साधकों की सेवा का प्रेरक पर्वः अवतरण दिवस

साधकों की सेवा का प्रेरक पर्वः अवतरण दिवस


(पूज्य बापू जी का 72वाँ अवतरण दिवसः 11 अप्रैल)
जीवन के जितने वर्ष पूरे हुए, उनमें जो भी ज्ञान, शांति, भक्ति थी, आने वाले वर्ष में हम उससे भी ज्यादा भगवान की तरफ, समता की तरफ, आत्मवैभव की तरफ बढ़ें इसलिए जन्मदिवस मनाया जाता है।
ʹजन्मʹ किसको बोलते हैं ? जो अव्यक्त है, छुपा हुआ है वह प्रकट हुआ इसको ʹजन्मʹ बोलते हैं। और ʹअवतरणʹ किसको बोलते हैं ? जो ऊपर से नीचे आये। जैसे राष्ट्रपति अपने पद से नीचे आये और स्टेनोग्राफर को मददरूप हो जाय, उनके साथ मिलकर काम करे-कराये इसको बोलते हैं, ʹअवतरणʹ। अवतरण, जन्म, प्राकट्य इन सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है परंतु हमको क्या फायदा ? हम यह व्याख्या समझेंगे, विचारेंगे तो हम अपने कर्म-बन्धन से, देह के अहं से, दुःख के साथ तादात्म्य से और सुख के भ्रम से पार हो जायेंगे।
भगवान की जयंती, महापुरुषों का अवतरण दिवस अथवा अपना शास्त्रीय ढंग से मनाया गया जन्मदिवस एक लौकिक कर्म दिखते हुए भी इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और किन्हीं संत-महात्मा की हाजिरी में यह होता है तो आध्यात्मिक उन्नति का प्राकट्य होता है।
कुछ लोग केक काटते हैं, मोमबत्तियाँ फूँकते हैं और फूँक के द्वारा लाखों-लाखों जीवाणु थूकते हैं, ʹहैप्पी बर्थ डे, हैप्पी बर्थ डे…ʹ करते हैं। यह जन्मदिवस मनाने का पाश्चात्य तरीका है लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति में इस तरीके को अस्वीकार कर दिया गया है। हमारा जीवन अंधकार में से प्रकाश की ओर जाने के लिए है। अंधकारमयी कई योनियों से हम भटकते हुए आये, अब आत्मप्रकाश में जियें। तमसो मा ज्योतिर्गमय – हम अंधकार से प्रकाश की तरफ जायें। वे जो मोमबत्तियाँ, दीये जले होते हैं, उन्हें फूँकते-फूँकते बुझाकर प्रकाश को अंधकार में परिवर्तित करना तथा बासी अन्न (केक) का काट-कूट करना और फिर बाँटना…. छी ! छी ! अगर बुद्धिमत्ता हो तो केक खाने वाले को देखकर वमन आ जाय। क्योंकिक जो फूँकता है न, फूँक में लाखों-लाखों जीवाणु थूकता है। ऐसा भी लोग जन्मदिवस मनाते हैं। खैर अब सत्संग द्वारा जागृति आने से उस अंध-परम्परा में कमी हुई है, सजगता आयी है लेकिन अभी भी कहीं-कहीं मनाते हैं।
जन्मदिवस मनाने के पीछे उद्देश्य होना चाहिए कि आज तक के जीवन में जो हमने अपने तन के द्वारा सेवाकार्य किया, मन के द्वारा सुमिरन किया और बुद्धि के द्वारा ज्ञान-प्रकाश पाया, अगले साल अपने ज्ञान में परमात्म-तत्त्व के प्रकाश को हम और भी बढ़ायेंगे, सेवा की व्यापकता को बढ़ायेंगे और भगवत्प्रीति को बढ़ायेंगे। ये तीन चीजें हो गयीं तो आपको उन्नत बनाने में आपका यह जन्मदिवस बड़ी सहायता करेगा। परंतु किसी का जन्मदिवस है और झूम बराबर झूम शराबी… पेग पिये और क्लबों में गये तो यह सत्यानाश दिवस साबित हो जाता है।
शरीर आधिभौतिक है, मन, बुद्धि, अहं आधिदैविक हैं और अध्यात्म-तत्त्व इन दोनों से परे है, उनको जाननेवाला है। भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके अपना अनुभव बताते हैं-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः
(गीताः4.9)
अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है ऐसा जो जानता है उसके भी जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं और वह मुझे मिलता है, ऐसे मिलता है जैसे दो सरोवर के बीच का पाल टूट जाय तो कौन-से सरोवर का कौन सा पानी यह पृथक करना सम्भव नहीं रहता। ऐसे ही जीव का जीवत्व छुट जाय और ईश्वर का अपना ईश्वरत्व बाधित हो जाय तो वास्तव में दोनों में एक परब्रह्म परमात्मा लहरा रहा था, लहरा रहा, लहराता रहेगा।
जीव जो अव्यक्त है, अप्रकट है वह प्रकट होता है तो उसका जन्म होता है और प्रकटी हुई चीज फिर विसर्जित होती है, होने को जाती है तो वह मृत्यु होता है। जैसे शरीर मर गया तो इसको श्मशान में जलाने को ले जायेंगे तो जलीय अंश जल में चला जायेगा, वायु का अंश वायु में, अग्नि का अंश अग्नि में, पृथ्वी तत्त्व का अंश कुछ राख, हड्डियाँ बच जायेंगी तो वह अव्यक्त हो गया। मृत्यु हो गयी और कहीं फिर जन्म हुआ, व्यक्त हुआ तो जन्म। तो अव्यक्त होना विसर्जित होना इसको मृत्यु कहा और विसर्जित में सुसर्जित होना इसको जन्म कहा। ये जन्म और मृत्यु की परम्परा है। तो
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोઽर्जुन।।
ʹहे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक है – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः 4.9)
तो भगवान का जन्म होता है करूणा-परवश होकर, दयालुता से। भगवान करूणा करके आते हैं तो यह भगवान का जन्म दिव्य हो गया, अवतरण हो गया। हमारे कष्ट मिटाने के लिए भगवान का जो भी प्रेमावतार, ज्ञानावतार अथवा मर्यादावतार आदि होता है, तब वे हमारे नाईँ जीते हैं, हँसते-रोते हैं, खाते-खिलाते हैं, सब करते हुए भी सम रहते हैं तो हमको उन्नत करने के लिए। उन्नत करने के लिए जो होता है वह अवतार होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 231
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