उन्नति के सूत्र

उन्नति के सूत्र


(पूज्य बापू जी की परम हितकारी वाणी)

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को किस तरह पाया जा सकता है – यह ज्ञान यदि पाना हो तो इसके लिए ʹश्रीमदभगवदगीताʹ है। मृत्यु को किस तरह सुधारा जा सकता है – यह ज्ञान यदि पाना हो तो ʹश्रीमदभागवतʹ है।

साधक को अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करना चाहिए। महीने भर अथवा साल भर की योजना न बनायें वरन् रोज सुबह योजना बनायें कि ʹआज चाहे कुछ भी हो जाय, बेहोशी में नहीं जिऊँगा, होश में ही जिऊँगा, सजग रहूँगा। जो कुछ भी करूँगा, खाऊँगा, पिऊँगा, लूँगा-दूँगा, उसका परिणाम क्या होगा – इसका पहले विचार करूँगा। मेरी सारी क्रियाएँ, सारी चेष्टाएँ ईश्वर की ओर ले जाने वाली हैं या ईश्वर से विमुख करने वाली है ? ऐसा पहले चिंतन करूँगा।ʹ इस प्रकार विचार करके कर्म करते रहने से साधक को ईश्वराभिमुख होने में सहायता मिलती है।

यदि अपने चिंतन का, अपनी बुद्धि का सदुपयोग करने की कला आ जाये तो मनुष्य संसार में खूब आनंद से, खूब शांति से एवं खूब प्रेम से जी सकता है। स्वर्ग के सुख से भी वह कई गुना ज्यादा सुख पा सकता है। मृत्यु के पहले और बाद भी वह मुक्ति का अनुभव कर सकता है।

ʹभगवदगीताʹ के सोलहवें अध्याय का उद्देश्य ही यह है कि मनुष्य अपने आत्मदेव के ज्ञान को पाकर मुक्त हो जाय। आसुरी वृत्तियों से किस प्रकार बचा जाय, सांसारिक बंधनों से किस प्रकार छूटा जाय और मुक्ति सरलता से मुट्ठी में कैसे आये ? इसके लिए ʹगीताʹ का सोलहवाँ अध्याय दैवी सम्पत्ति में निर्भयता, मौन, तप, आहार-संयम आदि गुण हैं।

जीवन में उन्नति के चार सूत्र हैं। पहली बात है कि निर्भय रहो। शादी-विवाह में इतना खर्च नहीं करूँगा तो बेईज्जती होगी… उधार लेकर भी फर्नीचर नहीं खरीदूँगा तो लोग क्या कहेंगे….ʹ इस प्रकार के कई भय मनुष्य को सताते रहते हैं। जिस काम से तुम्हार चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने अंतर्यामी परमात्मा को राजी करने का प्रयत्न करो। पफ-पाउडर, लाली-लिपस्टिक आदि से शरीर को नहीं सजायेंगे तो लोग क्या कहेंगे इसकी परवाह न करो। जीवन में निर्भयता लाओ। शराबी कहता है कि ʹचलो मित्र ! शराब पियें।ʹ अब यदि तुम शराब नहीं पीते हो तो मित्र नाराज हो जाते हैं और यदि पीते हो तो तुम्हारी बरबादी होती है। फिर क्या करें ? अरे, मित्र नाराज होते हैं तो होने दो परंतु शराब नहीं पीनी है यह निश्चय दृढ़ रखो। जो लोग तुम्हें खराब काम, हलकी संगति और हलकी प्रवृत्तियों की तरफ घसीटते हैं उनसे निर्भय हो जाओ लेकिन माता-पिता, गुरू, शास्त्र एवं भगवान क्या कहेंगे, इस बात का डर रखो। ऐसा डर रखने से चित्त पवित्र होने लगता है क्योंकि ऐसा डर हलके कामों, हलकी प्रवृत्तियों एवं हलकी संगति से बचाने वाला होता है।

हरि डर गुरु डर जगत डर, डर करनी में सार।

रज्जब डरिया सो उबरिया, गाफिल खायी मार।।

जीवन में निर्भयता आनी ही चाहिए। झूठे आडम्बरों से बचने के लिए भी निर्भय बनो। आप मेहमानों को भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे-अच्छे एवं तले हुए व्यंजन न खिला सको तो कोई बात नहीं, चिंता मत करो। परंतु यदि तुम सच्चे दिल से, एक प्रेमभरी नजर से, पानी के एक प्याले से भी मेहमान का आदर-सत्कार कर सको तो वह तुम्हारे यहाँ से उन्नत होकर जायेगा।

