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ऐसे थे भगवान श्रीराम !


(श्रीरामनवमीः 1 अप्रैल)

(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

देवताओं ने देखा कि रावण के उपद्रव से प्रजा बहुत दुःखी है, त्राहिमाम् पुकार रही है। यज्ञ आदि पुण्यकर्म नहीं हो रहे हैं। देवताओं की, पितरों की तृप्ति का कार्य भी रावन नहीं करने देता है। इसलिए देवताओं ने ब्रह्माजी की आराधना की। ब्रह्माजी प्रकट हुए तो देवताओं ने लोगों की व्यथा सुनायी कि ʹरावण अपने अहं की प्रधानता से सर्वेसर्वा होकर बैठा है।ʹ

ब्रह्मा जी ने कहाः ʹʹरावण तो शिवभक्त है। उसे तो शिवजी का आशीर्वाद है। अतः उनके पास चलो।”

शिवजी के पास गये, स्तुति की। शिवजी प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी की आगेवानी में देवताओं ने प्रार्थना कीः “हे देव ! कुछ कृपा कीजिये। रावण की उद्दण्डता से प्रजा पीड़िता है, त्राहिमाम् पुकार रही है।” रावण शिवजी का तो भक्त था लेकिन मूल में भगवान नारायण का खास पार्षद था। शिवजी ने सोचा कि ʹनारायण के पार्षद को मैंने ही वरदान दिये हैं। अब मैं ही उससे भिड़ूँ यह ठीक नहीं है। जिनका पार्षद है, वे ही निर्णय करें।ʹ पहले से ही नियति थी उनकी तो शिवजी ने कहाः “आप यहीं भगवान नारायण की स्तुति करके उनका आवाहन करो। भगवान नारायण ही रास्ता निकालेंगे।”

छोटी-मोटी समस्या होती है तो ब्रह्माजी हल कर देते हैं, बीच की होती है तो शिवजी बोल देते हैं लेकिन यह बड़ी समस्या थी क्योंकि रावण कोई साधारण व्यक्ति नहीं था, बहुत सारी योग्यताएँ थीं उसमें। शिवभक्त था, यश, गन्धर्व, राक्षस सब उससे काँपते थे। सभी मनुष्य स्वर्ग जा सकें ऐसी सीढ़ी बनाने की उसकी योजना थी। अग्नि की धुआँरहित तथा समुद्र को मीठा बनाने की भी उसकी योजनाएँ थीं। भगवान विष्णु की स्तुति, आराधना की तो वे प्रकट हुए। देवताओं ने कहाः “प्रभु ! आप ही हमारी रक्षा करो।”

रावण क्या है ?

मोहरूपी रावण है। जो हम नहीं हैं उसको ʹमैंʹ मानना, इसी को बोलते हैं ʹमोहʹ। बहुत सूक्ष्म, समझने योग्य बात है।

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह से पुनि उपजहिं बहु सूला।।

श्रीरामचरित उ.कां. 120.15

मोह सारी व्याधियों का मूल है, उससे जन्म-मरण का, भव का शूल पैदा होता है।

मोहरूपी रावण को अहंकार हुआ है कि ʹमैं लंकापति रावण हूँ।ʹ अहंकार से वासनाएँ उभरीं। वासनापूर्ति के लिए दम्भ करता है और दम्भ में विघ्न आने से हिंसा होती है।

देवताओं ने कहाः “रावण के द्वारा किसी की शारीरिक हिंसा, किसी की वाचिक, किसी की मानसिक तो किसी की सैद्धान्तिक हिंसा….. हिंसा-ही-हिंसा हो रही है।”

भगवान ने कहाः “अच्छा ! तो मुझे ही आना पड़ेगा। देवताओ ! तुम निश्चिंत रहो, ब्रह्मा जी जो कहें उसके अनुसार अपने-अपने काम में लगो।”

नारायण तो चले गये। ब्रह्मा जी ने वायुदेव, वरूणदेव, कुबेर आदि को कहाः “तुम लोग भी भगवान नारायण की सहायता के लिए अलग-अलग रूप में पृथ्वी पर जन्म लो।”

पवनदेव हनुमान के रूप में आये। वरूण किसी रूप में आये, कोई जामवंत के रूप में आये, बाकी के देव भी विभिन्न वानरों के रूप में आ गये। मनुष्यरूप में आते तो उनके रहने-खाने की बहुत ज्यादा व्यवस्था, सुविधा करनी पड़ती। बंदर हैं तो चलो, पेड़ों पर रह लेंगे, पत्ते भी खा लेंगे।

