ज्ञानी के भीतर भेद नहीं

ज्ञानी के भीतर भेद नहीं


(पूज्य श्री के सत्संग-प्रवचन से)

ब्रह्मनिष्ठ महात्मा होते तो हैं ज्ञानी लेकिन जड़वत् लोकमाचरेत्…. अज्ञानी के जैसा आचरण करते हैं। उनको यह नहीं होता कि ʹमैं ब्रह्मवेत्ता हूँ, अब यह कैसे होगा मेरे से ?ʹ, यह पकड़ नहीं होती। ज्ञानी तो अपने सहित सारे विश्व को अपना आत्मा मानते हैं। ज्ञानी के भीतर भेद नहीं होता इसलिए उऩ्हें शान्ति होती है और हम लोगों के अंदर भेद होता है इसलिए अपनी मन-इन्द्रियों से अच्छा व्यवहार होता है तो हम हर्ष को प्राप्त होते हैं और मन-इन्द्रियों से कुछ इधर-उधर का व्यवहार होता है तो हमको शोक होता है।

हमारे शरीर का, मन का कोई आदर करता है तो हम खुश होते हैं और न कोई अनादर करता या उँगली उठाता है तो हम बेचैन होते हैं क्योंकि हम अपने को देह मानते हैं और फिर दूसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि ʹमेरे से फलाना आदमी ऐसा व्यवहार करे, पत्नी ऐसे चले, पुत्र ऐसे चले, परिवार ऐसे चले, कुटुम्बी मेरे से ऐसा चलें।ʹ हम अपनी मान्यता की पोटली सिर पर लेकर घूमते हैं तो हमारी पोटली के अनुसार अगर कोई हमसे आचरण करता है तो वहाँ हमारा राग हो जाता है और हमारी मान्यता की गठरिया के खिलाफ कोई व्यवहार या परिस्थितियाँ आती हैं तो हमें द्वेष होता है या भय हो जाता है।

ये राग और द्वेष हमारे चित्त को मलिन करते हैं। राग भी हमारे चित्त में रेखा डालता है और द्वेष भी हमारे चित्त में रेखा डालता है। अनुकूलता आती है तो राग की रेखा गहरी होती है और प्रतिकूलता आती है तो द्वेष या भय की रेख गहरी होती है। तो हमारे चित्त में ये रेखाएँ पड़ जाती हैं इसलिए हमारा चित्त स्वस्थ, शांत नहीं रहता। और अशांतस्य कुतः सुखम्। अशांत को सुख कहां ? संशयवाले को सुख कहाँ ? उद्विग्न को सुख कहाँ ?

मैंने सुनायी थी वह कहानी कि किन्हीं जीवन्मुक्त महात्मा के चरणों में अदभुत स्वभाववाला आदमी पहुँचा। बोलाः ʹʹमहाराज ! मैं चंबल की घाटी का डाकू हूँ, अपनी शरण में रखोगे ?”

महाराज बोलेः “हाँ, ठीक है।”

“महाराज ! मैं दारू पीता हूँ।”

“कोई बात नहीं।”

“महाराज ! मैं जुआ भी खेलता हूँ।”

“कोई बात नहीं।”

“महाराज ! मैं दुराचार भी करता हूँ।”

“कोई बात नहीं।”

“महाराज ! यह क्या ? आप तो सब स्वीकार कर रहे हैं।”

“भैया ! जब सृष्टिकर्ता तुझे अपनी सृष्टि से नहीं निकालता तो मैं अपनी दृष्टि से क्यों निकालूँ ?”

तो जो जीवन्मुक्त महात्मा हैं वे ऐसा नहीं समझते कि मेरा आचरण सही है, दूसरे का आचरण गलत है। मेरा शरीर पवित्र है, शुद्ध है और मैं एकदम ठीक हूँ, दूसरा गलत है। मैं ठीक और दूसरा गलत नहीं, लेकिन दूसरेर को भी मेरा अनुभव समझ में आ जाय ऐसा उनका लक्ष्य होता है, इसलिए वे सर्वभूतहिते रताः हो जाते हैं। हम लोगों का हित उसी में होता है कि हम अपने को समझें। हम अपने को नहीं समझेंगे तो कैसी भी परिस्थिति होगी चित्त का राग और द्वेष जायेगा नहीं। वस्तुओं से प्राप्त जो सुख है या हमारी मान्यताओं से प्राप्त जो सुख है वह वास्तव में राग का सुख है, आत्मा का सुख नहीं। और हमारी इच्छा के खिलाफ जो हो रहा है, उससे जो दुःख होता है वह वास्तव में बाहर दुःख नहीं है, हमारी मान्यताएँ हमको दुःख दे रही हैं।

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

हम लोग अपने ही विचारों की गठरिया से अपने संस्कार तैयार करके सुख की रेखाएँ खींच के भी अपने को जंजीर में बाँधते हैं और दुःख की रेखाएँ खींच के भी अपने को जंजीर में बाँधते हैं।

आत्मसाक्षात्कार करना बड़ा आसाना है। कैसे ? अपनी जो भेददर्शन करने वाली बुद्धि है, उसे अभेद-दर्शन में बदल दो बस। जिन कारणों से भेद दिखते हैं उन्हें मिटा दो तो साक्षात्कार हो जायेगा। सर्वत्र एक परब्रह्म परमात्मा है, उसके अलावा अन्य कुछ भी नहीं है। इस बात को दृढ़ता से मानकर उसे ही चरितार्थ करने में लगे रहो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 230

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