तुम लोगों की परवाह मत करो कि ʹऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे….ʹ अरे ! तुम अपनी नाक से श्वास लेते हो कि लोगों की नाक से ? अपने जीवन का आयुष्य खर्चते हो कि लोगों के जीवन का ? हम एक-दूसरे से ऐसे बँध गयें हैं, ऐसे बंध गये हैं कि शराब-कबाब आदि की पार्टियों से भले अपना व दूसरों का सत्यानाश होता हो फिर भी ʹलोग क्या कहेंगे ?ʹ के भूत से ग्रस्त हो जाते हैं एवं अपनी हानि करते रहते हैं। इसीलिए ʹगीताʹ में कहा गया हैः अभयं सत्त्वसंशुद्धिः। निर्भय एवं सत्त्वगुणी बनो। कायर, डरपोक एवं रजो-तमोगुणी मत बनो।

मैं घूमने जाता हूँ तो कभी कुत्ते भौंकने लगते हैं। मेरा तो विनोदी स्वभाव है। कुत्ते भौंकते हैं तब यदि मैं खड़ा रह जाता हूँ तो उनकी पूँछ दबी हुई पाता हूँ लेकिन जानबूझकर विनोद में दौड़ने लगता हूँ तो कुत्ते तो मेरा पीछा करते ही हैं, साथ में उनके छोटे-छोटे पिल्ले भी मेरा पीछा करने लग जाते हैं।

दुःख एवं मुसीबतें डरपोक मनुष्य का ही पीछा करती है, जबकि निर्भय व्यक्ति के सामने उनकी पूँछ दब जाती है। अतः दुःख एवं मुसीबतों को बुलाना हो तो भयभीत रहो और उनकी पूँछ दबानी हो तो निर्भय बनो।

भगवान से, गुरु से, माता-पिता से, शास्त्र से भले अनुशासित रहो परंतु जो हलका संग कराके पतन करा दें, उनसे निर्भय रहना चाहिए। उनसे किनारा करके निर्भयतापूर्वक अपने जीवन में अच्छे संस्कारों को पकड़े रहना चाहिए।

दूसरी बात है कि हृदय शुद्ध रहे ऐसा आहार-विहार और चिंतन करो। कहा भी गया है कि “जैसा खाओ अन्न, वैसा बनता मन।” साधक को अपने आहार पर खूब ध्यान देना चाहिए। ʹआहारʹ शब्द केवल भोजन के लिए ही नहीं है वरन् आँखों से, कानों से, नाक से, त्वचा से जो ग्रहण किया जाता है, वह भी आहार के ही अंतर्गत आता है। अतः उसमें सात्त्विकता का ध्यान रखना चाहिए।

तीसरी बात है तप। हमारे जीवन में तपस्या भी होनी चाहिए। सुबह भले ठंड लगे फिर भी सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लो। देखो, इससे हृदय में कितनी प्रसन्नता और सत्त्वगुण बढ़ता है। फिर थोड़ा ध्यान करो। यह तप हो जाता है। सत्संग अथवा सत्कर्म के समय थोड़ा तन-मन-धन तो अवश्य खर्च होता है किंतु वह तुम्हारी तपस्या बन जाती है।

चौथी बात है मौन। प्रतिदिन 2-4 घंटे का मौन रखो। इससे तुम्हारी आंतरिक शक्ति बढ़ेगी, तुम्हारी वाणी में आकर्षण आयेगा। जो पतंगे की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं एवं व्यर्थ की बक-बक करते रहते हैं उनके चित्त में न शांति होती है, न क्षमा, न विचारशक्ति होती है और न ही अनुमान शक्ति। वे बिखर जाते हैं। स्त्रियों को तो मानो ज्यादा बोलने का ठेका ही मिला हुआ है। सास-बहू में, अड़ोस-पड़ोस में व्यर्थ की गप्पें मारकर वे स्वयं ही झगड़े पैदा कर लेती हैं। यदि झगड़े न भी होते हों तो फालतू बातें तो होती ही हैं। उन बेचारियों को पता ही नहीं होता कि व्यर्थ की बातें करने से प्राणशक्ति एवं वाक्शक्ति का ह्रास होता है।