मेघनाद और लक्ष्मण का युद्ध हुआ। लक्ष्मण की पत्नी थी उर्मिला और मेघनाद की पत्नी थी सुलोचना। दोनों पतिव्रताएँ थीं। अब दोनों के पातिव्रत्य जबरदस्त ! तो दोनों में से कोई योद्धा मरता नहीं, मूर्च्छित हो जाते हैं। आखिर में लक्ष्मण जी ने रामजी का ध्यान किया और दृढ़ संकल्प करके बाण मारा तो मेघनाद का हाथ कटकर सुलोचना के आँगन में जा गिरा।

सुलोचना बोलीः “मैं जीवित हूँ और मेरे पति का हाथ ! अगर मैंने पातिव्रत-धर्म का पालन किया हो तो यह हाथ मुझे लिखकर बताये कि युद्धभूमि में क्या घटित हुआ है।” हाथ में लिखा तो वह विलाप करने लगी।

रावण को समाचार मिला कि मेघनाद मर गया है तो वह शोकातुर हो गया कि ʹमेरा प्राणप्रिय आज्ञाकारी पुत्र नहीं रहा।ʹ पुत्र जितना वफादार होता है, पिता को उतना ही दुःख होता है। रोती हुई सुलोचना शोकागार में रावण के पास आयी तो रावण क्या कहता हैः “बेटी ! तेरा शोक, तेरा दुःख मैं जानता हूँ लेकिन तेरा ससुर तेरा दुःख-निवारण नहीं कर सकेगा। तू श्रीरामजी के पास जा, तेरा शोक श्रीरामचन्द्रजी मिटायेंगे।”

रावण कितना बुद्धिमान है ! साधारण हस्ती नहीं था। वह जानता था कि जो महापुरुष रामतत्त्व में जगे हैं वे ही निर्दुःख कर सकते हैं। देखो, रावण के पास सूझबूझ कितनी है ! अपनी बहू को अपने बेटे की हत्या करने वाले लक्ष्मण के भाई रामजी के पास भेजता है क्योंकि वह जानता है रामजी कौन हैं। रामजी को शत्रु मानता है पर रामजी की महिमा जानता है।

राम जी कहते हैं- “सुलोचना ! यह लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध नहीं था। बेटी ! तुम्हारे और उर्मिला के बीच का युद्ध था। तुम पतिव्रताओं में शिरोमणि हो और उर्मिला भी ऐसी है।” देखो, ध्यान देना रामजी की वाणी पर। ʹतुमत पतिव्रताओं में शिरोमणि हो, पतिव्रताओं में श्रेष्ठ हो और उर्मिला भी पतिव्रता है।ʹ रामजी मनोवैज्ञानिक ढंग से कितनी दूर का सोचकर एक-एक शब्द बोलते हैं।

“सुलोचना ! मेघनाद मारा गया, इसमें तुम्हारे पातिव्रत्य में कोई कमी नहीं है लेकिन मेघनाद ने मोह, अहंकार, वासना, दम्भ, हिंसा के प्राधान्य को मदद की थी। मेघनाद ने मोहरूपी रावण की मदद की थी। तुम्हारा पातिव्रत्य का बल अधर्म के पक्ष में खड़ा रहा और उर्मिला का पातिव्रत-बल लक्ष्मण के, धर्म के पक्ष में खड़ा रहा। मोह नहीं, यथार्थ वस्तु को जानना…. अहंकार नहीं, स्वस्वरूप में विश्रान्ति….. वासना नहीं, निर्वासना…. लक्ष्मण ब्रह्म के पक्ष में और मेघनाद मोह के पक्ष में था।

मोह सकल ब्याधिन्ह का मूला।

सुलोचना ! यह मोह की हार हुई है। मेघनाद की हार नहीं है, सुलोचना की हार नहीं है। यह मोह की हार है, अहंकार की हार है। यह सब लीला है।”

सुलोचना को समझ आ गयी तो संतुष्ट हो गयी। शोकातुर सुलोचना आत्मज्ञान में जग गयी। शत्रुपक्ष की बहूरानी को आत्मरस से तृप्त करना यह राम जी का ही तो काम है, दूसरे किसकी ताकत है ? रामजी में द्वेष नहीं है, मोह नहीं है, शोक नहीं है। सुलोचना का शोक चला गया। मोह से यह सारा संसार दुःखी होता है और मोह के जाने से यह सब खेल लगता है।

युद्ध पूरा हुआ तो इन्द्रदेव आये, बोलेः “प्रभुजी ! देवताओं का मनोरथ पूरा हुआ। रावण युद्ध में मारा गया। मेरे लिए क्या आज्ञा है ?”

