वास्तविक उन्नति

वास्तविक उन्नति


(पूज्य बापूजी की अमृतवाणी)

लोग बोलते हैं, ʹउन्नति-उन्नति…..ʹ लेकिन अपनी-अपनी मान्यता और कल्पना की उन्नति एक बात है। वास्तविक उन्नति कौन सी है ? बढ़िया फर्नीचर है, बढ़िया खाने-पीने की चीजें बहुत हैं, घूमने के साधन बहुत हैं अर्थात् जिसमें भोग-सामग्री बढ़ाने की वृत्ति हो, वह समझो पैशाचिक उन्नति है। भोग-सामग्री बढ़ाकर जो अपने को बड़ा मानता है, समझो वह पिशाच-योनि की वासना वाला व्यक्ति है।

जो धन बढ़ाकर अपने को बड़ा मानता है वह राक्षसी वृत्ति का है। राक्षसों के पास खूब धन होता है। रावण के पास देखो, सोने की लंका थी। ʹमैं रावण हूँ, बड़ा धनी हूँ….ʹ जो दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मानना चाहता है उसकी दानवी उन्नति है। दानव लोग दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मनाने में ही खप जाते हैं। जो सदभाव का विकास करके बड़ा बनना चाहते हैं, सत्संग में जाकर, जप-ध्यान करके, दीक्षा ले के अपनी उन्नति करना चाहते हैं, उनका असली बड़प्पन का रास्ता अच्छी तरह से खुलने लगता है। वे ज्ञान-विज्ञान से तृप्त होकर असली पुरुषार्थ, ʹपुरुषस्य अर्थ इति पुरुषार्थः।ʹ परमात्मा के अर्थ में शरीर को रखेंगे, खायेंगे-पियेंगे, देंगे-लेंगे लेकिन महत्त्व भगवान को देंगे। उनमें सागर जैसी गम्भीरता आ जाती है। सागर की ऊपर की तरंगें खूब उछलती-कूदती हैं लेकिन गहराई में बड़ा शांत पानी, ऐसे ही वे नींद में से उठेंगे तो उनकी बुद्धि भगवान की गम्भीर उदधि की गहराई जैसी अवस्था में होगी। जैसे श्रीरामचन्द्रजी को राज्याभिषेक होने की खबर मिली तो भी उछल कूद नहीं। सागर की गहराई में जैसे पानी गम्भीर रहता है, ऐसे ही रामचन्द्र जी का स्वभाव शांत व गम्भीर रहा। वनवास मिला तो श्रीरामचन्द्रजी के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ी, ʹहोता रहता है, संसार है।ʹ

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।

यह नाव तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।।

संसार है, बीतने दो। गम्भीरता से इसको देखो। ऐसा करने वाला व्यक्ति परमार्थ के रास्ते अच्छी तरह से तरक्की करता है। उसमें विनयी स्वभाव भी आ विराजता है। ʹमैं ऐसा हूँ…. मैं वैसा हूँ….ʹ यह मान्यता उसकी क्षीण हो जाती है।ʹमैं भगवान का हूँ, चेतनस्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ और सदा मेरा साथ निभाने वाला अगर कोई है तो भगवान ही है।ʹ – ऐसी उसकी ऊँची सूझबूझ हो जाती है। ʹपिछले जन्म की माँ नहीं है, बाप नहीं है, मित्र नहीं है लेकिन अंतरात्मा तो वही का वही। बचपन के मित्र नहीं हैं, सखा नहीं हैं, स्नेही नहीं हैं। बचपन में जो मेरी तोतली भाषा के समय थे अथवा किशोर अवस्था में थे, वे न जाने कहाँ चले गये ! उनको जानने वाला अभी भी मेरा परमात्मा मेरे साथ है।ʹ – ऐसी सूझबूझ उसकी बढ़ती जाती है। उसका अहं अन्य वस्तु, अन्य व्यक्ति के फंदे में नहीं फँसता, उसका ʹमैंʹ मूलस्वरूप परमात्मा के ʹमैंʹ से स्फुरित होता है और उसी में शांति पाता है। उसमें तुच्छ अहंकार का अभाव हो जाता है।

ऐसे जो वास्तविक उन्नति के रास्ते चलते हैं, उसको ʹसाधकʹ कहते हैं। वे परम पद की साधना में ही उन्नति मानते हैं। चाहे रहने-खाने की सुविधा अच्छी हो या साधारण, लेकिन चिंतन भगवान का, शांति भगवान में, चर्चा भगवान की, आनंद  भगवान का, विनोद भगवान से, माधुर्य भगवान का…. तो वे वास्तविक उन्नति के धनी साधक आत्मसुख में, आत्मचर्चा में, आत्मज्ञान में, परमात्मरस में रसवान हो जाते हैं। ऐसे लोगों को कुछ बातों का ध्यान रखना होता है।

