ऐसी निष्ठा कि मंत्र हुआ साकार

ऐसी निष्ठा कि मंत्र हुआ साकार


सन् 1501 में विजय नगर राज्य के बाड़ ग्राम(वर्तमान में कर्नाटक के हवेरी जिले का एक गाँव) में जागीरदार वीरप्पा व उनकी पत्नी बच्चम्मा के यहाँ एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया कनक। इनकी जाति कुरुब (भेड़-बकरी चराने वाले) थी। बचपन में ही इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। बड़े होने पर पिता की जागीरदार इन्होंने सँभाल ली। एक बार भूमि शोधन करते समय कनक को भूमिगत अपार धनराशि मिली। उसके बाद इनका नाम कनकनायक पड़ा। इन्होंने उस धन से कागीनेले गाँव में भगवान केशव का भव्य देवालय बनवाया।

एक रात स्वप्न में कनकनायक को भगवान ने कहाः “कनका ! तू मेरी शरण में आ जा !”

स्वप्न में ही वे बोलेः “शरण ? भीख माँग कर जीने के लिए मैं क्यों दास बनूँ ? मैं तो राजा बनना चाहता हूँ।”

कुछ समय बाद उनकी पत्न और माँ की मृत्यु हो गयी। एक दिन पुनः भगवान स्वप्न में आकर बोलेः “कनका ! मेरी बात भूल गया ?”

“जागीरदारी छोड़कर भिक्षा माँगकर क्यों खाऊँ ?”

“जागीरदारी गयी तो ?”

“बकरी चराऊँगा।”

“बकरी चराने को तैयार है, मेरा बनने को नहीं ?”

“अઽઽઽ…..ʹ कनक की नींद टूट गयी। सोचा, ʹयह क्या मुसीबत है ! भगवान क्यों मेरे पीछे पड़े हैं ! पिता मर गये, पत्नी मर गयी, माँ मर गयी, अब हरि का दास बनकर भीख माँगना बाकी रहा क्या !”

कुछ समय बाद उस क्षेत्र में घमासान युद्ध हुआ। उसमें कनक का पूरा शरीर बाणों से छलनी हो गया। ऐसी विषम परिस्थिति में उऩ्हें अब एक ही सहारा जान पड़ा। वे ʹकेशव…. केशव….ʹ पुकारते हुए बेहोश हो गये। शत्रु उन्हें मरा हुआ समझ छोड़ के चले गये।

भगवान मनुष्यरूप में आये और कनक को जगाया। कनक ने पूछाः “आप कौन हैं ?”

भगवान बोलेः “क्या कनका ! इतनी जल्दी मुझे भूल गया ? इस तरह युद्ध करके लाशों के बीच गिरने में सुख है या मेरा बनने में सुख है, बताओ ?”

“अभी मेरे पूरे शरीर में बहुत दर्द हो रहा है, ठीक होने पर आपको बता दूँगा।”

“मैं अभी ठीक कर देता हूँ।”

भगवान का स्पर्श होते ही कनक का सारा दर्द दूर होकर शरीर पुलकित हो गया। वे बोलेः “प्रभु ! आप इतनी परीक्षा क्यों ले रहे हैं  ? मैं आपका बना तो जैसा बोलूँगा वैसा आप करोगे ?”

“हाँ करूँगा।”

“तो ठीक है, मैं जब भी स्मरण करूँ आप दर्शन देना और अभी अपना असली रूप दिखाइये।”

भगवान ने अपना मनोहर चतुर्भुज रूप का दर्शन कराया, जिसे देखकर कनक की भाव समाधि लग गयी और वे वहीं मौन, शांत अवस्था में बैठे रहे। अब तन तो वही था किंतु मन परिवर्तित हो गया, जीवन ने करवट ली। कनक नामक शरीर में स्थित वैराग्यरूपी असली कनक अपनी पूर्ण कांति के साथ देदीप्यमान हो रहा था। जब उन्होंने होश सँभाला तो घर आये और अपना सारा काम काज दूसरों को सौंप दिया। ʹकेशव.. केशव…..ʹ की पुकार गाँव की गलियों में गूँज उठी औऱ थोड़े समय में लोगों ने देखा कि भगवान केशव के मंदिर में कनक अपने आँसुओं से प्रभु का चरणाभिषेक कर रहे हैं।

कनक के कल्याण का जिम्मा अब उनके प्रभु ने उठा लिया था। जब भगवान अपने भक्त का परम कल्याण करना चाहते हैं तो सदगुरुरूप में उसके जीवन में प्रवेश करते हैं, साथ ही भक्त को अपना पता भी बता देते हैं।