बोलेः “आप अमृत की वृष्टि कर दो।”

अमृतवृष्टि हुई तो सब वानर जीवित हो गये पर राक्षस जीवित नहीं हुए। ʹअमृत सब पर गिरा था तो राक्षस जीवित क्यों नहीं हुए?ʹ – यह सवाल उठता है।

राक्षस लोग राम जी को अपना विरोधी मान कर लड़ रहे थे तो राम जी का चिंतन करते-करते मरे इसलिए वे रामजी के धाम में चले गये और जीवित नहीं हुए। यह है भगवान के चिंतन का प्रभाव !

रावण ने सोचा कि ʹहमारा शरीर राक्षसी-तामसी है, इससे भगवान की भक्ति तो कर नहीं पायेंगे। हम वैर से भी भगवान को याद करेंगे तो भी तर जायेंगे। मैं तो अपने लंकावासियों को वैकुंठ भेजना चाहता हूँ।ʹ अब रावण जैसा आज का कोई नेता हो तो मुझे बताओ तो मैं उसका सत्कार करूँगा। जीते जी तो प्रजा को सुवर्ण के घरों में रखता है, मरने के बाद वैकुंठ दिलाता है ! आज के नेता तो देश-परदेश में करोड़ों-अरबों खरबों जमा करके मर जाते हैं।

जब रामजी के साथ रावण का युद्ध हुआ तो रावण का सिर कटता और फिर लग जाता। हाथ कटे तो फिर से लग जाय क्योंकि शिवजी का वरदान था। रामजी चकित हो गये तो विभीषण ने कहा कि ʹइसकी नाभि में अमृत है इसलिए यह नहीं मरता है। इसकी वासना है कि मैं जीवित रहूँ।ʹ दृढ़ वासना का केन्द्र स्वाधिष्ठान केन्द्र होता है। यह केन्द्र रूपांतरित हो तब रावण मरता है। अमृत अर्थात् न मरने की जो पकड़ है वह नाभि में है। जब वहाँ बाण मारा तब रावण गिरा।

श्रीरामजी ने लक्ष्मण से कहाः “आज धरती से एक महायोद्धा, महाबुद्धिमान, महाप्रजापालक जा रहा है। जाओ, उनसे कुछ ज्ञान ले लो।”

देखो कितना आदर है ज्ञान का ! शत्रु से भी ज्ञान लेने को भेज रहे हैं। यह काम रामजी के अलावा कौन कर सकता है ! पर रामजी के मन में शत्रुभाव नहीं है, द्वेषभाव नहीं है।

लक्ष्मण को यह बात विचित्र लगी, बोलेः “माँ सीता का धोखे से अपहरण करके जो राक्षस ले आया, उसके लिए आप ʹमहान…. महान….ʹ बोलते हैं प्रभु ! मुझे यह समझ में नहीं आता।”

“लक्ष्मण ! सीता-अपहरण के जघन्य अपराध को छोड़ दो तो उनमें बहुत सारी योग्यताएँ थीं। जाओ, उनसे उपदेश लो।”

लक्ष्मण गये और वापस लौटकर आ गये, उपदेश नहीं मिला। रामजी ने पूछाः “उपदेश माँगने के लिए गये थे तो कहाँ खड़े थे ?”

