स्वतः सिद्ध आत्मा और स्वतः निवृत्त प्रकृति

स्वतः सिद्ध आत्मा और स्वतः निवृत्त प्रकृति


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

श्रीवसिष्ठजी कहते हैं- “हे रामजी ! यह जगत मिथ्या है। कोई पुरुष इस जगत को सत् जानता है और कहता है कि हम मुक्त होंगे तो ऐसा है जैसे अंधे कूप में जन्म का अंधा गिरे और कहे कि ʹअंधकार में मैं सुखी होऊँगा।ʹ वह मूर्ख है क्योंकि जीव आत्मज्ञान बिना मुक्त नहीं होता।

हे रामजी ! इस आत्मदेव से भिन्न जो सूर्य, चन्द्रमा आदि की भेद पूजा है, सो तुच्छ है। जब तुम आत्मपूजा में स्थित होओगे, तब और पूजा तुमको सूखे तृण की नाईं भासेगी। आत्मदेव की पूजा के निमित्त फूल भी चाहिए। आत्मविचार करके चित्त की वृत्ति अंतर्मुख करना और यथालाभ में संतुष्ट रहकर संतों की संगति करना – यह आत्मदेव को फूल निवेदित करना है।”

यथालाभ में संतुष्ट होकर संतों की संगति करनी चाहिए। जो धन मिल गया सो मिल गया, जो खो गया सो खो गया। ऐसा दुनिया में कौन है जिसके सब काम पूरे हो गये !

बहूरानी सासुजी की चरणचम्पी कर रही है। सासु ने पूछाः “बेटा ! सब काम पूरे हो गये ?”

बहूरानी बोलीः “जी माँजी ! आज तो जो भोजन बनाया सबको खिला दिया, कुछ बचा नहीं और बर्तन भी माँज दिये।”

“अच्छा बेटा !”

“बब्बू के पापा को खाँसी हो गयी थी तो थोड़ा सा गुड़ और पाँच काली मिर्च का काढ़ा बना कर दिया। आज रविवार है, तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए इसलिए ऐसे ही काढ़ा दे दिया। उनकी खाँसी में आराम है, सो गये हैं और काढ़े की तपेली भी माँज के रख दी है।”

“कोई काम बाकी नहीं है तो बेटा ! जा के सो जा।”

सुबह हुई, सासु ने बहू से पूछाः “बेटा ! कोई काम बाकी तो नहीं ?”

“माँजी ! सब बाकी हैं। बच्चों को नहलाना, विद्यालय भेजना, गाय दुहना, रसोई बनाना…. सब काम बाकी हैं।”

रात को तो सारा काम पूरा करके सोयी, सुबह सब काम बाकी !

जगत के कार्य कोई पूरे हो गये क्या सबके ? निवृत्त हो रहे हैं, पूरे नहीं हो रहे हैं। हो-हो के निवृत्त हो रहे हैं। कोई कैसे, कोई कैसे निवृत्त हो रहे हैं। तो स्वतः सिद्ध है आत्मा और स्वतः प्रवृत्त में से निवृत्त हो रही  है प्रकृति।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्मणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।

ʹवास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ʹमैं कर्ता हूँʹ ऐसा मानता है।ʹ (गीताः 3.27)

देह को ʹमैंʹ मानकर जो अहंका हो गया, वह अपने शरीर की, इन्द्रियों की प्रवृत्ति-निवृत्ति को अपनी प्रवृत्ति-निवृत्ति, अपना कर्ता-भोक्तापन मानता है। अहंकार से जो विमूढ़ हो गया, वह अपने को कर्ता मान रहा है। हकीकत में कर्ता नहीं… कर्ता भी नहीं, भोक्ता भी नहीं। कुछ लोग अपने को भोग्य बना लेते हैं। ऐसा रूप, ऐसा रंग-रोगन करके घूमें तो लोगों का हमारी तरफ ध्यान जाय….. तो लोग हो गये भोक्ता और हम हो गये उनके भोग्य !

न आप किसी के भोक्ता बनो, न किसी के भोग्य बनो। आप अनुमंता रहो, जो एकरस तत्त्व है, शाश्वत तत्त्व है। अनुमंता – स्वतः प्राप्त, स्वतः सिद्ध तत्त्व। इसमें जो टिकने का अभ्यास करता है, इसमें जो सजग हो जाता है, वह विश्वविजेता हो जाता है। अष्टावक्रजी कहते हैं- तस्य तुलना केन जायते ? उसकी तुलना किससे करोगे ?

