Monthly Archives: June 2012

भगवदीय अपराध की सजा


(पूज्य बापूजी की शिक्षाप्रद अमृतवाणी)

जब तक भगवान में प्रीति नहीं होती, तब तक भगवदरस का आस्वादन नहीं होता और व विकार पीछा नहीं छोड़ते।

अकबर की बहुत सारी बेगमें थीं। उनमें हिन्दुआनी बेगमें भी थीं। उनमें एक का नाम था जोधाबाई। एक दिन सुबह-सुबह यमुना जी में स्नान करने गयी तो वहाँ देखा कि एक बच्ची बेचारी पानी में डूब की रही है। उसे उठाने का उसका मन हुआ। उसने बच्ची को उठा लिया और अपने साथ ले आयी तथा उसका अपनी जाई की नाई पालन-पोषण करने लगी।

लड़की जब 11,12 साल की हुई तो एक दिन वह संदूक खोलकर कपड़े निकाल रही थी। जोधाबाई छुपकर देख  रही थी कि यह क्या करती है ? उसने एक साड़ी निकाली और पहन ली। जो दुल्हन का श्रृंगार होता है, उसने वह सारा किया और चुपके-से छत पर खड़ी हो गयी।

जब ग्वाले गाय चराकर लौटते हैं, वह समय था। एक दिन-दो दिन…. जोधाबाई ने जब देखा कि यह रोज सज-धजकर ऊपर खड़ी हो जाती है तो एक दिन उसने कन्या से पूछाः “बेटी ! तू यह क्या करती है ?”

पहले तो वह शरमा गयी, बताने से कतराने लगी। फिर जोधाबाई ने जब आग्रह किया तब उसने कहाः “मेरा पति गाय चराकर लौटता है।”

जोधाबाईः “कौन है तेरा पति ?”

“वह बंसीधर, घुँघराले बालों वाला यशोदा का लाल।”

जोधाबाई को लगा कि ʹयह पिछले जन्म में कोई भक्तानी रही होगी, जो भगवान को पतिरूप में मानती होगी। किसी कारण साधना में रूकावट आयी होगी और मर गयी होगी।ʹ

अकबर ने उसका रूप-सौंदर्य देख उस अपनी धर्म की कन्या के साथ विवाह करने का अथवा ज्यों ही उसे उसके साथ विवाह करने का अथवा ऐसे ही उसके साथ विकारी भोग भोगने का विचार आया, त्यों ही उसके शरीर में जलन पैदा हो गयी। ऐसी जलन, ऐसी अशांति की कई हकीमों के उपचार करने पर भी उसे आराम नहीं हुआ।

आखिर बीरबल से पूछाः “बीरबल ! क्या बात है कि मेरा रोग मिटता ही नहीं ?”

बीरबल तो जानता था उसकी आदत। उसे पता था कि धर्म की कन्या के प्रति बुरा विचार किया है।

बीरबल ने कहाः “आप संत सूरदासजी महाराज की शरण लो। वे आयें और उनके हृदय में जब भगवान के प्रति प्रार्थना अथवा संकल्प उठेगा तभी यह ठीक हो सकता है।”

यह भगवदीय अपराध है, भगवान की भक्तानी के प्रति…। उसको बोला नहीं लेकिन बीरबल ने गणित लगाया कि यह भगवदीय अपराध है तो भगवद्-जन ही उस भगवदीय अपराध की क्षणा दिला सकते हैं। बड़ी अनुनय विनय करके अकबर ने सूरदास जी को बुलाया और उनके हृदय में उसके प्रति सदभाव अथवा दया उपजे ऐसा व्यवहार किया तो सूरदास जी ने कृपा करके उसे रोग से, अशांति से बचा लिया।

सुख के लिए आदमी न करने जैसा काम भी करता है, फिर भी सुख टिकता नहीं है क्योंकि वह दुःखालय संसार से सुख लेता है। हम सुख को थामने के लिए और दुःख को भगाने के लिए दिन-रात लगे रहते हैं फिर भी वह सुख थमता नहीं, दुःख भागता नही। दुःखी आदमी का दुःख तब तक जीवित रहता है जब तक उसकी संसार से सुख लेने की भूल जीवित है।

अब आपको क्या करना है ? अकबर जैसा राजवैभव मिल जाये फिर भी विकारी सुख भोगने की गंदी आदत जीव की जाती नहीं। इसलिए अपनी पत्नी हो तो भी विषय-विकारों से बचें। भगवत्सुमिरन, भगवदध्यान, भगवदविश्रान्ति में पूर्णता पानी चाहिए। भगवत्सुख कई वर्षों के बाद मिलेगा ऐसा नहीं है। ऐसा सोचो कि ʹभगवान अभी मेरे हैं, चैतन्य हैं, सुखस्वरूप हैं। वे सच्चिदानन्द हैं। मुझसे दूर नहीं है।ʹ

