परम उन्नतिकारक श्रीकृष्ण-उद्धव प्रश्नोत्तरी

परम उन्नतिकारक श्रीकृष्ण-उद्धव प्रश्नोत्तरी


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी से)

उद्धव जी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछाः “प्रभु ! मेरे मन में एक प्रश्न और उठता है कि दुःख क्या है ?”

भगवान श्रीकृष्णः “भोग नहीं हैं, चीज-वस्तुएँ नहीं हैं, यह दुःख है ? नहीं। दुःख यह है कि ʹमुझे यह मिले, यह मिले….. मैं यह पाऊँ, यह खाऊँ, ऐसा बनूँ, ऐसा बनाऊँ…ʹ ऐसी जो बेवकूफी है, अज्ञान है वही दुःख पैदा करता है। ʹयह चाहिए, यह चाहिए, इतना होते हुए भी फिर चला न जायʹ – इस बेवकूफी का नाम दुःख है। जो आया है वह तो जायेगा, ʹचला न जायʹ – इसी का नाम तो दुःख है। ʹअवस्था बनी रहे, चीज बनी रहे, मेरी पत्नी बनी रहे, मेरा पति बना रहे, मेरा पति मर गया मैं विधवा हो गयी, मेरे गहने गाँठें चले गये।ʹ तो यह बेवकूफी है। पति तो गया, अब रोने से पति का आत्मा भटकेगा, तेरा आत्मा भटकेगा, पति बना रहे – यह आग्रह है और पति चला गया तो भगवान में से श्रद्धा हट गयी तो यह बेवकूफी है।”

उद्धवजीः “पंडित कौन है ?”

ʹजो बड़े-बड़े शास्त्र जानते हैं, बड़े ज्ञान के धनी हैं ऐसे  पंडित, न्यायाचार्य, वेदांताचार्य, षडदर्शनाचार्य तो काशी में खूब मिलेंगे, दक्षिणा देकर किसी को भी बुला लो। शास्त्र पढ़ लेने से और पढ़ा देने से कोई पंडित नहीं हो जाता, संसाररूपी कारागार से छुड़ाने की रीति को जो जानता है उसका नाम पंडित है। पंडित वह है जो समदर्शी है। कुत्ते में, हाथी में और सबमें जो ब्रह्म को देखता है वह महापुरुष पंडित है, ब्रह्मवेत्ता है।”

“मूर्ख कौन है ?”

“उद्धव ! जो अनपढ़ हैं उसको मूर्ख कहते हैं, ऐसा नहीं है। जो शरीर को ʹमैंʹ मानता है, इऩ्द्रियों को ʹमेरीʹ मानता है, दुःख-सुख को सच्चा मानता है, संसार को सच्चा मानता है और अपने असली ʹमैंʹ को नहीं जानता वह विद्वान होते हुए भी मूर्ख है।”

“माधव ! आप इतना रहस्यमय ज्ञान देते हैं तो मेरी जिज्ञासा और भी बढ़ती है। हे परमेश्वर ! सुमार्ग क्या है   ?”

श्रीकृष्ण मंद मंद मुस्कराते हुए कहते हैं- “उद्धव ! जो संसार की ओर से निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा सुमार्ग है। परमात्मप्राप्ति का निश्चय करना अर्थात् परमात्मरस, परमात्मज्ञान और परमात्मशांति की प्राप्ति का द्वार खोलना है। परमात्मशांति से सामर्थ्य आयेगा, परमात्म ज्ञान से अज्ञान मिटेगा, व्यक्ति निर्भीक हो जायेगा और परमात्मरस से नीरसता जायेगी – यह है सुमार्ग।”

“कुमार्ग क्या है?”

“जो करने से, भोगने से, सोचने से चित्त में विक्षेप होता हो, अंत में निराशा, दुःख, चिंता और वियोग हो वे सब कुमार्ग हैं।”

ʹयह करूँ, यह करूँ…..ʹ बी.एड कर लिया फिर भी दुःखी हैं। ज़ॉब कर लिया फिर भी दुःखी हैं। ये सब कुमार्ग के कारण दुःखी हैं। जॉब नहीं करो ऐसा नहीं है। यह सब करो लेकिन मुख्य वृत्ति मुख्य उद्देश्य को दो। अपना ऊँचा उद्देश्य है परमात्मरस-प्राप्ति।

“स्वर्ग क्या है और नरक क्या है ?”

“अंतःकरण में सत्त्वगुण की प्रधानता हो, समझ की रोशनी हो तो आप स्वर्ग में हैं। सुख दुःख में समता और चित्त में ज्ञान का प्रकाश हो व आनंद रहे यह वास्तविक स्वर्ग है। रजोगुण की प्रधानता है तो आप संसार में हैं, तमोगुण की प्रधानता है तो आप नरक में हैं।

ʹनरक, स्वर्ग और संसार रोज होता रहता है। हो-होकर बदल जाता है पर जो कभी नहीं बदलता वह सत्स्वरूप ʹमैंʹ हूँ। इन तीनों अवस्थाओं से पार जो है वह परमात्मा मेरा है।ʹ – इस ज्ञान का आदरसहित अभ्यास करना चाहिए। इसका दीर्घकाल तक अभ्यास करने से परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है।

“सच्चा बंधु कौन है ?”

“सच्चा बंधु वह है जो हित की तरफ, शुद्ध प्रेम की तरफ ले जाय। भलाई के मार्ग की तरफ ले जाते हैं वे गुरु ही सच्चे बंधु हैं, सच्चे मित्र हैं।”

प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम नहीं, शुद्ध प्रेम। सच्चे-में सच्चा सखा संबंधी सब कुछ वे ही हैं, इसलिए गुरु को बोलते हैं-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव।

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव…….

वे माता-पिता भी हैं, बंधु सखा भी हैं, सर्वस्व वे ही हैं।

“सच्चा घर क्या है ?”

“इस जीवात्मा का घर तो शरीर ही है। यह घर स्थूल घर है। अंतःकरणरूपी सूक्ष्म घर भी होता है, जो मरने के बाद अपने साथ रहता है। बाहर का मकान मरने के बाद साथ नहीं रहता और घर से बाहर गये तो भी साथ में नहीं चलता किंतु यह शरीररूपी मकान साथ में ही चलता है, सच्चा घर यह है और इससे भी सच्चा घर अंतवाहक (सूक्ष्म) शरीर है जो मरने के बाद भी साथ रहता है।”

“सबसे बड़ा धनी कौन है ?”

जिसके पास समाज को शोभित करके इकट्ठी की हुई धन-सम्पदा और मकान हैं, मिलियन, बिलियन, ट्रिलियन रूपये या डॉलर हैं वह मूर्खों की नजर में विषय-विलासियों की नजर में धनवान है। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं- “जिसमें विनय है, क्षमा है, शांति है, भक्ति है, गुणग्राहिता है वह सच्चा धनी है। जिसको कोई इच्छा नहीं वह परम धनी हो गया।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 16,17,23

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