमादी होना चाहिए। तंदरुस्त तन के लिए मन भी तंदरुस्त होना चाहिए। हमें अपने मन में माधुर्य, शांति, निर्मलता, निष्कपटता, सरलता, उदारता, मधुर वाणी, सहनशीलता आदि गुण भी विकसित करने चाहिए। हमारा मन शुष्क न बने। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय सभी कोषों का सर्वांगीण विकास हो। हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों से युक्त बने। तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।

कल्याणकारी एवं आनंददायक संकल्प करते ही मन उत्कर्ष के मार्ग पर जाता है।

मन ही मित्र है और मन ही शत्रु है। मन पर विजय हासिल की तो पाँचों शरीरों का समुचित विकास होगा और वायुमंडल में भी कल्याणकारी सद् विचार प्रसारित कर स्वकल्याण साध सकेंगे।

प्राणिमात्र के परम हितैषी परमात्मा उदार दानी हैं। उनका कला-कौशल जगप्रसिद्ध है और प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर भी होता है। पानी की बूँद में से चराचर विश्व कैसे रचते हैं ! परमात्मा सबको शुभ, कल्याणकारी दान करते ही रहते हैं। हे हमें भी धन, सुख, आरोग्यता, शुभ गुण, दिव्य सदभावों का दान दें। हमारे लिए तो आत्मतेज ही सबसे बड़ा ऐश्वर्य है। हमें आत्मतेज का दान दीजिये। हमारे शरीर का कोई अंग त्रुटिपूर्ण हो तो उसे परिमार्जित कीजिये। हमारे कान अशुभ सुनते हों, हाथ दुष्क्रिया करते हों, पैर दुर्गमन करते हों तो उनको परिमार्जित कर शुभ मार्ग, परमात्म-पथ पर अग्रसर करें। हमारे सारे कार्य, विचार और वाणी को शुद्ध बनायें, जिससे हम भी आप जैसे बनकर आपमें ही मिल जायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 25, अंक 229

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