पहला, अपने कर्म जाँचें कि हम दूषित कर्म तो नहीं करते अथवा दूषित कर्मवालों के प्रभाव में तो हम नहीं खिंच जाते हैं। दूसरा, हमारे में धैर्य है कि नहीं। जरा जरा बात में हम चिढ़ जाते हैं या प्रभावित हो जाते हैं, ऐसा तो नहीं है। तीसरा, आत्मनिरीक्षण करके महापुरुषों के वचनों को आत्मसात् करने की तत्परता रखनी चाहिए। ऐसे लोगों को भगवान की प्राप्ति सुगम हो जाती है। उनमें भगवान के दिव्य गुण आने लगते हैं। प्रशान्त चित्त, दयालु स्वभाव, स्वार्थरहित प्रेम, सदा सत्यचिंतन, सत्य में विश्रान्ति, साधननिष्ठा में दृढ़ता, सहृदयता, आस्था और श्रद्धा-विश्वास, प्रभुप्रीति, पूर्ण आत्मीयता, ʹप्रभु मेरे हैं, मैं प्रभु का हूँ और प्रभु के नाते सब मेरे हैं, मैं सबका हूँʹ – ऐसे दिव्य गुणों में वे अपनी उन्नति मानते हैं। सचमुच यही उन्नति है। राजा भर्तृहरि लिखते हैं कि ʹमनुष्य जीवन में गुणी जनों का संग, संतजनों का संग, संतजनों का सत्संग और उनके मार्ग से परमात्मा में शान्ति, प्रीति – वास्तविक उन्नति यही है।ʹ

सत्संग से राक्षसी उन्नति, मोहिनी उन्नति, तामसी उन्नति, राजसी उन्नति इनका आकर्षण छूटकर असली उन्नति होती है। सत्संग के बिना की ये सब उन्नतियाँ अपनी-अपनी जगह पर व्यक्ति को उन्हीं दायरों में लगा देती हैं लेकिन सत्संग के बाद पता चलता है कि वास्तविक उन्नति प्रजा की, राजा की और मानव की किसमें हैं ?

ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ के मुख्य श्रोता हैं भगवान रामजी और वक्ता हैं भगवान राम के गुरु वसिष्ठजी। वसिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चांडाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे तो वह भी श्रेष्ठ है पर मूर्खता से जीवन व्यर्थ है।”

संसार को सत्य मानना, देह को ʹमैंʹ मानना, मिलने-बिछुड़ने वाली चीजों के लिये सुखी-दुःखी होना – यह मूर्खता है। तुच्छ मतिवाले प्राणी इसी में उलझते, जन्मते-मरते रहते हैं। मनुष्य भी ऐसे ही जिया और ऐसे ही मरा, प्रकृति के प्रभाव में परेशानीवाली योनि में भटकता रहा तो धिक्कार है उन उन्नतियों को !

आत्मलाभात् न परं विद्यते। आत्मज्ञानात् न परं विद्यते। आत्मसुखात् न परं विद्यते। – इन वचनों की तरफ ध्यान देकर वास्तविक उन्नति की तरफ चलना चाहिए। इंद्रियशुद्धि, भावशुद्धि और आत्मज्ञान देने वाले महापुरुषों का मार्गदर्शन सच्ची उन्नति और शाश्वत उन्नति देता है, बाकी सब नश्वर उन्नतियाँ नाश की तरफ घसीट ले जाती है। अतः जहाँ सत्संग मिलता है उस स्थान का त्याग नहीं करना चाहिए।

वास्तविक उन्नति अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से, आत्मा-परमात्मा की प्रीति से, आत्मा-परमात्मा में विश्रान्ति पाने से होती है। जिसने सत्संग के द्वारा परमात्मा में आराम करना सीखा, उसे ही वास्तव में आराम मिलता है, बाकी तो कहाँ है आराम ? साँप बनने में भी आराम नहीं, भैंस बनने में भी आराम नहीं है, कुत्ता या कलंदर बनने में भी आराम नहीं, आराम तो है अंतर्यामी राम का पता बताने वाले संतों के सत्संग में, ध्यान में, योग में। वहाँ जो आराम मिलता है, वह स्वर्ग में भी कहाँ है !

संत तुलसी दास जी कहते हैं-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

(श्रीरामचरित. सुं.कां. 4)

सत्संग की बड़ी भारी महिमा है, बलिहारी है। ʹमैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं। संसार और शरीर पंचभौतिक हैं लेकिन जीवात्मा चैतन्य है, परमात्मा का है। परमात्मा के साथ हमारा शाश्वत संबंध है। शरीर के साथ हमारा काल्पनिक संबंध है।ʹ

पक्का निश्चय करो कि ʹआज से मैं भगवदरस पिऊँगा। वास्तविक उन्नति का मर्म जानकर तुच्छ उन्नति को उन्नति मानते गलती निकाल दूँगा।ʹ वास्तविक उन्नति जिसकी होती है, उसे तुच्छ उन्नति करनी नहीं पड़ती, अपने आप हो जाती है।

गहरा श्वास लो और सवा मिनट श्वास रोककर जितना हो सके ૐकार का जप करो, वास्तविक उन्नति बिल्कुल हाथों-हाथ ! दस बार रोज करो, चालीस दिन के अनुष्ठान, मौन व एकांत से आपको चमत्कारिक अनुभव होने लगेंगे। मुझे हुए हैं, तुमको क्यों नहीं होंगे ! मुझे मिला है तुम्हें क्यो नहीं मिलेगा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 4,5,30 अंक 236

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