अतः साधक को चाहिए कि वह मौन रखे। मौन से बहुत लाभ होता है। यदि एक बार भी तुम लम्बे समय तक मौन रखो तो अंदर का आनंद प्रकट होने लगेगा। विचारशक्ति, अनुमान शक्ति के अलावा धैर्य, क्षमा, शांति आदि सदगुण भी आऩे लगेंगे।

गुजराती में कहावत हैः न बोल्यामां नव गुण। अर्थात् न बोलने में नौ गुण हैं, झगड़े उत्पन्न करते हैं और अपनी आयु क्षीण करते हैं। किसी के साथ बात करो तो कम से कम, स्नेहयुक्त एवं सारगर्भित बात करो। इससे तुम्हारी वाणी का एवं तुम्हारा प्रभाव पड़ेगा।

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष एक स्मितभरी नजर डालते हैं और पूरा जनसमुदाय तन्मय हो जाता है। अरे ! मनुष्यों की तो क्या बात, ब्रह्मलोक तक के देवी-देवता भी उनके अऩुकूल हो जाते हैं। हम उनका माहात्म्य नहीं जानते इसीलिए ʹहा… हा…ही….ही….ʹ में अपना जीवन गँवा डालते हैं। हमें पता ही नहीं है कि हमारे भीतर कितना खजाना भरा पड़ा है और हम कितना, किस प्रकार उसे खर्च कर रहे हैं !

ज्ञानवानों का स्मित ऐसा अनोखा होता है जिससे कोई भी सहज में ही उनके प्रति अहोभाव से भर जाता है। श्रीकृष्ण अपनी स्मितभरी नजर डालकर बंसी बजाते थे तो सब ग्वाल-गोपियों के चित्त सहज में ही पवित्र हो जाते थे। उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की स्मितभरी नजर से लोगों का चित्त पवित्र होने लगता है।

निगाहों से निहाल हो जाते हैं,

जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।

तुम भी अपनी दृष्टि ऐसी ही बनाओ। ऐसा नहीं कि व्यर्थ का इधर-उधर भटकते रहो, व्यर्थ बोलते रहो एवं अपने ज्ञानतंतुओं, अपनी रक्तवाहिनियों, अपने शरीर एवं मन को सताते रहो।

जीवन में निर्भयता, आहारशुद्धि, तप एवं मौन – ये गुण आ जायें तो जीवन काफी उन्नत हो जाय और यह काम तुम कर सकते हो। युद्ध के मैदान में अगर अर्जुन यह काम कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते ? अर्जुन तो कितनी विपत्तियों के बीच था, फिर भी श्रीकृष्ण ने उसको गीता का उपदेश दिया था। तुम्हारे आगे कितनी झंझटें नहीं हैं भाई ! बस, कमर कस लो इन दैवी गुणों को अपनाने के लिए…. निर्भयता, आहार-संयम, तप एवं मौन को आत्मसात करने के लिए।

ʹहम क्या करें ? हम तो गृहस्थी हैं…. हम तो संसारी हैं….. हम तो नौकरीवाले हैं….ʹ अरे ! तुम्हारे साथ संसार की जितनीत झंझटें हैं, उससे ज्यादा झंझटें पहले के समय में थीं। फिर भी हिम्मतवान, बुद्धिमान पुरुषों ने समय बचाकर विकारों एवं बेवकूफियों पर विजय पा ली एवं अपने आत्म-परमात्मा, अपने रब को पहचान लिया।

प्रह्लाद के जीवन में कितनी मुसीबतें आयीं ! फिर भी वे अडिग रहीं, निर्भय रहीं, हताश-निराश न हुई तो कितनी उन्नत हो गयी !

तुम भी उन्नत हो सकते हो, अपने आपको जान सकते हो। शर्त इतनी ही है कि दैवी गुणों को बढ़ाओ, पुरुषार्थ करो एवं सत्संग अवश्य करो। सत्संग से ही तुम्हें अपने दैवी गुणों को विकसित करने की प्रेरणा मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा, मार्गदर्शन मिलेगा, उत्साह उभरेगा। निर्भयता, आहारशुद्धि, वाणी का संयम एवं तप – इन दैवी गुणों का विकास तुम्हारे लिए उन्नति का द्वार सहजता से ही खोल देगा। अतः आज से, अभी से दृढ़ता से लगो। लगोगे न ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अंक 233, मई 2012, पृष्ठ संख्या 18, 19, 20

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