बोलेः “उसके सिर के नजदीक।”

सिर पर चढ़कर कोई ज्ञान लिया जाता है क्या ! चरणों में बैठकर ज्ञान लिया जाता है।

उनके चरणों की तरफ खड़े रहकर विनम्र वाणी से प्रार्थना करना। चलो, मैं भी साथ में चलता हूँ।”

लक्ष्मण ने जाकर विनम्र वाणी से प्रार्थना की, तब लंकेश ने उठने की असमर्थता के कारण मन-ही-मन भक्तिभावपूर्वक राम जी को प्रणाम किया और कहाः “हे रघुनाथ ! मेरे पास समुद्र को खारेपन से रहित तथा चन्द्रमा को निष्कलंक बनाने की योजनाएँ थीं। अग्नि कहीं भी जले धुआँ न हो, धूम्र बिना की अग्नि और स्वर्ग तक की सीढियाँ मैं बनाना चाहता था ताकि सामान्य आदमी भी स्वर्ग का रहस्य जान सके और स्वर्ग का यात्रा करके आ सके। मुझे प्रजा के लिए यह सब करना था लेकिन सोचा, ʹयह बाद में करेंगे।ʹ मैंने विषय-सुख में, जरा नाच में, जरा सुंदरी के साथ वार्ता में, वाहवाही में….. पाँचों विषयों में जरा-जरा करके समय गँवा दिया। जो करने थे वे काम मेरे रह गये। इसलिए हे रामजी ! मेरे जीवन का सार यह है कि मनुष्य को अच्छे काम में देर नही करनी चाहिए और विषय-विकारों की बात को टालकर उनसे बचते हुए निर्विषय नारायण के सुख में जाना चाहिए, अन्यथा वह मारा जाता है। मेरे जैसे लंकेश की दुर्दशा होती है तो सामान्य आदमी की बात क्या करना !”

मरते समय रावण कहता हैः “हे रामचन्द्रजी ! आप तो महान हैं, आपके चरणों में मेरे प्रणाम हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 13,14,15 अंक 231

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स्रष्टा की विश्वलीला में सहायकः देवर्षि नारदजी


(देवर्षि नारदजी जयंतीः 6 मई)

कलहप्रिय के रूप में देवर्षि नारदजी की अपकीर्ति है। विरोध बढ़ाकर या किसी के लिए असुविधा की सृष्टि कर वे आनंद का उपभोग करते हैं, इस रूप में कथाएँ पुराणादि में पायी जाती है। उनके नाम का एक व्युत्पत्तिगत अर्थ हैः नारं नरसमूहं कलहेन द्यति खण्डयति इति नारदः। कलह सृष्टि के द्वारा जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद उत्पन्न करते हैं। किंतु उनके द्वारा सर्जित इन सब घटनाओं का विश्लेषण करने पर उनकी चेष्टाओं का गम्भीरतर उद्देश्य देखने में आता है।

स्रष्टा की विश्वलीला के सहायक के रूप में वे त्रिभुवन का विचरण करने निकलते हैं। सृष्टि का अर्थ ही हुआ वैचित्र्य-सत और असत का द्वन्द्व। इन द्वन्द्वों के बीच परिणा में सत् की विजय दिखाना ही उनकी सारी चेष्टाओं का उद्देश्य है। कई बार वे भली-भाँति विरोध उत्पन्न कर देते हैं असत् की समाप्ति के लिए, विनाश के लिए। फोड़े के पकने पर ही डॉक्टर का नश्तर लगता है। समय नहीं आने तक कष्ट सहते रहना होता है – परिणाम में कल्याण के लिए।

समुद्र-मंथन के परिणामस्वरूप लाभ के सारे अंश देवताओं के हिस्से पड़े थे, तथापि भयंकर युद्ध चलता रहा और देवताओं ने असंख्य असुरों का वध किया। ऐसी अवस्था में नारदजी ने समरक्षेत्र में उपस्थित होकर देवताओं से कहाः “आप लोगों ने तो अमृत पाया है, लक्ष्मी देवी को प्राप्त किया है तब और किस वस्तु के लिए युद्ध ?” उनके उपदेश से देवगण असुर विनाश के कर्म से विरत हुए।

वसुदेव के साथ देवकी के विवाह के बाद कंस ने आकाशवाणी सुनी थी कि ʹदेवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान के हाथों तेरी मृत्यु होगी।ʹ मृत्यु से बचने के लिए उसने बहन-बहनोई को कारागार में डाल दिया। नियम बना कि ʹजन्म लेने के बाद देवकी की प्रत्येक संतान का कंस वध करेंगे।ʹ प्रथम संतान को लाकर वसुदेव ने जब कंस के हाथों में दिया तब उसने कहाः “देवकी के आठवें गर्भ की संतान के हाथों मेरी मृत्यु निर्धारित है। अतः इस शिशु को तुम ले जाओ।”