एक श्वास लिया और छोड़ दिया तो बीच का जो एक जरा-सा सैकेंड-आधा सैकेंड का क्षण है, वह स्वतः सिद्ध ʹहैʹ तत्त्व है, वह परमात्मा है। यह परमात्म-अवस्था सदा-प्राप्त तत्त्व है। जो बदल रहा है वह सदा-निवृत्त तत्त्व है। इसका अभ्यास करे दीर्घकाल तक। बुद्धि थोड़ी सूक्ष्म हो, पवित्र हो। आहार व्यवहार सात्त्विक होता है, पवित्र होता है तो कोई कठिन नहीं है। इतनी संसारी प्रवृत्ति न करे कि अपने को थका दे और इतना आलसी न हो कि परमात्म-तत्त्व का विचार करने की योग्यता ही मर जाय। सजग रहे। इतना भावुक न रहे की ऊँची बात समझने की घड़ियाँ आयें तो भाव में ही रह जाय या बह जाय। भाव में बहे नहीं, रहे नहीं और इतना रूखा भी न रहे कि भाव-रस से कंगाल रह जाय।

एक माई थी बड़ी भावनावाली। ʹगुरुजी घर कब आओगे – कब आओगे….ʹ पति-पत्नी ने गुरु को रिझाते-रिझाते ʹहाँʹ भरवा ली। गुरु जी घर पधारे। क्या-क्या व्यंजन बने ! गुरुजी को भोजन परोस रही है और पूछ रही हैः “गुरु जी ! खीर कैसी है ?”

“बिटिया ! बहुत बढ़िया है।”

“गुरुजी ! यह कैसा है ?”

“यह सब ठीक है।”

भोजन भी अच्छा बनाया, गुरु जी को भी संतोष है किंतु ʹमैं कैसी भाग्यशाली हूँ !ʹ – ऐसा करते-करते भाव-भाव में ऐसा भाव चढ़ गया कि धबाक्-से गिर पड़ी थाली पर। गुरु जी की दाढ़ी में और धोती पर खीर लग गयी। पूड़ी उधर गयी, सब्जी इधर गिरी तो कुछ कहीं गिरा…. अब गुरु जी को भोजन कराया कि मुसीबत कर दी !

भावना तो ठीक है लेकिन भावना के साथ-साथ विचारशक्ति भी हो। अकेला विचार रूखा हो जायेगा और अकेली भावना अंधी हो जायेगी। भावना के साथ विवेक-विचार, विवेक-विचार के साथ भावना। विचार भी हो, सदभाव भी हो। उसमें फिर सावधानी से सत्कर्म। सत्कर्म भी निवृत्ति के लिए है। सत्कर्म करके अपना फायदा लेने की वासना होगी तो प्रवृत्ति बढ़ेगी। प्रवृत्ति करके भी निवृत्ति हो जायेगी और एकदम निवृत्त हो गये तब भी निवृत्त हो जायेंगे। कितने भी कर्म करेंगे, प्रवृत्ति करेंगे तब भी आखिर निवृत्ति आयेगी और निवृत्ति के लिए करेंगे तो भी निवृत्ति आयेगी। बहुत ऊँची बात है !

ऐसा ज्ञान हो गया तो कैसी अनुभूति होगी अंदर में ! पंचदशीकार ने लिखा हैः

मायामेघो जगन्नीरं वर्षत्वेष यथा तथा।

चिदाकाशस्य नो हानिर्न वा लाभ इति स्थितिः।।

ʹमायारूपी मेघ जगतरूपी जल की वर्षा चाहे जैसे करे, न इससे चिदाकाश का कुछ लाभ है न हानि, यह सिद्धान्त है।ʹ (पंचदशीः 8.75)

फलानी जगह बाढ़ आयी है लेकिन आकाश को कौन डुबा सका ! ऐसे ही प्रलय में जो नहीं मिटता वो हम हैं। प्रलय हो जाय, बारह सूरज तप जायें, शरीर जल के खाक हो जाय, धरती पर हाहाकार मच जाय….. अग्नि, अग्नि, अग्नि हो जाय…. कुछ नहीं रहता ऐसा भी समय आता है और ऐसा एक बार नहीं आया, कई बार ऐसी सृष्टियाँ हुई और लीन हो गयीं। तुम कौन-सी चीज को सँभाल के रखना चाहते हो ? सब निवृत्त हो रहा है प्रवृत्त हो के।

किआ मागउ किछु थिरू न रहाई।

देखत नैन चलिओ जगु जाई।।

आँखों के देखते-देखते जगत बीत रहा है, सब पसार हो रहा है। प्रवृत्ति….. प्रवृत्ति में से निवृत्ति… निवृत्ति में से प्रवृत्ति…..

तो स्वतः सिद्ध और स्वतः निवृत्त ये दो तत्त्व हैं। स्वतः निवृत्त प्रकृति है और स्वतः सिद्ध परमात्मा है। प्रकृति आपका शरीर है, मन है, बुद्धि है और उसको देखने वाला आपका परमात्मा और शरीर है आपकी माया !

वसिष्ठजी कहते हैं- “हे रामजी ! संतों का संग करके और सत्शास्त्रों को सुनकर स्वरूप का अभ्यास करो। इससे आत्मपद की प्राप्ति होती है। ये तीनों परस्पर सहकारी हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 27,28, 31 अंक 229

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