मध्यरात्रि हुई। कनक ने स्वप्न देखा। भगवान स्नेहभरी दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए कह रहे थेः “कनका ! तू मुझे हमेशा अपने पास देखना चाहता है न ! तो मैं तुम्हारे जीवन में ब्रह्मज्ञान सदगुरु के रूप में प्रवेश करूँगा। अब तू देर न कर, श्रीव्यासराय जी से दीक्षा ले ले। जब गुरु उपदेश से तू मुझे तत्त्वरूप से जान लेगा तो मैं तुझसे बिछुड़ ही नहीं सकता। फिर तू अत्यन्त प्यारा हो जायेगा।”

कनक गुरु व्यासराय जी को ढूँढने के लिए निकल पड़े। उस समय व्यासराय जी मदनपल्ली प्रांत (आन्ध्र प्रदेश) में एक बड़ा तालाब बनवा रहे थे। तालाब के सामन स्थित बड़े पत्थरों को कैसे हटायें, ऐसा सोच रहे थे कि इतने में कनक वहाँ पहुँच गये और उन्हें प्रणाम किया।

व्यासराय जी ने पूछाः “तुम कौन हो ?”

“जी कनक, बकरी चराने वाला।”

“क्यों आये हो ?”

“गुरुदेव ! आपसे मंत्र-उपदेश लेने आया हूँ।”

“बकरी चराने वाले को क्या मंत्र देना ? ʹभैंसाʹ मंत्र !”

मरुभूमि में प्यास के मारे भटकते पथिक को जल का स्रोत मिल गया। सूखते तालाब में छटपटाती मछली को महासागर मिल गया। कनक का मन मयूर झूम उठाः ʹमिल गया गुरुमंत्र !ʹ उन्होंने बड़े प्रेमभाव से गुरु जी को प्रणाम किया और आज्ञा लेकर निर्जन स्थान में एक पेड़ के नीचे बैठ के ʹभैंसा-भैंसाʹ जपने लगे। उनकी गुरु निष्ठा और निर्दोष, सात्त्विक श्रद्धा से भगवान यमराज का वाहन भैंसा सामने प्रकट होकर गम्भीर आवाज में बोलाः “क्या चाहिए ?”

कनक ने उसे ले जाकर व्यासराय जी के सामने खड़ा कर दिया। निवेदन कियाः “गुरुदेव ! आपका मंत्र प्रकट रूप धारण कर चुका है। इसका क्या करूँ ?”

व्यासराय जीः साधो ! साधो !! निष्ठा इसी का नाम है। तुममे शिष्य बनने के लक्षण हैं। अब इस विशालकाय भैंसे से तालाब के सामने में जो बड़े बड़े पत्थर हैं, उनको हटवा दो !”

कनक ने गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर उस भैंसे से कार्य पूर्ण कराया। कनक की निष्ठा देखकर व्यासरायजी का हृदय छलक उठा और उन्हें विधिवत् मंत्रदीक्षा दे के अपना शिष्य स्वीकार कर लिया। उस दिन से कनक का नाम कनकदास। कनकदासजी कर्नाटक के सुविख्यात संतों में से एक हैं। इनके कीर्तन कर्नाटक में अत्यन्त लोकप्रिय हैं। ये कीर्तन हरिभक्ति से ओतप्रोत होने के साथ ही इनमें आध्यात्मिक गहराई भी झलकती है। आप  लिखते हैं-

साधु संग कोट्टु, निन्न पादभजनेयित्तु।

एन्न भेदमाडि नोडदिरू, अधोक्षज।।

ʹहे अधोक्षज (विष्णु जी) ! साधु का संग और अपने चरणों का स्मरण देना। आप मुझे भेदबुद्धि से मत देखना (मुझे नजरअंदाज न करना)।ʹ

ज्ञान भक्ति कोट्टु, निन्न ध्यानदिल्ल इट्टु।

सदा हीन बुद्धी बिडिसु मुन्न, जनार्दन।।

ʹहे जनार्दन ! मुझे ज्ञान, भक्ति दीजिये। मुझे आपके ध्यान में तल्लीन रखिये। हमेशा के लिए मेरी हीन बुद्धि दूर कीजिये।ʹ

पुट्टिसलु बेड मुन्दे पुट्टिसिदके पालिसिन्नु।

इष्टु मात्र बेडिकोम्बे, श्री कृष्णने।।

ʹहे श्रीकृष्ण ! अब आगे जन्म नहीं देना। मुझे पैदा किया है तो मेरा पालन कीजिये, केवल इतनी ही प्रार्थना करता हूँ।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 14,15

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