Monthly Archives: July 2012

किसे छुपायें, किसे बतायें ?


(पूज्य बापू जी की दिव्य अमृतवाणी)

नौ बातें अपने जीवन में गोपनीय रखनी चाहिएः

एक तो अपनी आयु गोपनीय रखनी चाहिए। जिस किसी को अपनी आयु नहीं बतानी चाहिए। महिलाओं को तो अपनी आयु बतानी ही नहीं चाहिए, पुरुषों को भी नहीं बतानी चाहिए। अपना धन गोपनीय रखना चाहिए। घर का रहस्य और अपना मंत्र गोपनीय रखना चाहिए। पति पत्नी का ससांरी व्यवहार, क्या औषधि खाते हैं, किया हुआ साधन-भजन, तप तथा दान करो तो वह भी गोपनीय रखना चाहिए  अपना अपमान भी नहीं जाहिर करना चाहिए। कहीं अपमान हो गया तो बेवकूफी नहीं करना कि ʹमेरा फलाने ने ऐसा अपमान किया, फलाना मेरा दुश्मन है।ʹ यह बात नहीं बतानी चाहिए, नहीं तो आपके ही लोग कभी आपके दुश्मन बन के उसका सहयोग लेंगे और आपको दबोच देंगे। बराक ओबामा, राष्ट्रपति (अमेरिका) अपने भाषण में बोलते हैं कि ʹमेरे विरोधी मुझे कुत्ता समझते हैं।ʹ उन्हें यह शास्त्रज्ञान होता तो वे ऐसा नहीं बोलते।

नौ बातों को तो बिल्कुल खुल्लम-खुल्ला कर दो, उनकी पोल खोल दिया करो। ऋण लेने की बात है तो आप खुली कर दो कि ʹमुझे यहाँ से, इस बैंक से ऋण लेना है, इससे कर्जा लेना है।ʹ ऋण चुकाने की बात सबको बता दो कि ʹमैंने इतना चुकाया है, इतना चुकाना बाकी है। इनका कर्जा मुझे देना है।ʹ इससे आपकी विश्वसनीयता बढ़ जायेगी। शास्त्र कहते हैं, विक्रय की वस्तु को भी खूब जाहिर कर दो कि ʹमुझे यह बेचना है।ʹ क्या पता और भी ज्यादा में खरीदने वाला कोई ग्राहक मिल जाय ! कन्यादान छुप के नहीं करना चाहिए, जाहिर में करना चाहिए। क्या पता दामाद कैसा हो ! दसों लोगों को कहो कि ʹफलाने के साथ मैं अपनी कन्या का संबंध करना चाहता हूँ।ʹ उसके पड़ोसियों को भी कहो। क्या पता कन्या का कहीं अमंगल छुपा हो तो वह प्रकट हो जाये।

आप अपना अध्ययन खुला रखिये कि ʹभाई ! हम तो इतना पढ़े हैं।ʹ इससे लोगों में आपकी विश्वसनीयता और सरलता जाहिर होगी। मैं तो तीसरी कक्षा तक ही पढ़ा हूँ, सच बोलता हूँ। लेकिन डी.लिट्. और पी.एच.डी. पढ़े हुए कई मेरे शिष्य हैं और करोड़ों में श्रोता हैं।

उत्तम वंश और खरीद को छुपाइये मत। एकांत में किया हुआ पाप छुपाइये मत। निष्कलंकता (अनिंदनीय कर्मों) को भी छुपाइये मत।

नौ व्यक्तियों का आप विरोध मत करिये। विरोध हो गया तो तुरंत मीठी भाषाँ से सँवार लीजिये। आपको जो रसोई बना के खिलाते हैं उनका विरोध लम्बे समय मत करिये। न जाने कुभाव से वे कुछ खिला दें तो ? तुरंत अपने रसोइये से समझौता कर लेना चाहिए। आप शस्त्रहीन हैं और सामने शस्त्रधारी है तो उससे अकेले में विरोध मत करिये। बोल दोः ʹहाँ भैया ! ठीक है बाबा !! ठीक है, तुम ठीक कहते हो।ʹ नहीं तो लट्ठधारी है, क्या पता ʹतू-तू, मैं-मैंʹ में दिखा दे कुछ ! उस समय सोच लो-

ʹज्ञानी के हम गुरु हैं, मूरख के हैं दास।

उसने दिखाया डंडा तो हमने जोड़े हाथ।।

फिर उसे कोई बड़ा मिलेगा तो अपने-आप ठीक हो जायेगा। हम क्यों सिरदर्द मोल लें !ʹ

जो आपके जीवन के रहस्य, मर्म जानते हों, उनसे भी आपको नहीं भिड़ना चाहिए। अपने स्वामी, बड़े अफसर, बड़े अधिकारी से भी नहीं भिड़ना चाहिए। भिड़ोगे तो क्या पता तबादला कर दे, कुछ आरोप लगा दे। मूर्ख मनुष्य से भी नहीं भिड़ना चाहिए। धनवान, सत्तावान और वैद्य (डाक्टरः से भी नहीं भिड़ना चाहिए। कवि और भाट से भी न भिड़ें, नहीं तो ये आपका कुप्रचार करेंगे। लेकिन आप संत हैं तो ? आपका तो स्वभाव नहीं है भिड़ने का, फिर भी कोई कुछ करता है तो सम रहकर सब परिस्थितियों के बापस्वरूप ईश्वर में रहना चाहिए। यह दसवीं बात मैंने मिलायी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 11,13