भगवान को कई लोगों ने कठिन कर दिया कि ʹवे वैकुण्ठ में है। इतने साल जप करेंगे, इतनी तपस्या करेंगे तब वे मिलेंगे।ʹ वास्तव में अकुंठित हृदय ही वैकुंठ है, विश्वेश्वर की प्रीतिवाला हृदय ही वैकुंठ है।

अरे, अभी नहीं हैं बाद में मिलेंगे तो चले भी जायेंगे। वे अभी मौजूद हैं। ʹअभी सत्स्वरूप हैं, चेतनस्वरूप हैं, आनंदस्वरूप हैं और अभी मेरे आत्मा हैंʹ – इसका अनुभव करने के लिए थोड़ी भूख जगायें, बस। ʹमुझे अपने आत्मा-परमात्मा का अनुभव करना है….ʹ आपमें यह भूख जग गयी तो भगवान आपके अंदर से आऩंदस्वरूप में प्रकटेंगे। सत्स्वभाव में, ज्ञानस्वभाव में आपके हैं, ऐसा महसूस करायेंगे।

यह बात दिमाग से बिलकुल निकाल दो कि हम इतनी तपस्या करेंगे फिर भगवान मिलेंगे। नहीं, भगवान बिछुड़ ही नहीं सकते। भगवान की आकृति आती है – जाती है लेकिन उनका जो चिदघन अस्तित्व है, वह सर्वत्र व्यापक है। हवा के कारण पानी में तरंगे आयीं, बुलबुले आये, झाग आया और ये सब मिट भी गये, बाकी पानी तो अभी भी है सरोवर में। ऐसे ही चिंतन करें कि ʹसत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा अभी हैं। वे मेरे को छोड़ नहीं सकते, मैं उनको नहीं छोड़ सकता। परमात्मा मुझे अपने से अलग नहीं कर सकते। मैं उनका हूँ, वे मेरे हैं। ૐ….. ૐ…. ૐ…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 16,17

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साधना का अमृतकालः चतुर्मास


30 जून 2012 से 25 नवम्बर 2012 तक

केवल पुण्यप्रद ही नहीं, परमावश्यक है

चतुर्मास में साधना।

आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान विष्णु योगनिद्रा द्वारा विश्रान्तियोग का आश्रय लेते हुए आत्मा में समाधिस्थ रहते हैं। इस काल को ʹचतुर्मासʹ कहते हैं।

संस्कृत में हरि शब्द सूर्य, चन्द्र, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। वर्षाकाल की उमस हरि (वायु) में शयनार्थ चले जाने के कारण उनके अभाव में उत्पन्न होती है। यह अन्य किसी भी ऋतु में अनुभव नहीं की जा सकती। सर्वव्यापी हरि हमारे शरीर में भी अऩेक रूपों में विद्यमान रहते हैं। शरीरस्थ गुणों में सत्त्वगुण हरि का प्रतीक है। वात-पित्त-कफ में पित्त को हरि का प्रतिनिधि माना गया है। चतुर्मास में ऋतु परिवर्तन के कारण पित्तरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति सो जाती है। इस ऋतु में सत्त्वगुणरूपी हरि का शयन (मंदता) तो प्रत्यक्ष ही है, जिससे रजोगुण व तमोगुण की वृद्धि होने से इस ऋतु में प्राणियों में भोग-विलास प्रवृत्ति, निद्रा, आलस्य अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं। हरि के शरीरस्थ प्रतिनिधियों के सो जाने के कारण (मंद पड़ने से) अऩेक प्रकार की शारीरिक व मानसिक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनके समाधान के लिए आयुर्वेद में इस ऋतु हेतु विशेष प्रकार के आहार-विहार की व्यवस्था की गयी है।

सत्त्वगुण की मंदता से उत्पन्न होने वाली दुष्पृवृत्तियों के शमन हेतु चतुर्मास में विविध प्रकार के व्रत, अऩुष्ठान, संत-दर्शन, सत्संग, संत-सेवा यज्ञादि का आयोजन होता है, जिससे सत्त्व-विरहित मन भी कुमार्गगामी न बन सके। इन चार महीनों में विवाह, गृह-प्रवेश, प्राण-प्रतिष्ठा एवं शुभ कार्य बंद रहते हैं।

चतुर्मास में विशेष महत्त्वपूर्णः विश्रान्तियोग

ʹस्कन्द-पुराणʹ के अनुसार चतुर्मास में दो प्रकार का शौच ग्रहण करना चाहिए। जल से नहाना-धोना बाह्य शौच है तथा श्रद्धा से अंतःकरण शुद्ध करना आंतरिक शौच है। चतुर्मास में इऩ्द्रियों की चंचलता, काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य (ईर्ष्या) विशेष रूप से त्याग देने योग्य हैं। इनका त्याग सब तपस्याओं का मूल है, जिसे ʹमहातपʹ कहा गया है। ज्ञानीजन आंतरिक शौच के द्वारा अपने अंतःकरण को मलरहित करके उसी आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाते हैं जिसमें श्रीहरि चार महीने समाधिस्थ रहते हैं।

