स्रष्टा की विश्वलीला में सहायकः देवर्षि नारदजी

स्रष्टा की विश्वलीला में सहायकः देवर्षि नारदजी


(देवर्षि नारदजी जयंतीः 6 मई)

कलहप्रिय के रूप में देवर्षि नारदजी की अपकीर्ति है। विरोध बढ़ाकर या किसी के लिए असुविधा की सृष्टि कर वे आनंद का उपभोग करते हैं, इस रूप में कथाएँ पुराणादि में पायी जाती है। उनके नाम का एक व्युत्पत्तिगत अर्थ हैः नारं नरसमूहं कलहेन द्यति खण्डयति इति नारदः। कलह सृष्टि के द्वारा जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद उत्पन्न करते हैं। किंतु उनके द्वारा सर्जित इन सब घटनाओं का विश्लेषण करने पर उनकी चेष्टाओं का गम्भीरतर उद्देश्य देखने में आता है।

स्रष्टा की विश्वलीला के सहायक के रूप में वे त्रिभुवन का विचरण करने निकलते हैं। सृष्टि का अर्थ ही हुआ वैचित्र्य-सत और असत का द्वन्द्व। इन द्वन्द्वों के बीच परिणा में सत् की विजय दिखाना ही उनकी सारी चेष्टाओं का उद्देश्य है। कई बार वे भली-भाँति विरोध उत्पन्न कर देते हैं असत् की समाप्ति के लिए, विनाश के लिए। फोड़े के पकने पर ही डॉक्टर का नश्तर लगता है। समय नहीं आने तक कष्ट सहते रहना होता है – परिणाम में कल्याण के लिए।

समुद्र-मंथन के परिणामस्वरूप लाभ के सारे अंश देवताओं के हिस्से पड़े थे, तथापि भयंकर युद्ध चलता रहा और देवताओं ने असंख्य असुरों का वध किया। ऐसी अवस्था में नारदजी ने समरक्षेत्र में उपस्थित होकर देवताओं से कहाः “आप लोगों ने तो अमृत पाया है, लक्ष्मी देवी को प्राप्त किया है तब और किस वस्तु के लिए युद्ध ?” उनके उपदेश से देवगण असुर विनाश के कर्म से विरत हुए।

वसुदेव के साथ देवकी के विवाह के बाद कंस ने आकाशवाणी सुनी थी कि ʹदेवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं संतान के हाथों तेरी मृत्यु होगी।ʹ मृत्यु से बचने के लिए उसने बहन-बहनोई को कारागार में डाल दिया। नियम बना कि ʹजन्म लेने के बाद देवकी की प्रत्येक संतान का कंस वध करेंगे।ʹ प्रथम संतान को लाकर वसुदेव ने जब कंस के हाथों में दिया तब उसने कहाः “देवकी के आठवें गर्भ की संतान के हाथों मेरी मृत्यु निर्धारित है। अतः इस शिशु को तुम ले जाओ।”

उसी समय नारदजी ने वहाँ उपस्थित होकर कहाः “अरे राजन् ! तुम यह क्या करते हो  ? ब्रजपुरी के सारे गोप-गोपियों और वृष्णिवंश के वसुदेव आदि सबका देववंश से जन्म हुआ है। तुम्हारी बहन देवकी और तुम्हारे अनुगत आत्मीयजन, बंधु-बांधव ये सभी देवता हैं – ये सभी तुम्हारे शत्रु हैं।”

इस बात को सुनने के फलस्वरूप कंस का अत्याचार चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। उसने अपने अनुचरों को ब्रजपुरी और मधुपरी (वर्तमान में मथुरा) के समस्त शिशुओं की हत्या का आदेश दिया। देवकी और वसुदेव कारागार में श्रृंखलाबद्ध हुए। इस प्रकार कंस जैसे दुष्टों के पापों का घड़ा शीघ्र भरने के लिए ही नारदजी ने इस कांड को बढ़ाया।

महर्षि वेदव्यास जी ने वेदों का विभाजन तथा ब्रह्मसूत्र और महाभारत की रचना की थी, तथापि उनके मन में शांति नहीं थी। हृदय में किसी वस्तु का अभाव अनुभव हो रहा था, जिसे वे भाँप नहीं पा रहे थे। उऩ्होंने अपनी मनोवेदना क कारण खोजने में असमर्थता देवर्षि को बतायी। नारदजी ने उनकी शांतिप्राप्ति के उपायस्वरूप भगवान की लीला और गुणों का विस्तृत वर्णन कर एक ग्रंथ की रचना करने का उपदेश दिया। इस प्रकार नारदजी के उपदेश से भक्तों के परम प्रिय ʹश्रीमद् भागवतʹ ग्रंथ की रचना हुई।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 20, अंक 232

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