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फिर भी सौदा सस्ता है


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

बोलते हैं कि काशी में मरो तो मुक्ति होती है, मंदिर में जाओ तो भगवान मिलेंगे, तो कबीर जी ने कह दियाः

पाहन पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार।

किसी की भी बात मान लें ऐसे में से कबीर जी नहीं थे। वे पूरे जानकार थे। मिश्री-मिश्री कहने से मुँह मीठा नहीं होता, ऐसे ही राम-राम करने से राम नहीं दिखते। राम के लिए प्रेम होगा तब रामनाम जपने से वास्तविक लाभ होता है। कबीर जी ऐसे दृढ़ थे कि असत्य अथवा पंथ-सम्प्रदाय को नहीं मानते थे। वे ही कबीर जी बोलते हैं-

यह तन विष की बेल री….

यह तन विष की बेल है। पृथ्वी का अमृत अर्थात् गौ का दूध पियो, पवित्र गंगाजल पियो, पेशाब हो जायेगा, कितना भी पवित्र व्यंजन खाओ, सोने के बर्तनों में खाओ, विष्ठा हो जायेगा। खाकर उलटी करो तो भी गंदा और हजम हो गया तो भी मल-मूत्र हो जायेगा। हजम नहीं हुआ तो अम्लपित्त (एसिडिटी) की तकलीफ करेगा।

मिठाई की दुकान पर कल तक जो मिठाइयाँ रखी हुई थीं, जिन्हें अगरबत्तियाँ दिखाई जा रही थीं उन्हीं को खाया तो सुबह उस माल का क्या हाल होता है, समझ जाओ बस !

शरीर क्या है ? जिसको ʹमैंʹ मानते हो यह तो विष बनाने का, मल-मूत्र बनाने का कारखाना है। इसे जो भी बढ़िया-बढ़िया खिलाओ वह सब घटिया हो जाता है।

यह शरीर अपवित्र है। वस्त्र पहने तो वस्त्र अशुद्ध हुए। सोकर उठे तो मुँह अशुद्ध हो गया, बदबू आने लगी। आँखों से, नाक से गंदगी निकलती है, कान से गंदगी निकलती है और नीचे की दोनों इन्द्रियों से तो क्या निकलता है समझ लो….! तौबा है साँई, तौबा ! तुममें भरा क्या है जो खुद को कुछ समझ रहे हो ? यह तो भगवान की कृपा है कि ऊपर चमड़ा चढ़ा दिया। चमड़ा उतारकर जरा देखो तो हाय-हाय ! बख्श गुनाह ! तौबा साँई, तौबा ! ऐसा तो अंदर भरा है।

यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान।

ऐसा नापाक, अशुद्ध शरीर ! इस अशुद्ध शरीर में भी कोई सदगुरु मिल जायें तो शुद्ध में शुद्ध आत्मा का ज्ञान करा देते हैं, परमात्मा का दीदार करा देते हैं। जो आत्मसाक्षात्कारी पुरुष हैं वे अमृत की खान होते हैं। आत्मसाक्षात्कार होता है तब हृदय परमात्मा के अनुभव से पावन होता है। वह हृदय जिस शरीर में है उसके चरण जहाँ पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है। वे पुरुष तीर्थ आदि पवित्र करने वालों को भी पवित्र कर देते हैं। फिर उनके शरीर को जो मिट्टी छू लेती है वह भी दूसरों का भाग्य बना देती है।

यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान।

सीस दिये सदगुरु मिलें, तो भी सस्ता जान।।

….तो यह शरीर विष की बेल के समान है और सदगुरु अमृत के समान। सिर देकर भी यदि सदगुरु मिलते हों तो भी सौदा सस्ता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 23

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चतुर्मास में विशेष पठनीय – पुरुष सूक्त


जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़े होकर ʹपुरुष सूक्तʹ का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है।

श्री गुरुभ्यो नमः।

हरिः

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।

स भूमिँसर्वतः स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङगुलम्।।

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।।1।।

पुरुषएवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।2।।

जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।।2।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः।

पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।3।।

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।।3।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोस्येहाभवत्पुनः।

ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनेअभि।।4।।

चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।

ततो विराडजायत विराजोअधि पूरुषः।

स जातोअत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः।।5।।

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।।5।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये।।6।।

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई।।6।।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।7।।

उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ।।7।।

तस्मादश्वाअजायन्त ये के चोभयादतः।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताअजावयः।।8।।

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।।8।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।

तेन देवाअयजन्त साध्याऋषयश्च ये।।9।।

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया।।9।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाउच्येते।।10।।

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?।।10।।

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद् भ्याँ शूद्रोअजायत।।11।।

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादिग्निरजायत।।12।।

विराट पुरुष की नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)।।13।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।

वसन्तोस्यासीदाज्यं ग्रीष्मइध्मः शरद्धविः।।14।।

जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।

देवा यद्यज्ञं तन्वानाअबध्नन् पुरुषं पशुम्।।15।।

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं।।15।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।।16।।

शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!

(यजुर्वेदः 31.1.-16)

सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकाररहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं। (यजुर्वेदः 31.18)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 24,25

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