पूज्य बापू जी कहते हैं- “भगवान नारायण चतुर्मास में समाधि में है तो शादी-विवाह और सकाम कर्म वर्जित माने जाते हैं। सेवा, सुमिरन, ध्यान आपको विशेष लाभ देगा। भगवान नारायण तो ध्यानमग्न रहते हैं और नारायण-तत्त्व में जगे हुए महापुरुष भी चतुर्मास में विशेष विश्रांतियोग में रहते हैं, उसका फायदा उठाना। आपाधापी के कर्मों से थोड़ा अपने को बचा लेना।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 27

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परम उन्नतिकारक श्रीकृष्ण-उद्धव प्रश्नोत्तरी


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

उद्धवजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछाः “प्रभु ! दक्षिणा किसको बोलते हैं ?”

श्रीकृष्णः “गुरुजनों के उपदेश में जो दक्ष हो जाता है, दृढ़ हो जाता है, अपने मन के नागपाश में जो नहीं आता, गुरु के समक्ष जिसके जाते ही गुरु के मन में हो कि अब इसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश देना चाहिए तो समझ लो कि उसने दक्षिणा दे दी। उसका व्यवहार, आचरण ऐसा हो कि गुरु को संतोष हो कि धोखा नहीं देगा। यह ब्रह्मविद्या का दुरुपयोग नहीं करेगा, पद का दुरुपयोग नहीं करेगा, पद के अनुरूप विचार करेगा। ऐसी योग्यता से सुसज्ज होना ही दक्षिणा है। देखते ही गुरु का हृदय उछलने लग जाय कि ʹये मेरे साधक हैं, मेरे शिष्य हैं इनको ब्रह्मज्ञान का उपदेश दें। इनको जल्दी भगवद्-अमृत मिले, भगवदज्ञान मिले।ʹ ऐसा आचरण ही दक्षिणा है।”

“श्रीकृष्ण ! लज्जा किसको बोलते हैं ? लज्जा कब आनी चाहिए ?”

“बुरा कर्म करने में शर्म आये उसको बोलते हैं लज्जा। बुरे काम में, बुरी सोच में, बुरे भोजन में, बुरा मजा लेने में लज्जा आये तो समझ लेना उसकी लज्जा सार्थक हो गयी। ऐसे ही कुछ पहन लिया, घूँघट निकाल दिया तो क्या बड़ी बात हो गयी ! बुरा काम, बुरा बोलना, बुरा सोचना, बुरा खाना, ये जब भी हों तो सावधान होकर दृढ़ संकल्प लें कि ʹमैं बुराई की खाई में नहीं गिरूँगा।ʹ उनसे अच्छाई की तरफ जायें।”

“प्रभु ! श्रीमान् किसको बोलते हैं ?”

“रूपये पैसे तो यक्षों के पास भी बहुत होते हैं। रावण के पास भी धन बहुत था। श्रीमान वह है जिसके जीवन में किसी चीज की जरूरत नहीं है, भगवत्कथा है और भगवान में ही संतुष्ट है वही उत्तम योगी भी है।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।

जो यत्न करता है और ʹमैं आत्मा हूँʹ – ऐसा दृढ़ निश्चय है जिसका, वह संतुष्ट रहेगा। अंतरात्मा में तृप्त, संतुष्ट व्यक्ति ही वास्तव में श्रीमान है, धनवान।”

उद्धवजीः “दरिद्र कौन है?”

भगवानः “जिसको संतोष नहीं है। “गहने चाहिए, कपड़े चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए…. मेरा चला न जायʹ-ऐसा जो सोचता है वह कंगाल है।”

“प्रभु ! सुख क्या है ?”

“उद्धव ! सामान्य आदमी समझता है कि मकान हो, दुकान हो, चीज वस्तुएँ हों, विषय भोग हों, सब कहने में चलें तो यह सुख है। नहीं यह सुख नहीं है। सुख सुविधाएँ प्राप्त हों, चाहे सब चली जायें फिर भी ज्यों का त्यों समता में रहे वह वास्तविक सुख है। सुखद अवस्था आये चाहे चली जाय फिर भी अंतःकरण में हलचल न हो, अपना स्वरूप ज्यों का त्यों है ऐसा ज्ञान बना रहे वह वास्तविक सुख है, वास्तविक ज्ञान है, वास्तिक रस है, वास्तविक भगवत्प्राप्ति है।

सचमुच में सुख क्या है कि सुखद, अनुकूल वस्तु मिले तो भी उसकी आसक्ति-वासना न हो, प्रतिकूल परिस्थिति आये तब भी दुःख न हो वह समता ही वास्तव में सुख है।” बहुत ऊँची बात कह दी भगवान ने !

स्रोतः ऋषि प्रसाद जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 10

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