उसी समय नारदजी ने वहाँ उपस्थित होकर कहाः “अरे राजन् ! तुम यह क्या करते हो  ? ब्रजपुरी के सारे गोप-गोपियों और वृष्णिवंश के वसुदेव आदि सबका देववंश से जन्म हुआ है। तुम्हारी बहन देवकी और तुम्हारे अनुगत आत्मीयजन, बंधु-बांधव ये सभी देवता हैं – ये सभी तुम्हारे शत्रु हैं।”

इस बात को सुनने के फलस्वरूप कंस का अत्याचार चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। उसने अपने अनुचरों को ब्रजपुरी और मधुपरी (वर्तमान में मथुरा) के समस्त शिशुओं की हत्या का आदेश दिया। देवकी और वसुदेव कारागार में श्रृंखलाबद्ध हुए। इस प्रकार कंस जैसे दुष्टों के पापों का घड़ा शीघ्र भरने के लिए ही नारदजी ने इस कांड को बढ़ाया।

महर्षि वेदव्यास जी ने वेदों का विभाजन तथा ब्रह्मसूत्र और महाभारत की रचना की थी, तथापि उनके मन में शांति नहीं थी। हृदय में किसी वस्तु का अभाव अनुभव हो रहा था, जिसे वे भाँप नहीं पा रहे थे। उऩ्होंने अपनी मनोवेदना क कारण खोजने में असमर्थता देवर्षि को बतायी। नारदजी ने उनकी शांतिप्राप्ति के उपायस्वरूप भगवान की लीला और गुणों का विस्तृत वर्णन कर एक ग्रंथ की रचना करने का उपदेश दिया। इस प्रकार नारदजी के उपदेश से भक्तों के परम प्रिय ʹश्रीमद् भागवतʹ ग्रंथ की रचना हुई।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 20, अंक 232

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सत्साहित्य जीवन का आधार है


जैसा साहित्य हम पढ़ते हैं, वैसे ही विचार मन के भीतर चलते रहते हैं और उन्हीं से हमारा सारा व्यवहार प्रभावित होता है। जो लोग कुत्सित, विकारी और कामोत्तेजक साहित्य पढ़ते हैं, वे कभी ऊपर नहीं उठ सकते। उनका मन सदैव काम विषय के चिंतन में ही उलझा रहता है और इससे वे अपनी वीर्यरक्षा करने में असमर्थ रहते हैं।

गंदे साहित्य कामुकता का भाव पैदा करते हैं। सुना गया है कि पाश्चात्य जगत से प्रभावित कुछ नराधम चोरी छिपे गंदी फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं, जिससे वे अपना और अपने सम्पर्क में आने वालों का विनाश करते हैं। ऐसे लोग महिलाओं, कोमल वय की कन्याओं तथा किशोर एवं युवावस्था में पहुँचे हुए बच्चों के साथ बड़ा अन्याय करते हैं। ʹब्ल्यू फिल्मʹ देखने-दिखाने वाले महाअधम, कामांध लोग मरने के बाद कूकर, शूकर, खरगोश, बकरा आदि दुःखद योनियों में भटकते हैं। निर्दोष कोमल वय के नवयुवक उन दुष्टों के शिकार न बनें, इसके लिए सरकार और समाज को सावधान रहना चाहिए।

बालक देश की सम्पत्ति हैं। ब्रह्मचर्य के नाश से उनका विनाश हो जाता है। अतः नवयुवकों को मादक द्रव्यों, गंदे साहित्यों व गंदी फिल्मों के द्वारा बरबाद होने से बचाया जाय। वे ही तो राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं। युवक-युवतियाँ तेजस्वी हों, ब्रह्मचर्य की महिमा समझें। स्कूलों कॉलेजों में विद्यार्थियों तक संयम पर लिखा गया साहित्य पहुँचायें। पुण्यात्मा, परोपकारी, बुद्धिमान यह दैवी कार्य करते हैं, और लोग भी उनके सहयोगी बनें।

ʹदिव्य प्रेरणा प्रकाशʹ पुस्तक से कोई एक परिवार पतन की खाई से बचा तो यह पुण्य-कार्य देश के, परिवार के लिए तो हितकारी है लेकिन जिन्होंने किया उनका भी तो भगवान मंगल ही करेंगे।

कर भला सो हो भला।

सरकार का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह संयम विषय पर शिक्षा प्रदान कर विद्यार्थियों को सावधान करे ताकि वे तेजस्वी बनें।

जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके जीवन पर दृष्टिपात करो तो उन पर किसी न किसी सत्साहित्य की छाप मिलेगी। अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक इमर्सन के शिष्य थोरो ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उन्होंने लिखा हैः ʹʹमैं प्रतिदिन गीता के पवित्र जल से स्नान करता हूँ। यद्यपि इस पुस्तक को लिखने वाले देवता को अनेक वर्ष व्यतीत हो गये लेकिन इसके बराबर की कोई पुस्तक अभी तक नहीं निकली है।”

योगेश्वरी माता गीता के लिए दूसरे एक विदेशी विद्वान, इंग्लैंड के एफ.एच.मोलेम कहते हैं- “बाइबिल का मैंने यथार्थ अभ्यास किया है। जो ज्ञान गीता में है, वह ईसाई या यहूदी बाइबिलों में नहीं है। मैं ईसाई होते हुए भी गीता के प्रति इतना आदर मान इसलिए रखता हूँ कि जिन गूढ़ प्रश्नों का हल पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक नहीं कर पाये, उनका हल इस गीता ग्रँथ ने शुद्ध और सरल रीति से दे दिया है। गीता में कितने ही सूत्र अलौकिक उपदेशों से भरपूर देखे, इसी कारण गीता जी मेरे लिए साक्षात् योगेश्वरी माता बन गयी हैं। विश्व भर के सारे धन से भी न मिल सके, भारतवर्ष का यह ऐसा अमूल्य खजाना है।”

सुप्रसिद्ध पत्रकार पॉल ब्रंटन सनातन धर्म की ऐसी धार्मिक पुस्तकें पढ़कर जब प्रभावित हुआ तो वह हिन्दुस्तान आया और यहाँ के रमण महर्षि जैसे महात्माओं के दर्शन करके धन्य हुआ। देशभक्तिपूर्ण साहित्य पढ़कर ही चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, वीर सावरकर जैसे रत्न अपने जीवन को देशहित में लगा पाये।

इसलिए सत्साहित्य की तो जितनी महिमा गायी जाय उतनी कम है। श्री योगवासिष्ठ महारामायण, श्रीमदभगवदगीता, श्रीमदभागवत, रामायण, महाभारत, उपनिषद, दासबोध, सुखमनी साहिब, विवेकचूड़ामणि, स्वामी रामतीर्थ के प्रवचन, जीवन रसायन, दिव्य प्रेरणा-प्रकाश आदि भारतीय संस्कृति की ऐसी कई पुस्तकें हैं, जिन्हें पढ़ो और अपने दैनिक जीवन का अंग बना लो। ऐसी वैसी विकारी और कुत्सित पुस्तक-पुस्तिकाएँ हों तो उन्हें उठाकर कचरे के ढेर पर फेंक दो या चूल्हे में डालकर आग तापो, मगर न तो स्वयं पढ़ो और न दूसरों के हाथ लगने दो।

आध्यात्मिक साहित्य सेवन में संयम, स्वास्थ्य मजबूत करने की अथाह शक्ति होती है। संयम, स्वास्थ्य, साहस और आत्मा-परमात्मा का आनंद व सामर्थ्य अपने जीवन में जगाओ। कब तक दीन-हीन होकर लाचार-मोहताज जीवन की ओर घसीटे जाओगे भैया ! प्रातःकाल स्नानादि के पश्चात दैनंदिन कार्यों में लगने से पूर्व एवं रात्रि को सोने से पूर्व कोई-न-कोई आध्यात्मिक पुस्तक पढ़नी चाहिए। इससे वे ही सत्त्वगुणी विचार मन में घूमते रहेंगे जो पुस्तक में होंगे और हमारा मन विकारग्रस्त होने से बचा रहेगा।

कौपीन (लँगोटी) पहनने का भी आग्रह रखो। इससे अंडकोष स्वस्थ रहेंगे और वीर्यरक्षण में मदद मिलेगी। वासना को भड़काने वाले नग्न व अश्लील पोस्टरों एवं चित्रों को देखने का आकर्षण छोड़ो। अश्लील शायरी और गाने भी जहाँ गाये जाते हों, वहाँ न रूको।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ट संख्या 23,24, अंक 232

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